आज यानी चार जून को लोकसभा चुनाव के नतीजे आएंगे। नतीजे क्या आएंगे इसका मोटे तौर पर अंदाजा एक्जिट पोल के अनुमानों से हो गया है। इसलिए उसे लेकर ज्यादा सस्पेंस बचा नहीं है। परंतु यह तय है कि चुनाव के बाद नतीजों को लेकर जितनी समीक्षा होगी, इतिहास उतनी ही समीक्षा चुनाव प्रचार अभियान की भी करेगा। यह अब तक का सबसे लंबा चुनाव प्रचार अभियान था और यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि लोकतांत्रिक मर्यादा के स्थापित पैमानों पर सबसे खराब प्रचार अभियान था।
राजनीतिक दलों के नेताओं ने एक दूसरे पर जिस तरह के निजी हमले किए वह अभूतपूर्व था। मतदाताओं का ध्रुवीकरण कराने के लिए जिस किस्म के मुद्दे उठाए गए और उनके ईर्द गिर्द जैसा नैरेटिव गढ़ा गया उसकी मिसाल इससे पहले हुए 17 लोकसभा चुनावों में नहीं मिलेगी। जनता के साथ संवाद की जो भाषा, शैली और मुद्दे रहे उनमें भी गरिमा नहीं थी। चुनावी लाभ के लिए क्षेत्रीय विभाजन कराने वाली बातें भी हुईं। और इन सबके बीच चुनाव आयोग की भूमिका सवालों के घेरे में रही।
यह आजाद भारत का संभलतः पहला चुनाव था, जिसमें पक्ष और विपक्ष दोनों एक दूसरे का भय दिखा कर चुनाव लड़ रहे थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके साथ साथ पूरी भारतीय जनता पार्टी यह प्रचार करते हुए थी कि अगर कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन की सरकार बन गई तो वे देश के लोगों की संपत्ति छीन कर मुसलमानों को दे देंगे। कई नेताओं ने सीधे मुसलमान कहा तो कई नेताओं ने ‘घुसपैठिए’, ‘ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले’, ‘वोट जिहाद करने वाले’ आदि रूपकों का इस्तेमाल किया। यह भी कहा गया कि अगर कांग्रेस आ गई तो वह एससी, एसटी और ओबीसी का आरक्षण छीन कर मुसलमानों को दे देगी। कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों को अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने वाली पार्टी बताते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि विपक्ष उनके लिए ‘मुजरा’ भी कर सकता है और उनकी ‘गुलामी’ भी कर सकता है।
विपक्ष के युवा नेताओं को ‘शहजादे’ का विशेषण दिया गया और कहा गया कि उनकी जीत के लिए पाकिस्तान में दुआ मांगी जा रही है। ये सारी बातें अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को दुश्मन मान कर उसे अपमानित करने वाली थीं तो साथ ही सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण कराने वाली भी थीं। प्रधानमंत्री ने विपक्षी नेताओं की सात पीढ़ियों के पाप खोल कर रख देने की बात कही तो विपक्षी नेताओं के जेल जाने का भी दावा किया। देश के दो सबसे बड़े उद्योगपतियों, अंबानी और अडानी की ओर से बोरा भर कर काला धन कांग्रेस को मिलने की बात भी प्रधानमंत्री ने कही।
ऐसा नहीं है कि दूसरी ओर विपक्ष कोई सकारात्मक प्रचार कर रहा था। विपक्ष की ओर से भी मतदाताओं को काल्पनिक भय दिखाया जा रहा था। सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात तो यह है कि लगातार 10 साल पूर्ण बहुमत की सरकार चलाने के बाद नरेंद्र मोदी ने जो काम नहीं किया उसका भय दिखाया जा रहा था। राहुल गांधी संविधान की किताब हाथ में लेकर मंचों पर जाते थे और अपनी गुस्से वाली भंगिमा के साथ लोगों के बताते थे कि ‘इस बार भाजपा चुनाव जीत गई तो वह संविधान की किताब को फाड़ कर कचरे के डब्बे में फेंक देगी’। राहुल गांधी और दूसरे विपक्षी नेता दावा करते थे कि भाजपा चुनाव जीत गई तो वह आरक्षण खत्म कर देगी।
