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दलित राजनीति का नया दौर

Dr Ambedkar RSS

भारत की आबादी में कोई 16 से 17 फीसदी दलित हैं। अलग अलग राज्यों में इनकी संख्या इससे थोड़ा ऊपर या नीचे है। सबसे ज्यादा 33 फीसदी दलित पंजाब में हैं। बिहार में जहां अभी विधानसभा चुनाव होने वाला है वहां करीब 20 फीसदी आबादी दलित है। उत्तर प्रदेश में भी 19 फीसदी के करीब दलित आबादी है। आजादी के बाद 78 साल के दौर में दलितों को मोटे तौर पर वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया गया। कांशीराम और मायावती ने जरूर इस स्थिति को बदलने का प्रयास किया और काफी हद कर उसमें कामयाब भी रहे लेकिन बड़े आश्चर्यजनक तरीके से उस राजनीति का दौर बीत गया या उसका ढलान आ गया। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ने 2012 में सत्ता से बाहर होने के बाद पिछले 13 वर्षों में अपनी प्रासंगिकता काफी हद तक गंवा दी। उसकी जगह लेने के लिए चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी बनी है लेकिन इससे पहले की उसका कोई मजबूत आधार बनता उस पर भाजपा की बी टीम होने का ठप्पा लग गया।

बिहार में दलित नेताओं की तीन पार्टियां हैं, लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास, राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी और हिंदुस्तान अवाम मोर्चा। इनके नेता चिराग पासवान, पशुपति पारस और जीतन राम मांझी अपने को प्रासंगिक बनाए रखने की बड़ी मेहनत कर रहे हैं लेकिन उनका लक्ष्य सिर्फ अपने और अपने परिवार के लिए सत्ता हासिल करना है। इसलिए वे समूचे दलित समाज की बजाय सिर्फ अपनी जाति के नायक बन कर रह गए हैं और इसी रूप में बड़ी पार्टियां उनका इस्तेमाल करती हैं। महाराष्ट्र में कायदे से डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के नाम की राजनीति बड़ी होनी चाहिए थी लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। उनके पोते प्रकाश अंबेडकर की पार्टी भी नहीं चली और न रामदास अठावले की पार्टी चली। तमिलनाडु में वीसीके नाम से एक दलित पार्टी बनी लेकिन उसका भी असर बहुत सीमित ही रहा।

लेकिन अब दलित राजनीति का नया दौर शुरू हुआ है। जिस तरह से नब्बे का दशक पिछड़ा राजनीति को भारतीय राजनीति के केंद्र में स्थापित करने वाला था उसी तरह मौजूदा दशक दलित राजनीति को केंद्र में लाने वाला है। नए अंबेडकरवादी नेता उभर रहे हैं, जो अगड़ी जातियों के हैं, पिछड़ी जातियों के हैं और मुस्लिम भी हैं। दलित समुदाय की राजनीति करने वाले नेता भी इनको हैरानी भरी नजरों से देख रहे हैं और उनके दलित प्रेम का आकलन कर रहे हैं। आज सबसे बड़े अंबेडकरवादी नेता नरेंद्र मोदी हैं और उनका मुकाबला राहुल गांधी से है, अरविंद केजरीवाल से है, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव से है, एमके स्टालिन और असदुद्दीन ओवैसी से भी है। सोचें, अरविंद केजरीवाल ने तो महात्मा गांधी को ही अंबेडकर से रिप्लेस कर दिया। वे जब दिल्ली के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने सरकारी कार्यालयों से गांधी की तस्वीरें हटवा दीं और उनकी जगह अंबेडकर की तस्वीरें लगवा दीं। उन्होंने उसी समय समझ लिया था कि गांधी तो बनियों का वोट भी नहीं दिलवा पाएंगे, जो उनको अपने नाम पर मिल जाएगा। लेकिन अंबेडकर दलितों के वोट दिलवा सकते हैं। इसलिए उन्होंने अंबेडकर को अपना लिया और गांधी को छोड़ दिया। इसके जवाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंबेडकर के नाम पर देश में पंचतीर्थ विकसित कर दिए। राजधानी दिल्ली में अंबेडकर के नाम से दो बड़े सेंटर खोले गए। लंदन में अंबेडकर जहां रहे थे वह इमारत खरीदी गई। पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी नागपुर संघ मुख्यालय गए तो उन्होंने दीक्षा भूमि जाकर बाबा साहेब अंबेडकर को श्रद्धांजलि दी। उन्होंने बाकी सभी लोगों के लिए मुकाबला बहुत कठिन बना दिया है।

