ऐसा लग रहा है जैसे समय का चक्र वापस घूमने लगा है। संपूर्ण और कठोर अनुशासन वाली भाजपा 10 साल पहले के दौर में लौट रही है। हालांकि तब भी यह दो या तीन नेताओं के नियंत्रण वाली ही पार्टी थी लेकिन तब पंचायत बहुत थी। बात बात में नेता नाराज हो जाते थे और बगावत कर देते थे। आधा दर्जन तो पूर्व मुख्यमंत्री ही बागी हुए थे और अलग पार्टी बनाई थी। लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह के हाथ में भाजपा की राष्ट्रीय राजनीति की कमान आने के बाद सारी पंचायत बंद हो गई थी। नेताओं के बागी होने की बात तो छोड़ दीजिए, उनका नाराज होना भी इतिहास हो गया था। कोई नेता नाराज नहीं होता था। पार्टी आलाकमान जो फैसला करता था उसे वह सिर झुका कर स्वीकार करता था। भाजपा की छोड़िए मजाक में ही सही यहां तक कहा जाता था कि ज्यादातर विपक्षी नेता भी भाजपा आलाकमान की बात सिर झुका कर स्वीकार करते हैं। केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई की तलवार सबके सिर पर लटक रही थी।
लेकिन अचानक सब कुछ बदल गया है। विपक्षी नेताओं के हौसले इतने बढ़ गए हैं कि वे कहने लगे हैं कि सरकार भले नरेंद्र मोदी की है लेकिन सिस्टम उनका काम कर रहा है। वे कह रहे हैं कि सरकार उनके हिसाब से फैसले कर रही है। सरकार भी फैसलों से पीछे हटने लगी है या विपक्ष की मांग का ‘सम्मान’ करते हुए उसे संसदीय समिति में भेजने लगी है। अदालतें बुलडोजर न्याय से लेकर जमानत के नियमों तक पर ज्ञान देने लगी हैं। मीडिया में सरकार के खिलाफ खबरें चलने लगी हैं बताया जाने लगा है कि 19 सौ करोड़ रुपए की लागत से बनी सड़क पर टोल टैक्स के तौर पर 83 सौ करोड़ रुपए वसूले जा चुके हैं और अब तक टोल टैक्स वसूला जा रहा है। भाजपा की सहयोगी पार्टियां नीतिगत मसलों पर सरकार को आंख दिखाने लगी हैं। इतना ही नहीं भाजपा के अंदर भी बगावत शुरू हो गई है। जम्मू कश्मीर और हरियाणा में टिकट बंटवारे को लेकर जिस तरह की बगावत हुई और पार्टी के विधायकों, मंत्रियों और अन्य पदाधिकारियों ने दूसरी पार्टी में जाकर या निर्दलीय लड़ने का ऐलान किया वह भाजपा नेतृत्व के इकबाल पर बड़ा सवाल है।
सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ? क्या लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटें कम होने और उसके बहुमत से नीचे आने की वजह से ही ऐसा हुआ है या कुछ और कारण हैं? निश्चित रूप से लोकसभा चुनाव के नतीजे निर्णायक हैं। नरेंद्र मोदी अपने जीवन में पहली बार गठबंधन की सरकार चलाने को मजबूर हुए हैं। 2001 में गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद पहली बार ऐसा हुआ है कि उनके नेतृत्व में भाजपा बहुमत नहीं हासिल कर सकी है। इसका मनोवैज्ञानिक असर उन पर भी हुआ है और साथ ही विपक्षी पार्टियों, संवैधानिक संस्थाओं और भाजपा नेताओं पर भी हुआ है। केंद्र की सरकार अब एनडीए सरकार कही जा रही है, जो नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यू और चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी सहित एक दर्जन से ज्यादा पार्टियों के समर्थन पर टिकी है। यह सही है कि भाजपा बहुमत से सिर्फ 32 सीट ही पीछे है और संख्या जुटाना उसके लिए मुश्किल नहीं है। सहयोगियों के साथ वह 293 सीट पर है यानी बहुमत से 21 ज्यादा। इसका मतलब है कि कुछ पार्टियां छोड़ भी दें तब भी बहुमत पर असर नहीं होगा। फिर भी मनोवैज्ञानिक कारणों से भाजपा और उसका नेतृत्व बैकफुट पर है। परंतु इस कारण के अलावा भी कुछ कारण हैं, जिनसे पार्टियों, नेताओं और संवैधानिक संस्थाओं के हौसले बढ़े हैं।