पांच दशक से ज्यादा समय तक सक्रिय राजनीति में रहे कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे यह भय दिखा रहे थे कि यह आखिरी चुनाव है और अगर भाजपा जीती तो देश में चुनाव नहीं होंगे। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अंतरिम जमानत लेकर जेल से बाहर आए आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने मन से प्रधानमंत्री मोदी का उत्तराधिकारी खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा कि मोदी अपने लिए नहीं, बल्कि अमित शाह को प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट मांग रहे हैं। उन्होंने यह दावा भी किया कि अगर भाजपा जीती तो बहुत जल्दी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को उनके पद से हटा दिया जाएगा।
सबसे ज्यादा चिंताजनक प्रवृत्ति उत्तर और दक्षिण या क्षेत्रीय, भाषाई और सांस्कृतिक विभाजन को बढ़ाने वाली दिखी। सभी पार्टियों ने अपने अपने फायदे के लिए इसका इस्तेमाल किया। दक्षिण भारत का मतदान समाप्त होने के बाद उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि दक्षिण भारत में उत्तर भारतीयों का अपमान होता है। उन्होंने तमिलनाडु में हुए सनातन विरोध का भी मुद्दा उठाया। ओडिशा में उन्होंने मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के करीबी सहयोगी वीके पांडियन पर हमला करने के लिए उनकी तमिल पहचान को मुद्दा बनाया। उन्होंने यहां तक कहा कि भगवान जगन्नाथ के रत्न भंडार की चाबी दक्षिण भारत चली गई है।
इसका तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने तीखा प्रतिवाद किया। विपक्षी पार्टियों ने भी अस्मिता की राजनीति का दांव आजमाया। बिहार में प्रधानमंत्री मोदी ने तेजस्वी यादव की गिरफ्तारी की बात कही तो तेजस्वी ने जवाब देते हुए कहा कि गुजराती से बिहारी नहीं डरता है। यहां गुजराती और बिहारी का नैरेटिव बनाने की कोई जरुरत नहीं थी। ऐसे ही पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने नरेंद्र मोदी की गुजराती पहचान और शाकाहार की संस्कृति को निशाना बनाया। उन्होंने कहा कि वे तो प्रधानमंत्री मोदी के लिए खाना बनाने को तैयार हैं लेकिन वे उनके यहां बना खाना नहीं खाएंगे। वैसे प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी ने पहले तेजस्वी यादव और मुकेश सहनी के मछली खाने का मुद्दा बनाया था।
मुफ्त की रेवड़ी बांटने या उसकी घोषणा करने की जैसी होड़ इस बार दिखी उसकी भी मिसाल नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले साल दिसंबर में छत्तीसगढ़ के चुनाव प्रचार के दौरान ही ऐलान कर दिया था कि पांच किलो मुफ्त अनाज अगले पांच साल यानी 2029 तक मिलता रहेगा तो उसका जवाब देने के लिए चुनाव प्रचार के बीच में कांग्रेस ने ऐलान किया कि उसकी सरकार आई तो वह 10 किलो मुफ्त अनाज देगी। आर्थिक विषमता मिटाने के नाम पर गरीब महिलाओं को हर साल एक लाख रुपए और 21 से 25 साल के डिग्री या डिप्लोमाधारी बेरोजगार युवाओं को भी एक लाख रुपया हर साल देने की घोषणा कांग्रेस ने की।
किसी ने यह नहीं सोचा कि अगर 30 करोड़ महिलाओं और युवाओं को भी एक लाख रुपया सालाना देंगे तो 30 लाख करोड़ रुपए कहां से आएंगे! सोचें, भारत सरकार का कुल बजट 40 लाख करोड़ रुपए का होता है। चुनाव प्रचार में विज्ञापनों की जो क्वालिटी रही उसका भी क्या कहा जाए? पश्चिम बंगाल में भाजपा का एक विज्ञापन हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने रूकवाया और सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि आपका प्रतिद्वंद्वी आपका शत्रु नहीं है। कर्नाटक में भाजपा का एक विज्ञापन चुनाव आयोग ने वापस कराया। चुनाव को प्रभावित करने के लिए लाए जा रहे मादक पदार्थ, शराब और नकदी जब्त हुई है वह भी एक रिकॉर्ड और चुनाव की कम होती पवित्रता का संकेत है।