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प्रदूषण आया और समय काट रहे!

प्रदूषण आया और समय काट रहे!

Image Source: ANI

Delhi air pollution: दिल्ली में अक्टूबर का महीना आया नहीं कि हवा प्रदूषित होने लगी। एयर क्वालिटी इंडेक्स यानी एक्यूआई का स्तर बिगड़ने लगा और सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि यह इमरजेंसी जैसी स्थिति है। लेकिन क्या दिल्ली सरकार के पास, केंद्र सरकार के पास और दिल्ली से सटे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र यानी एनसीआर के दायरे में आने वाले राज्यों की सरकारों के पास इससे निपटने का कोई उपाय है?

यह लाख टके का सवाल है, जिसका बहुत स्पष्ट जवाब है कि इन तमाम सरकारों के पास कोई जवाब नहीं है और अगले तीन महीने दिल्ली व एनसीआर के लोग दम घोंटू हवा में सांस लेने को अभिशप्त हैं। इस दौरान थोड़े थोड़े दिनों पर यह खबर आएगी कि हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को फटकार लगाई, हवा की गुणवत्ता के प्रबंधन के लिए बनी संस्था कमीशन फॉर एयर क्वालिटी मैनेजमेंट यानी सीएक्यूएम को फटकार लगाई, प्रदूषण बोर्ड के अधिकारियों को हड़काया और वायु प्रदूषण की समस्या से निपटने के उपाय करने को कहा।

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वायु प्रदूषण की समस्या पर चिंता

इस बीच अखबारों में लेख लिखे जाएंगे और वायु प्रदूषण की समस्या पर चिंता जताई जाएगी। सरकारें आपस में लड़ेंगी और प्रदूषण के लिए एक दूसरे को जिम्मेदार ठहराएंगी। अपने तमाशों के लिए मशहूर दिल्ली सरकार के ‘ग्रीन वॉर रूम’ की तस्वीरें व खबरें अखबारों में छपवाई जाएंगी। पटाखों को लेकर धार्मिक व सांस्कृतिक विमर्श भी होंगे और इस बीच तीन महीने बीत जाएंगे। फिर सब चैन की सांस लेंगे और इस समस्या को अगले साल अक्टूबर से दिसंबर तक के विमर्श के लिए छोड़ दिया जाएगा। (Delhi air pollution) 

सोचें, यह हर साल का चक्र बन गया है। अक्टूबर से दिसंबर के बीच वायु प्रदूषण का मुद्दा चलता है तो मई, जून में हीटवेव, लू और बिजली की कमी का मुद्दा चलता। इसके बाद जुलाई, अगस्त में नालों की सफाई नहीं होने और बारिश से जलजमाव व ट्रैफिक की समस्या का मुद्दा चलता है। ये सारी समस्याएं दो दो या तीन तीन महीने चलती हैं और फिर सब भूल जाते हैं। जनता की याद्दाश्त तो वैसे भी बहुत कमजोर होती है। उसके सामने हर समय अपने जीवन से जुड़ी इतनी तात्कालिक समस्याएं होती हैं कि वह सामूहिक समस्याओं के बारे में ज्यादा सोच ही नहीं सकता है। पार्टियां, सरकारें और संस्थाएं इसका फायदा उठाती हैं।

याद्दाश्त को लेकर गोल्डफिश की मिसाल दी जाती

याद्दाश्त को लेकर गोल्डफिश की मिसाल दी जाती है। गोल्डफिश की याद्दाश्त इतनी छोटी होती है कि उसको एक छोटे से जार में रख दिया जाए तो जार के एक सिरे से दूसरे सिरे पर जाकर जब वह पलटेगी तो फिर पहले सिरे को ऐसे देखेगी, जैसे पहली बार देख रही हो। यही हाल दिल्ली और कमोबेश देश के लोगों का भी है। वे हर साल सर्दियों में वायु प्रदूषण को ऐसे देखते हैं या उस पर ऐसे चर्चा करते हैं, जैसे पहली बार ऐसा हो रहा हो।

सरकारें आम लोगों की इस मानसिकता से परिचित हैं। तभी जब इस साल अक्टूबर का महीना शुरू होने से पहले मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और अदालत ने इमरजेंसी जैसे हालात बताए तो दिल्ली सरकार की ओर से इससे निपटने के जो उपाय बताए गए वह बिल्कुल वही थे, जो पिछले साल सरकार ने अदालत को बताए थे या जिन्हें दिल्ली में लागू किया था। इसमें ग्रैप यानी ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान की कई श्रेणियों के बारे में बताया गया। यानी एक्यूआई अगर खराब है तो क्या क्या चीजें और गतिविधियां बंद करेंगे, अगर गंभीर है तो क्या क्या काम बंद कर देंगे और अगर खतरनाक है तो ग्रैप का आखिरी स्तर लागू होगा, जिसके तहत ज्यादातर गतिविधियां बंद कर दी जाएंगी। (Delhi air pollution) 

