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बहुकोणीय लड़ाई और लोकतंत्र की चुनौती

india democracyImage Source: ANI

india democracy: भारत में बहुदलीय लोकतांत्रिक प्रणाली अपनाई गई है। तभी इस बात की शिकायत नहीं की जा सकती है कि बहुत सारी पार्टियां हर दिन बन रही हैं और चुनाव लड़ रही हैं।

परंतु इस बात पर नजर रखने की जरुरत है कि बड़ी संख्या में पार्टियों के चुनाव लड़ने से लोकतंत्र के सामने क्या चुनौतियां आ रही हैं। इन चुनौतियों की व्याख्या कई पहलुओं से हो सकती है।(india democracy)

लेकिन एक पहलू सबसे ज्यादा ध्यान खींचने वाला है, जिसके आंकड़े हाल में सामने आए हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव के आंकड़ों का आकलन करने के बाद एक रिपोर्ट सामने आई है,

जिसके मुताबिक लोकसभा के 543 सांसदों में से 178 यानी करीब एक तिहाई सांसद ऐसे हैं, जिनको उस क्षेत्र के कुल मत का महज 30 फीसदी या उससे भी कम वोट मिला।

इससे पहले यानी 2019 के लोकसभा चुनाव में 30 फीसदी या उससे कम वोट लेकर जीतने वाले सांसदों की संख्या 125 थी यानी एक चुनाव के अंतराल पर यह संख्या 50 से ज्यादा बढ़ गई।

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अगर इस आंकड़े को पार्टियों के हिसाब से देखेंगे तो भाजपा के जीते 240 सांसदों में से 57 यानी करीब एक चौथाई ऐसे हैं, जो 30 फीसदी या उससे कम वोट लेकर जीते हैं।(india democracy)

कांग्रेस के 99 सांसदों में 30 फीसदी या उससे कम वोट लेकर जीतने वालों की संख्या 30 यानी एक तिहाई है। सबसे दिलचस्प आंकड़ा समाजवादी पार्टी का है। उसके जीते हुए 37 सांसदों में से 31 यानी पांच में से चार सांसद 30 फीसदी या उससे कम वोट लेकर चुनाव जीत गया।

सपा के 80 फीसदी से ज्यादा सांसद इतने कम वोट लेकर जीते हैं। जाहिर है बहुकोणीय मुकाबले की वजह से ऐसा हुआ। इस रिपोर्ट के मुताबिक आठ जीते हुए सांसद तो ऐसे हैं, जिनको उनके क्षेत्र के कुल वोट के 10 से 20 फीसदी के बीच वोट मिला है।

यानी अगर 20 लाख मतदाता हैं तो जीतने वाले उम्मीदवार को दो से चार लाख के बीच वोट मिले हैं। 170 सांसदों को 20 से 30 फीसदी के बीच वोट मिले हैं।

सबसे बड़ा समूह 266 सांसदों का है, जो 30 से 40 फीसदी के बीच वोट लेकर चुनाव जीते। 92 सांसदों को 40 से 50 फीसदी के बीच वोट मिला और सिर्फ छह सांसद ऐसे हैं, जिनको अपने चुनाव क्षेत्र के कुल मतदाताओं की संख्या के 50 फीसदी से ज्यादा का वोट मिला।

आंकड़ों में कोई कमी नहीं(india democracy)

अब एक और दिलचस्प आंकड़ा यह है कि 178 सांसद, जो 30 फीसदी से कम वोट लेकर जीते हैं उनमें से सबसे ज्यादा 57 उत्तर प्रदेश के हैं।

उसके बाद 30 बिहार के और 24 महाराष्ट्र के हैं। यानी कुल 111 सांसद सिर्फ तीन राज्यों के हैं। अगर कुल पड़े वैध मतों के हिसाब से देखें तो पांच उम्मीदवार ऐसे हैं, जिनको 30 फीसदी से कम वोट मिले हैं।

28 उम्मीदवारों को 30 से 40 फीसदी के बीच वोट मिला है और 232 ऐसे सांसद हैं, जिनको कुल पड़े वैध मत का 40 से 50 फीसदी के बीच वोट मिला है।(india democracy)

इसका मतलब है कि 265 यानी करीब आधे सांसद ऐसे हैं, जो कुल पड़े वैध मत का 50 फीसदी वोट हासिल नहीं कर पाए। पहली नजर में ऐसा लग रहा है कि इन आंकड़ों में कोई कमी नहीं है और इनके आधार पर बहुदलीय लोकतांत्रिक प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता है।

इन आंकड़ों को विस्तार से बताने का इरादा भी यह नहीं है कि बहुदलीय प्रणाली पर सवाल उठाया जाए लेकिन ये आंकड़े गवाही दे रहे हैं कि सुधार की बहुत जरुरत है।

क्योंकि पार्टियों की संख्या बढ़ने और निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या में भी बेहिसाब बढ़ोतरी का नतीजा यह है कि कम से कम वोट लेकर चुनाव जीतने वाले सांसदों की संख्या बढ़ रही है।

फायदा विपक्ष की पार्टियों को(india democracy)

इसके दो नुकसान हैं। एक नुकसान तो यह है कि अच्छी खासी संख्या में लोकप्रिय वोट हासिल करने के बावजूद अनके पार्टियां उसके अनुपात में प्रतिनिधित्व हासिल करने से वंचित रह जा रही हैं

दूसरे सत्तारूढ़ या साधन संपन्न पार्टियां इसका फायदा उठा कर सूक्ष्म प्रबंधन के दम पर वोटों का बंटवारा करा रही हैं और चुनाव जीत रही हैं।
(india democracy)

