लोकसभा चुनाव, 2024 के नतीजे आने के बाद से जिस एक पद को लेकर सबसे ज्यादा चर्चा हुई है वह स्पीकर का पद है। पहले दिन से कहा जाने लगा कि भाजपा को अकेले पूर्ण बहुमत नहीं मिला है इसलिए सहयोगी पार्टियां उस पर दबाव बनाएंगी और स्पीकर का पद मांगेंगी। कई दिन तक सुर्खियां छपती और दिखती रहीं कि चंद्रबाबू नायडू ने स्पीकर का पद मांगा है। मंत्री पद की संख्या या मंत्रालयों से ज्यादा स्पीकर की चिंता होती दिखी। अब भी कहा जा रहा है कि नायडू अपनी पार्टी का स्पीकर चाहते हैं या कम से कम यह चाहते हैं कि भाजपा की बजाय एनडीए का स्पीकर हो।
भाजपा की सहयोगी पार्टियों के हवाले से ही ऐसी खबर नहीं आ रही है, बल्कि कांग्रेस और लेफ्ट का पूरा इकोसिस्टम भी इस प्रचार में लगा है कि अगर लोकसभा का स्पीकर भाजपा का बना तो नायडू और नीतीश की पार्टी नहीं बचेगी। हर कथित समझदार व्यक्ति, जो किसी भी स्तर पर भाजपा का विरोध करता है वह कह रहा है और निश्चित रूप से मान भी रहा है कि नायडू और नीतीश में से किसी की पार्टी का स्पीकर नहीं बना तो उनकी पार्टी टूटेगी। वह अभी से यह भविष्यवाणी कर रहा है कि अमित शाह उनकी पार्टी नहीं छोड़ेंगे। दूसरी कई पार्टियों पर भी खतरा बताया जा रहा है।
ऐसे में सवाल है कि अगर स्पीकर इन पार्टियों का हो जाए तो क्या इनकी पार्टी बच जाने की गारंटी हो जाएगी? राजनीति की मामूली समझ रखने वाला व्यक्ति भी कह सकता है, स्पीकर अपना होने भर से पार्टी के बच जाने की कोई गारंटी नहीं होती है। पार्टियां स्पीकर के दम पर बचती या टूटती नहीं हैं, बल्कि नेता उसे बचाते, बनाते या तोड़ते हैं। पार्टियों को मतदाता बचाते हैं। मतदाता तय करते हैं कि कौन असली और कौन नकली पार्टी है। महाराष्ट्र इसका जीता जागता उदाहरण है।
जब शिव सेना और एनसीपी में टूट हुई तो महाराष्ट्र विधानसभा में स्पीकर नहीं था। बाद में भाजपा के राहुल नार्वेकर स्पीकर बने और उन्होंने चुनाव आयोग के पीछे पीछे एकनाथ शिंदे को असली शिव सेना और अजित पवार को असली एनसीपी का नेता घोषित किया। लेकिन अंत में क्या हुआ? इस फैसले के एक साल नहीं हुए और उद्धव ठाकरे और शरद पवार ने अपनी पार्टी बचा ली और मतदाताओं ने बता दिया कि असली शिव सेना और असली एनसीपी कौन है।
इसी तरह तीन साल पहले चिराग पासवान की पार्टी टूटी थी। उनके पिता की बनाई पार्टी के छह सांसद थे। लेकिन एक दिन अचानक नीतीश कुमार की शह पर पांच सांसद पशुपति पारस के साथ चले गए और लोकसभा में स्पीकर ने उन्हें तुरंत अलग गुट की मान्यता दे दी और नरेंद्र मोदी ने पारस को अपनी सरकार में मंत्री भी बना लिया। लेकिन तीन साल के अंदर बिहार के मतदाताओं ने बता दिया कि रामविलास पासवान के असली वारिस पशुपति पारस नहीं, बल्कि चिराग पासवान हैं। पशुपति पारस और उनके साथ गए चार में से सिर्फ एक व्यक्ति सांसद बन कर वापस लौट पाया है और वह भी चिराग पासवान की कृपा से। चिराग के पांच सांसद जीते हैं और वे केंद्र में मंत्री बन गए हैं।
स्पीकर कैसे पार्टी नहीं बचा पाते हैं इसकी मिसाल कर्नाटक और मध्य प्रदेश है। मई 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में कर्नाटक में कांग्रेस हार गई थी। लेकिन चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस ने जेडीएस के साथ मिल कर सरकार बनाई। तब कांग्रेस पार्टी के केआर रमेश स्पीकर चुने गए। लेकिन जब अगस्त 2019 में कांग्रेस टूटी और उसके विधायकों ने इस्तीफा दिया तो क्या स्पीकर ने पार्टी को बचा लिया? कांग्रेस का स्पीकर रहते भी पार्टी टूट गई और बीएस येदियुरप्पा के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बन गई। इसी तरह 2018 के अंत में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने अपने वरिष्ठ नेता एनपी प्रजापति को विधानसभा का स्पीकर बनाया।