ऑड ईवन भी लागू किया जा सकता है

इसमें दिल्ली सरकार की ओर से यह बताया गया कि ऑड ईवन भी लागू किया जा सकता है। यानी एक दिन ऑड नंबर वाली गाड़ियां चलेंगी तो दूसरे दिन ईवन नंबर वाली। कमीशन फॉर एयर क्वालिटी मैनेजमेंट ने कहा कि उसने 10 हजार फैक्टरियां बंद करने को कहा है। इनमें से कितनी बंद हुईं यह किसी को नहीं पता है और अगर बंद नहीं हुईं हैं तो प्रदूषण कैसे कम होगा, यह भी किसी को पता नहीं है।

इस बीच हर साल की तरह इस बात पर भी बहस शुरू हो गई है कि हवा की गुणवत्ता खराब करने में पड़ोसी राज्यों में पराली जलाए जाने का कितना हिस्सा है, फैक्टरियों से निकलने वाले धुएं का कितना हिस्सा है, गाड़ियों के धुएं का कितना हिस्सा है और बायोमास जलाए जाने का हिस्सा कितना है। यह भी आंकड़ा निकाला गया है कि वायु प्रदूषण में दिल्ली का यानी एनसीटी का कितना हिस्सा है और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र यानी एनसीआर का हिस्सा कितना है। लेकिन सवाल है कि इन सारी जानकारियों का आम आदमी क्या करेगा? अगर एनसीआर को छोड़ दें तो दिल्ली महानगर या दिल्ली एनसीटी का वायु प्रदूषण में हिस्सा महज ढाई फीसदी है तब भी क्या इससे दिल्ली के लोगों को राहत मिल जाएगी?

यह बता देने से कि दिल्ली में जो प्रदूषण है उसका स्रोत एनसीआर का इलाका है या पड़ोसी राज्यों, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पराली जलाया जाना है तो क्या दिल्ली के लोगों को राहत मिल जाएगी? इन जानकारियों से वास्तविक स्थिति पर रत्ती भर फर्क नहीं पड़ता है।

इसी तरह दिखावे के लिए ऑड ईवन लागू कर देने और बेवजह लोगों को परेशानी में डालने से भी कुछ हासिल नहीं होता है। निर्माण कार्यों पर रोक लगा देने का उपाय कतई कारगर नहीं है, यह सबको पता है। फिर भी सरकार यही उपाय करेगी। इससे भी साफ होता है कि सरकार को समस्या का समाधान नहीं करना है, बल्कि समाधान का प्रयास करते हुए दिखना है। उसको पता है कि तीन महीने में लोग सब कुछ भूल जाएंगे। इसलिए वह तीन महीने तक तरह तरह के करतब करते हुए दिखेगी। स्मॉग टावर लगाने से लेकर प्रदूषण फैलाने वाली गाड़ियों और फैक्टरियों पर रोक लगाने और बैटरी से चलने वाले ईवी वाहनों को बढ़ावा देने, उन पर सब्सिडी आदि देने की चर्चा होगी और केंद्र व राज्य दोनों की सरकारें इसकी चैंपियन बन कर निकलेंगी। (Delhi air pollution) 

लेकिन अंत में समस्या वहीं खड़ी रहेगी। असल में राजधानी दिल्ली और एनसीआर में वायु प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए इस तरह के दिखावे वाले या तात्कालिक उपाय कारगर नहीं है। इसके लिए दीर्घावधि की बड़ी योजना बनानी होगी, जिसमें बहुत बड़ा खर्च आएगा। इसके लिए कोई भी सरकार तैयार नहीं होगी। यह दिल्ली सरकार या अकेले केंद्र सरकार का मामला है ही नहीं।

जब तक एनसीआर के दायरे में आने वाली सभी सरकारें मिल कर कार्ययोजना नहीं बनाएंगी, तब तक इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। लेकिन किसी की मंशा बहुत दिमाग लगाने, तकलीफ लेने और समस्या का स्थायी समाधान करने की नहीं है। सबको तीन महीने का समय काटना होता है। सब कई किस्म की तदर्थ नीतियों के जरिए समय काट लेते हैं। तभी आजादी के बाद समय के साथ भारत की हर समस्या कई गुना बढ़ती गई है। सुलझी तो शायद कोई भी समस्या नहीं है।

Published by अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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