social media: दुनिया में और खास कर अमेरिका में तो प्रमाणित है कि सोशल मीडिया के दम पर चुनाव लड़ा और जीता जा सकता है।
इस बार का राष्ट्रपति चुनाव पहला ‘पॉडकास्ट इलेक्शन’ कहा जा रहा है तो आठ साल पहले 2016 के चुनाव को पहला ‘ट्विटर इलेक्शन’ कहा गया था।
दुनिया के दूसरे देशों में भी किसी न किसी तरह से सोशल मीडिया ने लोगों की राजनीतिक सोच और मतदान व्यवहार को प्रभावित किया है।
ब्राजील में जायर बोल्सेनारो की जीत का श्रेय यूट्यूब को दिया गया था। ऐसे लोग चुनाव जीते थे और सत्ता के सर्वोच्च पद पर पहुंचे थे,
जिनकी कोई पहचान नहीं थी और यूट्यूब के पहले वीडियो ने उनको जनता के बीच पहुंचाया, जहां से वे लोकप्रियता और सत्ता के शिखर पर पहुंचे।
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राजनीति के अलावा किस तरह से सोशल मीडिया का इस्तेमाल हो सकता है इसकी एक मिसाल भारत के पड़ोसी देश म्यांमार में देखने को मिली, जहां फेसबुक का इस्तेमाल करके रोहिंग्या मुस्लिमों के खिलाफ लोगों को उकसाया गया।
ब्राजील के घटनाक्रम को लेकर एक अमेरिकी लेखक मैक्स फिशर ने ‘द केओस मशीन’ नाम से एक किताब लिखी।
इसके मुताबिक सोशल मीडिया अव्यवस्था फैलाने वाली मशीन की भूमिका निभा रहे हैं।
सो, कह सकते हैं कि ट्विटर, जिसका नाम अब एक्स हो गया है, फेसबुक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब ऐसे टूल्स हैं, जिनका इस्तेमाल करके राजनीति और समाज व्यवस्था दोनों को व्यापक रूप से प्रभावित किया जा सकता है।
लेकिन क्या भारत में भी ये टूल उसी तरह की भूमिका निभा सकते हैं, जैसी उन्होंने म्यांमार, ब्राजील या अमेरिका में निभाई?
यह लाख टके का सवाल
यह लाख टके का सवाल है क्योंकि तकनीक को अपनाने के बावजूद भारत में अब भी पारंपरिक राजनीति ज्यादा चलती है।
नेता के पॉडकास्ट या यूट्यूब वीडियो से ज्यादा उसकी शारीरिक उपस्थिति लोगों को आकर्षित करती है। वे सीधा इंटरेक्शन चाहते हैं।
तभी नेताओं की रैलियों और रोड शो की इतनी मांग होती है। पार्टियों के प्रचार और उनकी ताकत का आकलन इस आधार पर होता है कि किस नेता ने कितनी रैलियां कीं और उसमें कितनी भीड़ जुटी।
चुनाव नतीजों के बाद भी यह समीक्षा होती है कि किसी नेता ने जहां प्रचार किए वहां कितनी सीटें उसकी पार्टी ने जीती। रैलियों में स्वाभाविक रूप से कितनी भीड़ जुटी, इससे पार्टियों की राजनीतिक ताकत का और उसको मिल रहे समर्थन का आकलन होता है।
किस पार्टी के कितने हेलीकॉप्टर और कितने चार्टर्ड जहाज उड़ रहे हैं इससे भी अंदाजा लगाया जाता है कौन सी पार्टी कितनी गंभीरता से चुनाव लड़ रही है।
कारपेट बॉम्बिंग युद्ध के मैदान से ज्यादा चुनाव मैदान में नेताओं के प्रचार के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
स्टार प्रचारकों की सूची जारी(social media)
भारत में पार्टियां स्टार प्रचारकों की सूची जारी करती हैं। यह प्रयास किया जाता है कि लोकप्रिय नेता ज्यादा से ज्यादा क्षेत्रों में प्रचार करें।
ऐसा नहीं हो सकता है कि योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में कह दिया कि ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ और देश के लोगों तक सोशल मीडिया के जरिए यह बात पहुंची गई तो इसका पूरा असर होगा।
देश के सभी राज्यों के लोग चाहेंगे कि योगी आदित्यनाथ उनके यहां आकर भी यह बात कहें।(social media)
सो, संदेश पहुंचाने के तमाम आधुनिक माध्यमों के होते हुए भी भारत के लोग चाहते हैं कि उनको किसी माध्यम से नहीं, बल्कि सीधा संदेश मिले।
तभी अपना संदेश पहुंचाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पूरे देश में घूमना होता है।
भारत में सबसे ज्यादा फेसबुक यूजर्स
इसलिए भले भारत में सबसे ज्यादा फेसबुक यूजर्स हैं लेकिन कोई नेता सिर्फ उसके जरिए प्रचार नहीं कर सकता है। उसे जनता के बीच सीधे जाना होगा।