लेकिन अप्रैल 2020 में जब पार्टी टूटी और कांग्रेस के विधायकों ने इस्तीफा दिया तो क्या स्पीकर ने पार्टी बचा ली? दोनों जगह कांग्रेस की सरकार गिर गई और भाजपा की सरकार बनी। उसी समय राजस्थान में भी प्रयास हुआ था लेकिन तब भी स्पीकर ने कांग्रेस को नहीं बचा लिया था। तब सचिन पायलट पर्याप्त संख्या नहीं जुटा सके थे, विधानसभा का गणित दूसरे राज्यों से अलग था और तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बेहतर प्रबंधन किया। इस तरह की और भी कई मिसालें हैं।
बहस के लिए कह सकते हैं कि हिमाचल प्रदेश में स्पीकर ने कांग्रेस की सरकार बचा ली। यह ठीक है कि कांग्रेस की सरकार बच गई क्योंकि स्पीकर ने कांग्रेस के छह विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया और तीन निर्दलीय विधायकों के इस्तीफे को महीनों तक लटकाए रखा। लेकिन जैसी कि चर्चा थी, अगर विक्रमादित्य सिंह भी अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस छोड़ते या दो तीन और विधायक बागी हो जाते तो स्पीकर क्या कर लेते? यहां दूसरा सवाल नैतिकता का भी है। हिमाचल में कांग्रेस के स्पीकर ने फैसला लटकाए रखा तो उसे रणनीति माना गया लेकिन दूसरे राज्यों में भाजपा का स्पीकर फैसला लटकाए रखता है तो वह धतकरम माना जाता है!
बहरहाल, नीतीश कुमार की पार्टी के राज्यसभा सांसद हरिवंश नारायण सिंह राज्यसभा के उपसभापति हैं। तो इससे क्या फर्क पड़ गया? उनके आसन पर रहते सरकार ने कई ऐसे फैसले किए, जिनका विरोध नीतीश कुमार की पार्टी कर रही थी। कुछ समय के लिए तो नीतीश की पार्टी ने भाजपा से तालमेल तोड़ लिया था और उसकी धुर विरोधी राजद व कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार बना ली थी फिर भी उच्च सदन के उप सभापति ने इस्तीफा नहीं दिया था। ऐसे ही नीतीश कुमार की पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते आरसीपी सिंह ने उनके निर्देश का उल्लंघन किया और उनके मना करने के बावजूद केंद्र की सरकार में मंत्री बन गए। वे नीतीश से ज्यादा भाजपा के प्रति निष्ठावान बन रहे। यह अलग बात है कि आज वे राजनीतिक बियाबान में भटक रहे है और नीतीश के सहारे से केंद्र में भाजपा की नई सरकार बनी है।
इसका मतलब यह है कि स्पीकर हों या किसी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष, वे मंगल ग्रह से नहीं आते हैं और न वे लोभ व भय से मुक्त होते हैं। तभी अगर नायडू या नीतीश की पार्टी का स्पीकर बन भी जाए तो इस बात की कोई गारंटी नहीं होगी की पार्टी टूटेगी नहीं। अगर महान राजनीतिक जानकारों को ऐसा लग रहा है कि भाजपा पार्टी तोड़ेगी और नीतीश, नायडू को सावधान हो जाना चाहिए तो उनको यह भी समझना चाहिए कि अगर भाजपा पार्टी तोड़ना चाहेगी और उन दोनों की पार्टियों के सांसद टूटना चाहेंगे तो स्पीकर उनको नहीं रोक लेंगे या कोई भी सावधानी काम नहीं आएगी। उनको यह भी समझना चाहिए कि स्पीकर भी उन्हीं के बीच के होंगे और वे खुद भी निष्ठा बदल सकते हैं, जैसा कि ऊपर के दो उदाहरणों में दिखता है।
सो, इस बात की गांठ बांधें की स्पीकर या अदालतें पार्टियों को नहीं बचाती हैं। नेताओं की ईमानदारी, निष्ठा और उनकी मेहनत पार्टियों को बचाती है। मतदाताओं का समर्थन पार्टियों को बचाता है। कितनी ही बार मायावती की पार्टी टूटी लेकिन हर बार वे ज्यादा मजबूत होकर निकलीं और ऐसा नेताओं की वैचारिक प्रतिबद्धता व मतदाताओं के समर्थन से संभव हुआ। इसलिए अगर नीतीश कुमार या चंद्रबाबू नायडू की पार्टी पर खतरा है तो वह स्पीकर बना देने के बाद भी बना रहेगा। अगर दोनों की पार्टी टूटनी है तो स्पीकर बना दिया जाए तब भी टूटेगी।