congress politics Crisis: मीर तकी मीर का शेर है, ‘पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है, जाने न जाने गुल ही न जाने बाग तो सारा जाने है’। कांग्रेस का भी यही हाल है। उसका हाल सारी दुनिया को पता है। सारे पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक जानते हैं कि उसकी क्या कमी है। विपक्ष की दूसरी पार्टियां, जो उसके गठबंधन में हैं या नहीं हैं उन सबको भी पता है कि कांग्रेस की क्या कमजोरी है और भाजपा के शीर्ष नेता खास कर नरेंद्र मोदी और अमित शाह को तो उसकी हर नस के बारे में पता है। सिर्फ कांग्रेस है, जिसको अपने हाल की कोई खबर नहीं है। कांग्रेस नेतृत्व को अपनी कमजोरियों का पता नहीं है। गांधी परिवार अब भी इस मुगालते में है कि उसे सिर्फ मुख्य विपक्षी पार्टी बने रहना है, बाकी सारी चीजें अपने आप हो जाएंगी। जैसे 1977 में हारे तो 1980 में सत्ता में आ गए या 1989 में हारे तो 1991 में आ गए या 1996 में हारे तो 2004 में आ गए वैसे ही 2014 में हारे हैं तो क्या हो गया अगर मुख्य विपक्षी बने रहते हैं तो फिर अपने आप सत्ता में आ जाएंगे।
कांग्रेस नेता इस बात से भी सबक नहीं ले रहे हैं कि लगातार दो चुनावों में लोकसभा में कांग्रेस को मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा भी नहीं मिला था और एक एक करके वह राज्यों में भी यह दर्जा गंवाती जा रही है। क्या किसी ने सोचा है कि कितने बड़े राज्य हैं, जिनमें देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी भी नहीं है? जिन राज्यों में वह हाल के दिनों तक सत्ता में थी वहां से भी ऐसे उखड़ी है कि अब विपक्ष में भी जगह नहीं है। दिल्ली में लगातार तीन चुनाव जीतने के बाद वह 10 साल से शून्य पर है। आंध्र प्रदेश में दो चुनाव लगातार जीतने के बाद वह 10 साल से शून्य पर है। पश्चिम बंगाल में पिछली विधानसभा में उसके 40 विधायक थे और इस बार वह शून्य पर है। लगभग एक दर्जन राज्यों में उसका एक भी विधायक नहीं है। उसने गुजरात और महाराष्ट्र में मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा गंवा दिया है। 403 विधायकों वाली उत्तर प्रदेश में उसके सिर्फ दो विधायक हैं। ये आंकड़े कांग्रेस के भविष्य की बहुत बुरी तस्वीर पेश कर रहे हैं लेकिन ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस को इसकी या तो खबर नहीं है या परवाह नहीं है।
लोकसभा चुनाव में अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन करने के बाद हरियाणा, जम्मू कश्मीर और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव बुरी तरह से हारने के बाद कांग्रेस की बुनियादी समस्याओं को रेखांकित करने वाले सैकड़ों लेख लिखे गए हैं और हजारों नहीं, बल्कि लाखों सोशल मीडिया पोस्ट्स लिखी गई हैं। कांग्रेस के इकोसिस्टम के लोगों ने कई तरह से समझाया है कि कांग्रेस की असली समस्या क्या है और उसे कैसे दूर किया जा सकता है। पता नहीं कांग्रेस में किसी ने इनकी नोटिस ली या नहीं लेकिन कांग्रेस कार्य समिति की बैठक होने जा रही है। शुक्रवार, 29 नवंबर को कांग्रेस कार्य समिति की बैठक होगी, जिसमें हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजों की समीक्षा होगी। पता नहीं जम्मू कश्मीर के नतीजों की समीक्षा क्यों नहीं होगी, जहां कांग्रेस की सहयोगी नेशनल कॉन्फ्रेंस की सीटें 15 से बढ़ कर 40 हो गईं और कांग्रेस की संख्या 12 से घट कर सात रह गई? कांग्रेस को निश्चित रूप से इसकी भी समीक्षा करनी चाहिए। अगर वह नहीं करती है तो इसका मतलब है कि उसका इरादा ईमानदार समीक्षा करने का नहीं है, बल्कि औपचारिकता निभाने का है।
बहरहाल, हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस की जो समस्याएं उभर कर सामने आई हैं उनमें पहले नंबर पर यह है कि कांग्रेस सहयोगी पार्टियों की चिंता नहीं करती है। वह जरा सी ताकत मिलते ही धौंस दिखाने लगती है और बड़े भाई की भूमिका में आ जाती है। लगातार दो चुनाव हारने के बाद उसने लोकसभा में जरूर समझौता किया और कम सीटों पर लड़ी लेकिन प्रदर्शन सुधरते ही उसने सहयोगियों पर दबाव बनाना शुरू कर दिया। उसने हरियाणा में समाजवादी पार्टी की मांग ठुकराई तो आम आदमी पार्टी को अकेले लड़ने दिया। इसी तरह महाराष्ट्र में जब लोकसभा चुनाव में शिव सेना ज्यादा सीटों पर लड़ी थी और नतीजे महा विकास अघाड़ी के पक्ष में आए थे तो विधानसभा चुनाव में भी क्यों नहीं शिव सेना को ही बड़ी पार्टी के तौर पर लड़ने दिया गया? अगर शिव सेना ज्यादा सीटों पर लड़ती तो उद्धव ठाकरे के सीएम का चेहरा होने का संदेश जाता है और तब शिव सैनिक एकजुट हो सकते थे। अगर कांग्रेस ने आखिरी समय तक ज्यादा सीट की खींचतान में मामला नहीं लटकाए रखा होता तो तस्वीर कुछ और होती।