इनमें एक कारण कांग्रेस का पुनर्जीवन है। अगर सिर्फ प्रादेशिक पार्टियों की वजह से भाजपा की ताकत कम होती तो इतना ज्यादा असर नहीं होता। परंतु दो बार से बुरी तरह चुनाव हार रही कांग्रेस को इस बार लोकसभा चुनाव में पुनर्जीवन मिला है। दो बार मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा हासिल करने में नाकाम रही कांग्रेस पार्टी को इस बार 99 सीटें मिल गईं। वह जो गठबंधन बना कर लड़ी थी उसको 204 सीटें मिलीं। यह भारतीय राजनीति का टर्निंग प्वाइंट बना। पिछले 10 साल तक दलबदल एकतरफा हो रहा था। कांग्रेस सहित सभी पार्टियों से लोग निकल कर भाजपा में जा रहे थे। अब उलटी गंगा बहने लगी है तो इसका कारण यह है कि कांग्रेस का विकल्प लोगों को मिल गया है। राजनीतिक विकल्प के तौर पर कांग्रेस का मजबूत होना बहुत अहम साबित हुआ है। भाजपा की राजनीति का विरोध करने वाले भी बेबसी से कहते थे कि कहां जाएं, विपक्ष बहुत कमजोर है या कोई विकल्प नहीं है। अब विपक्ष मजबूत है और विकल्प भी है। तभी कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों से पलायन रूका है और लोग भाजपा छोड़ कर कांग्रेस में शामिल होने लगे हैं।
दूसरा कारण केंद्रीय एजेंसियों के अत्यधिक इस्तेमाल से उनका भय समाप्त होना है। इसमें सबसे बड़ी भूमिका दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने निभाई है। उन्होंने यह धारणा बनवा दी है कि केंद्रीय एजेंसियां राजनीतिक टूल बन गई हैं और सिर्फ भाजपा विरोधी पार्टियों के नेताओं पर कार्रवाई कर रही हैं। आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं लेकिन राजनीतिक स्तर पर यह धारणा बनवाने में केजरीवाल का सबसे बड़ा योगदान है। उन्होंने विपक्षी पार्टियों को रास्ता दिखा दिया कि वे ईडी और सीबीआई द्वारा गिरफ्तार किए जाने के बाद भी जेल में रह कर मुख्यमंत्री बने रह सकते हैं। केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई से दो तरह से भय नेताओं में थे। पहला बदनामी का और दूसरे सत्ता छिन जाने का। केजरीवाल ने दोनों भय खत्म कर दिए हैं। अब बदनामी नहीं होती है, बल्कि सहानुभूति होती है और आम आदमी भी इस पर यकीन करता है कि जान बूझकर विपक्षी नेताओं को परेशान किया जा रहा है। इसके साथ ही सत्ता छीनने का भय भी समाप्त हो गया क्योंकि जेल में रह कर भी आप मंत्री या मुख्यमंत्री बने रह सकते हैं और वहीं से सरकार का कामकाज चला सकते हैं। जब तक इसे रोकने का कानून नहीं बनता है तब तक किसी भी नेता को इसकी चिंता करने की जरुरत नहीं है।
अगर जम्मू कश्मीर और हरियाणा के खास संदर्भ में बात करें तो इन दोनों राज्यों में भाजपा में इतनी बगावत का कारण राजनीतिक संभावना और विकल्प की उपलब्धता है। दोनों राज्यों में भाजपा की चुनावी संभावनाओं के बारे में धारणा अच्छी नहीं है। माना जा रहा है कि वह दोनों राज्यों में पिछड़ रही है। दूसरा कारण है कि दोनों राज्यों में विपक्ष खास कर कांग्रेस के अच्छा प्रदर्शन करने की धारणा है। सो, बागी नेताओं के सामने कांग्रेस में चले जाने का एक अच्छा विकल्प उपलब्ध हैं। उनको लग रहा है कि कांग्रेस से टिकट मिल गई तो ठीक है अन्यथा सरकार बनने के बाद कुछ न कुछ अच्छी व्यवस्था हो जाएगी। जहां तक जम्मू कश्मीर की बात है तो वहां राजनीतिक विकल्प भी हैं और इंजीनियर राशिद के निर्दलीय लोकसभा का चुनाव जीत जाने के बाद निर्दलीय चुनाव लड़ने का भी अच्छा विकल्प है। चुनावी राज्यों में बेहतर विकल्प मिलने से भाजपा नेताओं के लिए बागी होना आसान हो गया है।