दिल्ली की हवा में दम घुट रहा है। यह बात सिर्फ वायु गुणवत्ता सूचकांक यानी एक्यूआई के आंकड़ों से नहीं समझी जा सकती है। जो लोग इस हवा में सांस ले रहे हैं उनको महसूस हो रहा है कि वे अपने फेफड़े में जहर भर रहे हैं। फिर भी अगर आंकड़ों के लिहाज से ही देखें तो पिछले करीब एक महीने से दिल्ली में एक्यूआई का आंकड़ा बढ़ा हुआ है। दिवाली से कई दिन पहले ही इस साल हवा प्रदूषित हो गई। ऊपर से दिल्ली सरकार की कृपा से इस बार दिवाली में ‘ग्रीन पटाखे’ भी फूटे। सरकार ने तरह तरह के उपाय करके आंकड़े छिपाने या दबावे के प्रयास किए फिर भी एक्यूआई तीन सौ से ऊपर रहा। यानी दिल्ली की हवा ‘बेहद खराब’ से लेकर ‘गंभीर’ श्रेणी में रही। इस पूरी अवधि में सरकार का सारा जोर हवा की गुणवत्ता ठीक करने के उपायों की बजाय यह बताने पर रहा कि इस साल पहले से कम प्रदूषण है और हालात धीरे धीरे सुधर रहे हैं। हालांकि यह सुधार सिर्फ कागजों पर था।
असल में दिल्ली की सरकार हो या पड़ोसी राज्यों की सरकारें या केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट सब इसे बुनियादी रूप से पर्यावरण की समस्या मान कर इसको सुलझाने का प्रयास कर रहे हैं। पर्यावरण की समस्या होने के साथ साथ यह लोक स्वास्थ्य से जुड़ी एक बड़ी समस्या है। यह भी कह सकते हैं कि यह हेल्थ इमरजेंसी जैसे हालात हैं, जिससे निपटने के लिए तत्काल कुछ क्रांतिकारी उपायों की जरुरत है। सरकारों और अदालतों को समझना चाहिए कि यह अनायास नहीं है कि लोग साफ हवा की मांग करते हुए सड़कों पर उतरे हैं। यह किसी सरकार का विरोध नहीं है। यह कोई राजनीतिक प्रतिरोध भी नहीं है। यह जीवन के बुनियादी अधिकार को हासिल करने का आंदोलन है। लोग अपने बच्चों के लिए और अपने घरों के बुजुर्गों की सांस सुरक्षित करने के लिए आंदोलन करने पर मजबूर हुए हैं। इस बात ने उनको नाराज किया है कि वायु प्रदूषण के कारण उनकी आंखों में जलन हो रही है, गले में स्थायी खराश है और सीने में जकड़न बढ़ रही है और दूसरी ओर सरकार कह रही है कि हालात पहले से ठीक हैं और धीरे धीरे सुधार हो रहा है।
पहले से ठीक होने और धीरे धीरे सुधार के दावे को लेकर पहला और बड़ा सवाल तो यह है कि दिल्ली में इतना प्रदूषण कैसे हुआ? यह सवाल इसलिए है कि हर बार पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान के किसानों पर दिल्ली के प्रदूषण का दोष डाल दिया जाता है। हर बार कहा जाता है कि किसान पराली जला रहे हैं इसलिए दिल्ली की हवा दूषित हो रही है। लेकिन इस बार तो पंजाब और हरियाणा में किसानों के पास पराली बची ही नहीं थी जलाने के लिए! पंजाब में तो ऐसी बाढ़ आई कि राज्य के सभी 23 जिले उसमें डूबे। किसानों की लगभग सारी फसल बरबाद हो गई। ऊपर से सरकार की ओर से पराली को लेकर इतनी सख्ती की जा रही है, जिसकी मिसाल नहीं है। किसानों की एमएसपी बंद करने और भारी जुर्माना लगाने के नियम बने हैं, जिससे डर कर किसान पराली नहीं जला रहे हैं या चोरी छिपे कहीं थोड़ी बहुत पराली जलाई गई। इसके बावजूद दिल्ली की हवा पहले की ही तरह प्रदूषित रही।