कांग्रेस की दूसरी कमी यह उभर कर आई है कि वह गंभीरता से चुनाव नहीं लड़ती है। अभी के चुनावों में उसने सिर्फ वायनाड लोकसभा का उपचुनाव गंभीरता से लड़ा और उसका नतीजा यह हुआ कि प्रियंका गांधी वाड्रा ने राहुल गांधी से ज्यादा वोट से चुनाव जीता। वहां वैसे भी कांग्रेस जीत रही थी लेकिन पूरी पार्टी ने जी जान लगा दी। प्रियंका वहां डटी रहीं तो राहुल ने चार दिन सभाएं कीं। सोचें, एक लोकसभा सीट पर राहुल का चार दिन जाना और दूसरी ओर झारखंड में सिर्फ छह सभाएं करना! झारखंड में कांग्रेस जीत गई, लेकिन वह कांग्रेस की जीत नहीं है, बल्कि जेएमएम की लहर की जीत है। हेमंत सोरेन के पक्ष में सहानुभूति की लहर थी और साथ ही भाजपा के ध्रुवीकरण के एजेंडे के खिलाफ एक दूसरा ध्रुवीकरण था, जिसका फायदा कांग्रेस और राजद दोनों को मिला। लेकिन बाकी जगह ऐसा नहीं था तो महाराष्ट्र और हर राज्य के उपचुनाव में कांग्रेस की बुरी दशा हुई। वह न तो महाराष्ट्र में गंभीरता से लड़ी और न झारखंड में और न उपचुनावों में कोई गंभीरता दिखाई दी।
कांग्रेस की तीसरी कमी यह उभर कर आई है कि उसका संगठन बहुत ही कमजोर है और संगठन से जुड़े फैसले तो भयावह ही है, जैसे झारखंड में कांग्रेस ने चुनाव से तीन महीने पहले प्रदेश अध्यक्ष बदला था। यह तो एक मिसाल है लेकिन ओवरऑल कांग्रेस का संगठन बहुत लचर है।
नीचे से ऊपर तक संगठन में इक्का दुक्का लोगों को छोड़ दें तो अयोग्य, निकम्मे या भितरघात करने वाले नेता भरे हैं। कांग्रेस की राजनीतिक पूंजी का लगातार क्षरण होता जा रहा है लेकिन पार्टी के पदाधिकारियों का अहंकार कम नहीं होता है। यह हकीकत है कि जिन्हें जिम्मेदारी मिलती है वे कुछ नहीं करते हैं और जिन्हें जिम्मेदारी नहीं मिलती है वे अपनी ही पार्टी की हार पर खुशी मनाते हैं। कांग्रेस के पास प्रतिबद्ध नेताओं की कमी है। वे पार्टी हित में काम नहीं करते हैं, बल्कि अपना स्वार्थ सबसे ऊपर होता है। प्रभारी या छटंनी समिति के प्रमुख का फोकस इस बात पर नहीं होता है कि जीतने वाला उम्मीदवार चुनें, बल्कि उसे ऐसे उम्मीदवार चुनने होते हैं, जो टिकट के लिए पैसे दे सके। कांग्रेस की सहयोगी पार्टियां भी इससे परेशान रहती हैं।
कांग्रेस की चौथी कमजोरी शीर्ष नेतृत्व की निष्क्रियता है। राहुल गांधी दिन रात राजनीति में नहीं खपे रहते हैं और न कठोर फैसले करते हैं। वे चुनाव के समय सक्रिय होते हैं, जबकि राजनीति 24 घंटे का काम है। कांग्रेस नेताओं के बारे में यह आम धारणा है कि अगर राहुल गांधी सोते जागते राजनीति नहीं करेंगे और सब पर नजर नहीं रखेंगे तो कांग्रेसी सब कुछ बेच खाएंगे। ऐसी स्थिति राहुल गांधी की अनिश्चित व तदर्थ राजनीति की वजह से है। चुनाव नहीं चल रहे हों तो वे संगठन का काम करने की बजाय उसको फुरसत का समय मानते हैं। उनके साथ दूसरी मुश्किल यह है कि उनको चाहने वालों और कांग्रेस के इकोसिस्टम के लोगों ने यह धारणा बनाई है कि कांग्रेस की दुर्दशा के लिए वे जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि उनके सलाहकार और दूसरे नेता जिम्मेदार है।
हकीकत यह है कि कांग्रेस की दुर्दशा की सारी जिम्मेदारी राहुल की है। जब तक वे खुद राजनीति नहीं करेंगे, सब पर नजर नहीं रखेंगे, सारे फैसले खुद नहीं करेंगे या प्रतिबद्ध नेताओं की पहचान कर उनको फैसले की जिम्मेदारी नहीं देंगे, सीधे जमीनी स्तर पर संपर्क नहीं बढ़ाएंगे, तब तक कुछ नहीं हो पाएगा। हो सकता है कि कांग्रेस के सारे नेता मिल कर कार्य समिति की बैठक में यह चर्चा करें कि ईवीएम की वजह से हारे हैं और इसलिए ईवीएम के खिलाफ आंदोलन चलाया जाना चाहिए। परंतु कांग्रेस को यह वास्तविकता समझनी होगी कि उसकी दुर्दशा के अगर एक सौ कारण हैं तो ईवीएम उसमें आखिरी यानी एक सौवां कारण होगा। उसे पहले 99 कारणों को पहचान कर उन्हें ठीक करना होगा और उसके बाद भी अगर स्थिति नहीं सुधरती है तब ईवीएम पर आरोप लगाना चाहिए।