कई बार इसका फायदा विपक्ष की पार्टियों को भी मिलता है, जैसे उत्तर प्रदेश में इस पार समाजवादी पार्टी को मिला। परंतु उसी तरह की दूसरी प्रादेशिक पार्टी बसपा इस प्रणाली की वजह से बहुत घाटे में रही।

तीन चुनाव के उसके वोट प्रतिशत को देख कर इस बात को समझा जा सकता है। उत्तर प्रदेश में बसपा को 2014 के लोकसभा चुनाव में 19.77 फीसदी वोट मिला था लेकिन उसका एक भी सांसद नहीं जीत सका।

सोचें, बसपा को एक करोड़ 59 लाख से ज्यादा वोट मिला लेकिन एक भी सांसद नहीं जीत सका! इस बात को ऐसे कह सकते हैं कि डेढ़ करोड़ से ज्यादा लोगों को अपना एक भी प्रतिनिधि नहीं मिला।

तीन करोड़ 43 लाख वोट लेकर भाजपा के 71 और महज आठ लाख वोट लेकर उसकी सहयोगी अपना दल के दो सांसद जीते थे।

2019 में बसपा ने सपा से तालमेल कर लिया तो 19.43 फीसदी वोट पर उसके 10 सांसद जीत गए। लेकिन 2024 में वह फिर अकेले लड़ी तो 9.39 फीसदी वोट मिले और कोई सांसद नहीं जीता।

निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या में बढ़ोतरी

इस बार लोकसभा चुनाव में 6,923 निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव लड़े, जबकि पांच साल पहले 3,921 निर्दलीय लड़े थे। यानी पांच साल में निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या में 40 फीसदी की बढ़ोतरी हो गई।

चुनाव आयोग का एक आंकड़ा यह भी है कि 2024 में छह राष्ट्रीय पार्टियों को 63 फीसदी वोट मिले। यानी करीब 37 फीसदी वोट प्रादेशिक पार्टियों या गैर पंजीकृत पार्टियों या निर्दलीय उम्मीदवारों को मिले। इतनी बड़ी संख्या में वोटों के बिखरने का लाभ बड़ी और साधन संपन्न पार्टियों को मिलता है।

सो, इन आंकड़ों से बहुदलीय प्रणाली की तीन कमियां बहुत साफ दिख रही हैं। पहली, किसी राज्य में 20 फीसदी तक वोट हासिल करने वाली पार्टी भी प्रतिनिधित्व हासिल करने में नाकाम रह जाती है।

दूसरी, 50 फीसदी तक सांसद ऐसे जीतते हैं, जो अपने क्षेत्र में वोट डालने वाले मतदाताओं में से आधे का समर्थन नहीं हासिल कर पाते हैं और तीसरी, छोटी पार्टियों व निर्दलीय उम्मीदवारों का फायदा माइक्रो प्रबंधन करने वाली पार्टियां उठाती हैं।

सवाल है कि इसका क्या उपाय है? अगर अमेरिका या दूसरे सभ्य, विकसित और लोकतांत्रिक देशों की तरह 50 फीसदी वोट हासिल करने की अनिवार्यता कर दी गई तो भारत में कभी भी चुनाव ही पूरा नहीं हो पाएगा।

बहुदलीय और बड़ी संख्या में निर्दलीय उम्मीदवार जहां लड़ते हैं वहां ऐसी व्यवस्था संभव नहीं है। परंतु ‘फर्स्ट पास द पोस्ट’ यानी कुल वैध मत में से सबसे ज्यादा वोट हासिल करने वाले के जीतने की मौजूदा व्यवस्था की जगह दुनिया के अनेक देशों में अपनाई गई आनुपातिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था अपनाने के बारे में सोचा जा सकता है।

इसका भी समय आ गया दिख रहा है। आनुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत का मोटे तौर पर मतलब यह है कि जिस पार्टी को जितने प्रतिशत वोट मिला है उतने प्रतिशत सीटें उसको आवंटित कर दी जाएं।

कांग्रेस को 110 सीटें आवंटित(india democracy)

इसका मतलब है कि अगर भाजपा को लोकसभा चुनाव 2024 में करीब 37 फीसदी वोट मिले हैं तो उसे 543 में 37 फीसदी यानी करीब दो सौ सीटें आवंटित हो जाएं।

ऐसे ही 21 फीसदी वोट हासिल करने वाली कांग्रेस को 110 सीटें आवंटित हों। हालांकि ऐसा नहीं है कि यह प्रणाली सबसे अच्छी है। क्योंकि इसे अपनाने पर प्रादेशिक पार्टियों को बड़ा नुकसान हो सकता है।

मिसाल के तौर पर समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश में तो 33.59 फीसदी वोट मिले लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उसको सिर्फ 4.58 फीसदी मिले।

37 सीटें जीत कर वह लोकसभा की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी है लेकिन आनुपातिक प्रतिनिधित्व के हिसाब से अगर उसे 4.58 फीसदी सीटें आवंटित होंगी तो उसकी सीटें घट कर 25 के करीब रह जाएंगी।

लेकिन इसका फायदा यह होगा कि राष्ट्रीय स्तर पर दो फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करने वाली दो पार्टियों, वाईएसआर कांग्रेस और बसपा के भी 11-11 सांसद हो जाएंगे।

बीजू जनता दल, अन्ना डीएमके और बीआरएस जैसी बड़ी पार्टियों का भी खाता खुल जाएगा। चुनाव प्रणाली को तर्कसंगत बनाने का सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि लोकप्रिय वोट की तुलना में सीटें बहुत ज्यादा या बहुत कम होने की विसंगति समाप्त हो जाएगी।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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