अब सवाल है कि इस परिघटना का क्या कारण है? क्या मायावती और उनकी बहुजन समाज पार्टी के हाशिए में जाने से दूसरी पार्टियों और नेताओं को मौका मिला है कि वे अंबेडकरवादी बनें और दलित राजनीति करें? यह एक कारण हो सकता है। क्योंकि मायावती की पिछले एक दशक की राजनीति ने उनके मॉडल के फॉल्टलाइन को जाहिर किया है। यह धारणा बनी है कि किसी दबाव में उन्होंने भाजपा के आगे सरेंडर कर दिया। वे निष्क्रिय होकर राजनीति करने लगीं, जिससे उनका वोट भाजपा की ओर शिफ्ट होने लगा। ऐसा होते देख कर ही अखिलेश यादव उस वोट की ओर लपके और उन्होंने पिछड़ा, दलित एकता बनाने का राग गाना शुरू किया। अखिलेश ने पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक का नारा गढ़ा। उत्तर प्रदेश में भाजपा ने ठाकुर समाज के योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया है। पहले माना जा रहा था कि वे वास्तविक अर्थों में एक योगी की तरह बरताव करेंगे और समस्त हिंदू समाज को साथ लेकर चलेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। एक तरफ भाजपा का सवर्ण नेतृत्व और दूसरी ओर मायावती निष्क्रियता और तीसरे, संविधान पर संकट के हल्ले से लोकसभा चुनाव में दलित समाज सपा की ओर चला गया। इसका नतीजा यह हुआ कि सपा और कांग्रेस का गठबंधन 43 सीटों पर चुनाव जीत गया।

सो, निश्चित रूप से मायावती की निष्क्रियता ने इस नई परिघटना को जन्म देने में अहम भूमिका निभाई है। लेकिन सिर्फ वही कारण नहीं है। मायावती की निष्क्रियता से सिर्फ उत्तर प्रदेश में एक खालीपन आया है, जिसको भरने के लिए चंद्रशेखऱ भी आए हैं तो अखिलेश भी जोर लगा रहे हैं। लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में स्थितियां बिल्कुल अलग हैं। असल में सोशल मीडिया के जरिए कुछ दलित बौद्धिकों की सक्रियता ने दलित समाज को अपनी राजनीतिक ताकत का अहसास कराया है। उनके अंदर वोट बैंक से आगे बढ़ कर सत्ता की आकांक्षा पैदा हुई है। उनको लगने लगा है कि उनसे कम आबादी वाली जातियां उनके वोट से सत्ता हासिल कर रही हैं और उनके ऊपर ही जुल्म हो रहे हैं। एक कारण यह है कि जाति की वजह से जो हीनता बोध था वह खत्म हुआ है। सोशल मीडिया ने उसमें भी बड़ी भूमिका निभाई है। दलित समाज के लोग खुल कर जातीय पहचान बताने लगे हैं। उनके अंदर अपनी सामाजिक हैसियत को राजनीतिक पूंजी में बदलने की भावना जोर मारने लगी है। तभी नरेंद्र मोदी से लेकर राहुल गांधी और अखिलेश यादव से लेकर तेजस्वी यादव तक सब दलित राजनीति का राग गाने लगे हैं। राहुल गांधी ‘जय बापू, जय भीम, जय संविधान’ रैली कर रहे हैं। इन सभी नेताओं के हाथ में संविधान की प्रति दिख रही है और उसकी रक्षा करने का संकल्प करके वे दलित जातियों को आकर्षित करने में लगे हैं।

संविधान भारत के समस्त नागरिकों के लिए है, जिसे संविधान सभा ने बनाया था। लेकिन अपने दलित प्रेम में इन नेताओं ने संविधान को दलित द्वारा, दलित के लिए बनाया गया दस्तावेज साबित कर दिया है। दलित जातियों को इन नेताओं की वास्तविक मंशा के बारे में पता है। फिर भी वे खुश हैं कि पार्टियां अब सामान्य सीट से दलित उम्मीदवार उतार रही हैं और वे जीत भी रहे हैं। सपा के अवधेश प्रसाद फैजाबाद सीट से जीते। सुनीता वर्मा मेरठ सीट पर हार गईं, लेकिन उन्होंने रामायण सीरियल के राम अरुण गोविल के पसीने छुड़ा दिए थे। उधर बिहार में राजद ने भी सुपौल की सामान्य लोकसभा सीट पर दलित उम्मीदवार उतारा। पहले ऐसा अपवाद के तौर पर होता था। सो, ऐसा लग रहा है कि आजादी के बाद देश की जो राजनीति सवर्ण केंद्रित थी वह नब्बे के दशक में पिछड़ा केंद्रित हुई और नई सदी के तीसरे दशक में दलित केंद्रित हो गई है। अब देखना है कि पार्टियां कैसे दलित चेहरों को आगे करती हैं और वे राजनीति को कैसे प्रभावित या नियंत्रित करते हैं! ध्यान रही अगड़ी और पिछड़ी जातियों ने राजनीति पर अपना नियंत्रण रखा है। अभी वे अपने फायदे के लिए दलित राजनीति का उभार दिखा रहे हैं। लेकिन इसी में से नेतृत्व भी निकल सकता है।

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