जाहिर है दिल्ली में हवा के प्रदूषित होने के दूसरे भी कारण हैं और वो कारण ज्यादा प्रभावी हैं। ध्यान रहे किसानों को दोष देना सबसे आसान काम है, जो अब तक किया जा रहा है। परंतु बड़ी ऑटोमोबाइल कंपनियों को या कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को या दूसरे बड़ी फैक्टरियों को दोष देने से सब बचते रहे हैं। एक दूसरी समस्या यह है कि सरकारें इसे मौसमी समस्या मान कर इससे निपटने के उपाय करती हैं। माना जाता है कि प्रदूषण की समस्या नवंबर से जनवरी तक यानी तीन महीने रहेगी और इन तीन महीनों में कुछ न कुछ उपाय करते हुए दिखना है और फिर सर्दियां खत्म होते ही प्रदूषण कम हो जाएगा तो इसे भूल जाएंगे। यह भी माना जाता है कि कभी भी तेज हवा चलने लगेगी या बारिश हो जाएगी तो हवा में मौजूद हानिकारक पार्टिकुलेट मैटर कम हो जाएंगे और हवा साफ हो जाएगी। इसी सोच में कृत्रिम बारिश के तमाशे का भी स्वांग कई दिनों तक चलता रहा था। कई दिनों क्या इस तमाशे की चर्चा कई महीने तक चली। अंत में हुआ कुछ नहीं। जाहिर है बुनियादी समस्या एटीट्यूड और एप्रोच की है। वायु प्रदूषण को पर्यावरण की तात्कालिक समस्या मानने के एटीट्यूड और इससे निपटने के तात्कालिक उपायों की एप्रोच के कारण कोई स्थायी समाधान नहीं निकल पा रहा है।
दुनिया के दूसरे देशों ने ऐसी समस्या का समाधान निकाला है। बीजिंग तो एक दशक पहले इससे गंभीर वायु प्रदूषण की समस्या से जूझ रहा था। लेकिन लोगों के लगातार दबाव के बाद सरकार एक्शन में आई और उसने सफाई के उपाय किए। आज बीजिंग के नागरिक साफ हवा में सांस ले रहे हैं। अगर चीन की मिसाल उपयुक्त न लगे तो उत्तरी मैसिडोनिया की मिसाल ली जा सकती है। वहां तो पिछले साल ही बढ़ते वायु प्रदूषण को लेकर बड़ी संख्या में लोगों ने सड़क पर उतर कर प्रदर्शन किया, जिसके बाद सरकार को हवा की सफाई की ठोस योजना लागू करनी पड़ी। भारत में भी पहली बार लोग साफ हवा के लिए सड़क पर उतरे हैं। इंडिया गेट पर हुए प्रदर्शन को गंभीरता से लेने की जरुरत है। यह किसी कर्मचारी संघ या किसान समूह या मजदूर संघ या किसी भी हित समूह का प्रदर्शन नहीं था, जिसे पीछे से कोई संगठन निर्देशित कर रहा था। यह आम नागरिकों का प्रदर्शन था, जो साफ हवा में सांस लेने के अधिकार के लिए सड़क पर उतरे थे। प्रदर्शन में लोगों का गुस्सा और उनकी निराशा दोनों साफ दिख रहे थे।
केंद्र और दिल्ली सरकार दोनों को आम नागरिकों की इस भावना को समझना चाहिए। अगर सरकारें किसानों को, नागरिकों को या बारिश और हवा को दोष देती रहेंगी तो धीरे धीरे लोगों का गुस्सा बढ़ेगा। समय काटने और अपने आप हवा की गुणवत्ता में सुधार हो जाने पर संतोष कर लेने की एप्रोच भी लोगों को नाराज करेगी। क्योंकि यह सिर्फ तीन महीने की समस्या नहीं है, बल्कि पूरे साल की समस्या है और सिर्फ पर्यावरण की नहीं, बल्कि लोक स्वास्थ्य की भी समस्या है। इसलिए वन व पर्यावऱण मंत्रालय से लेकर स्वास्थ्य मंत्रालय और शहरी विकास से लेकर लोक निर्माण से जुडे तमाम विभागों को एक साथ आकर एक ठोस योजना बनानी होगी, जिससे इस समस्या का स्थायी समाधान निकले।