हां, यह जरूर है कि धीमे धीमे पकने वाला नैरेटिव सोशल मीडिया के जरिए चलाया जा सकता है, जो चल भी रहा है।(social media)
परंतु सोशल मीडिया के टूल्स चुनावी राजनीति को बहुत प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। इसका एक कारण तो यह है कि भारत में राजनीतिक कंटेंट बहुत ज्यादा तैयार नहीं हो रहा है।
अमेरिका या दूसरे विकसित देशों के मुकाबले भारत में राजनीतिक और सामाजिक कंटेंट कम है। इसकी बजाय भारत में सस्ते मनोरंजन के कंटेंट ज्यादा बनते हैं।
टिकटॉक पर जिस तरह के वीडियो डाले जाते थे, यूट्यूब भी उसी तरह से वीडियो का माध्यम बन गया है। सो, भारत में ज्यादातर लोग मनोरंजन के लिए यूट्यूब या फेसबुक देखते हैं या फिर अश्लील कंटेंट देखते हैं।
उनको एक एक मिनट की रील्स या शॉट्स देखने होते हैं। ट्विटर अब भी मोटे तौर पर अंग्रेजी जानने वाले लोगों का माध्यम बना हुआ है, जिसकी पहुंच सीमित है। हां, उस प्लेटफॉर्म पर राजनीतिक कंटेंट अपेक्षाकृत थोड़ा ज्यादा है।
भारत होमोजेनस समूह वाला देश नहीं
दूसरा कारण यह है कि अमेरिका, ब्रिटेन या यूरोप की तरह भारत एक होमोजेनस समूह वाला देश नहीं है।(social media)
यहां धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र और समस्याओं की इतनी विविधता है कि यहां कोई एक नैरेटिव पूरे देश को प्रभावित नहीं कर सकता है।
इसलिए अगर सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके कोई पार्टी या नेता या कोई इन्फ्लुएंसर कोई नैरेटिव खड़ा करता है तो तुरंत उसका काउंटर नैरेटिव आ जाता है और दोनों को मानने वालों की बड़ी संख्या होती है।
सो, तुरंत ही दोनों नैरेटिव न्यूट्रालाइज हो जाते हैं। सब पर असर डालने वाला और लंबे समय तक चलने वाला नैरेटिव भारत में बन नहीं पाता है।
तीसरा कारण यह है कि सोशल मीडिया के नैरेटिव से अलग वास्तविक जीवन की अपनी समस्याएं हैं, जिनसे हर नागरिक को जूझना होता है।
अमेरिका का अगला चुनाव AI
तभी जनता उम्मीद करती है कि नेता हवा हवाई नहीं, बल्कि जमीन पर उतर कर उसकी समस्या को देखे और उसके समाधान का वादा करे।(social media)
इसलिए जिस ट्विटर का इस्तेमाल करके अमेरिका में ट्रंप 2016 में चुनाव जीते थे वह नौ साल बाद भी भारत में बहुत प्रभावी टूल नहीं बन पाया है।
हालांकि उसे खरीद कर उसका नाम एक्स करने के बाद इलॉन मस्क उसके दम पर ब्राजील से लेकर जर्मनी और कनाडा से लेकर ब्रिटेन तक की चुनावी राजनीति को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं।
बहरहाल, कहा जा रहा है कि अमेरिका का अगला चुनाव आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस यानी एआई का इलेक्शन होगा।
भारत में भी चुनाव प्रचार के लिए एआई का इस्तेमाल शुरू हो गया है। लेकिन वह इतना भोंडा और भदेस है कि उसे देख कर हंसी आती है।
एआई का बारीक इस्तेमाल ही राजनीतिक और चुनाव लाभ पहुंचा सकता है, जिसकी भारत में कमी है।
पॉडकास्ट प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल(social media)
जैसे सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म पर गुणवत्तापूर्ण राजनीतिक कंटेंट बनाने वालों की कमी है वैसे ही एआई का भी गुणवत्तापूर्ण इस्तेमाल अभी तुरंत होता नहीं दिख रहा है।
इतना जरूर है कि अमेरिका में जो रोगन के पॉडकास्ट की लोकप्रियता और पॉडकास्ट के जरिए ट्रंप की जीत के प्रचार से प्रभावित होकर भारत के नेता भी पॉडकास्ट प्लेटफॉर्म पर जाने लगे हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहला पॉडकास्ट इंटरव्यू निखिल कामथ के प्लेटफॉर्म पर दिया है। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी उन नेताओं में हैं, जिन्होंने काफी पहले से पॉडकास्ट प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल शुरू कर दिया था।
सो, देर से ही सही लेकिन भारत में भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स और पॉडकास्ट का राजनीति उपयोग शुरू हुआ है। इसकी ताकत कितनी बनती है वह आने वाला समय बताएगा।