इतिहास के अंत की घोषणा की तरह क्या जन आंदोलनों के अंत की भी घोषणा की जा सकती है? कई लोग मानेंगे कि ऐसा कहना जल्दबाजी है या आधा अधूरा है। कई लोग किसान आंदोलन के कारण तीन विवादित कृषि कानूनों के वापस लिए जाने की मिसाल भी देंगे। निश्चित रूप से वह मिसाल उम्मीद जगाने वाली थी। लेकिन उसके तीन साल बाद जो स्थिति है वह जन आंदोलनों के क्षमता और उसके असर को कमतर करने वाली है। इस स्थिति के पीछे भी उस आंदोलन की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है। निकट अतीत में उतना बड़ा, व्यवस्थित और उतना लंबा आंदोलन नहीं चला था।
परंतु उस आंदोलन का कोई राजनीतिक नुकसान सत्तारूढ़ दल को नहीं हुआ था। किसानों ने तीन केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ नवंबर 2020 में आंदोलन शुरू किया था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक साल के बाद नवंबर 2021 में तीनों कानूनों को वापस लेने का ऐलान किया था। उस घोषणा का तात्कालिक कारण मार्च 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव थे।
मार्च 2022 में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा में विधानसभा चुनाव होने थे। और किसान आंदोलन में मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और हरियाणा के किसान ही शामिल थे। केंद्र सरकार ने चुनावी मजबूरी में तीनों विवादित कानून वापस लिए और किसान जीत के साथ अपने घर लौटे। लेकिन उसके बाद क्या हुआ? पांच में से चार राज्यों में भाजपा की सरकार थी और चारों राज्यों में भाजपा फिर पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। उसके तीन साल के बाद जब हरियाणा का चुनाव हुआ तो वहां भी भाजपा पहले से ज्यादा बहुमत से जीती। याद करें हरियाणा सरकार ने किसानों को दिल्ली पहुंचने से रोकने के लिए क्या क्या किया था! कोई यह भी नहीं कह सकता है कि तीनों विवादित कानून वापस लिए जाने के बाद किसान भाजपा से बहुत खुश हो गए थे और उन्होंने भाजपा को वोट देकर चुनाव जिताया।
आंदोनकारी किसानों के विरोध के बावजूद भाजपा जीती और पहले से कमजोर होते जन आंदोलन उससे और कमजोर हुए। भाजपा और दूसरी पार्टियों को भी समझ में आ गया कि किसान हों या कोई और समूह उसका जन आंदोलन राजनीति को और खास कर चुनावी राजनीति को बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं करता है। तभी तीन साल बीत जाने के बाद भी केंद्र सरकार ने उस समय किसानों से किया वादा पूरा नहीं किया है। उस वादे की याद दिलाने के लिए पंजाब व हरियाणा के शंभू व खनौरी बॉर्डर पर किसान 11 महीने से आंदोलन कर रहे हैं। किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल 60 दिन से ज्यादा से आमरण अनशन पर बैठे हैं। जब उनकी हालत बहुत बिगड़ गई और सुप्रीम कोर्ट का दबाव बढ़ा तो केंद्र सरकार के संयुक्त सचिव स्तर के एक अधिकारी ने उनसे बात की। केंद्र ने 14 फरवरी को किसानों से बात करने का प्रस्ताव दिया है।
सवाल है कि कैसे किसानों का या किसी दूसरे समूह का आंदोलन राजनीति और चुनाव को प्रभावित नहीं करता है? इसका सीधा कारण यह है कि भारत का नागरिक एक साथ कई अस्मिताएं धारण किए हुए होता है। जब किसान आंदोलन कर रहे थे तो वे किसान थे। गाजीपुर से लेकर सिंघू बॉर्डर तक किसानों की एक पहचान थी। लेकिन आंदोलन के बाद जैसे ही वे अपने घर लौटे वैसे ही उन्होंने किसान वाली अस्मिता खूंटी पर टांग दी और जाट, सिख, गूजर, राजपूत, यादव, दलित, मुस्लिम की पहचान धारण कर ली। यह बिल्कुल वैसे ही जैसे अभी महाकुंभ में डुबकी लगाने पहुंच रही भीड़ सनातनी होने की अस्मिता धारण किए हुए है लेकिन कुंभ से लौटते ही वह जाति के खोल में दुबक जाएगी। कुंभ में उसे छुआछूत की चिंता नहीं है लेकिन अपने गांव लौटने पर वह उसका पहला सरोकार होगा। पार्टियों को पता है कि आंदोलन करने वाले किसान हों, नौजवान हों, पहलवान हों, जवान हों, छात्र हों, कर्मचारी हों या कोई कोई समूह हो, आंदोलन के बाद उनकी पहचान बदल जानी और उस पहचान को मैनिपुलेट करने के कई टूल्स पार्टियों और सरकारों के पास पहले से हैं। तभी आप देखें, बिहार में क्या हुआ है?
हजारों छात्र बीपीएससी की परीक्षा रद्द कराने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। प्रशांत किशोर ने आमरण अनशन शुरू किया। आमरण अनशन के बीच से पुलिस उनको उठा कर ले गई। दो हफ्ते के बाद उनको अनशन खत्म करना पड़ा और सरकार में से किसी ने उनसे बात नहीं की। राज्यपाल ने जरूर छात्रों से मुलाकात की लेकिन वह सिर्फ सद्भावना मुलाकात की। सरकार ने छात्रों व कोचिंग संचालकों के आंदोलन, पप्पू यादव के बिहार बंद और प्रशांत किशोर के आमरण अनशन पर ध्यान नहीं दिया तो उसका कारण यह है कि सरकार जानती है कि आंदोलन के बाद छात्रों और नेताओं की अस्मिता बदल जानी है।
अब सवाल है कि क्या जातीय अस्मिता के सबसे प्रमुख होने और राजनीति व चुनाव में उसके ही वोट का आधार होने भर से जन आंदोलनों के सफल होने की संभावना खत्म होती जा रही है और क्या सिर्फ इसी कारण से सरकारें इन पर ध्यान नहीं दे रही हैं? निश्चित रूप से जाति और पहचान की राजनीति एक कारण है, जिसकी वजह से सरकारें जन आंदोलनों की अनदेखी कर रही हैं। जाति की राजनीति का एक दूसरा पहलू यह है कि तमाम तरह के संगठन भी जातियों या क्षेत्र के आधार पर बंटे हैं। पहले की सरकारों और पार्टियों ने मजदूर संगठनों, किसान व छात्र संगठनों को वैचारिक आधार पर बांटा। उसके बाद नब्बे के दशक में जब मंडल की राजनीति उभरी तो तमाम संगठनों को जातियों के आधार पर भी बांटा जाने लगा।
अलग अलग जातियों पर आधारित पार्टियों और जातीय नेताओं के लिए प्रतिबद्धता वाले संगठन बने। पुराने संगठनों का ढांचा टूट कर बिखर गया। इसके साथ मजदूर, किसान, छात्र नेताओं की निजी महत्वाकांक्षा में भी संगठन बने। इसकी अनगिनत मिसालें दी जा सकती हैं लेकिन सिर्फ किसानों के संगठनों की संख्या से भी इसको समझा जा सकता है। 2020 के आंदोलन में भी कई संगठन शामिल थे। लेकिन कहा जाता था कि संयुक्त किसान मोर्चा इसका नेतृत्व कर रहा है। अब संयुक्त किसान मोर्चा ही दो हिस्सों में बंट गया है। संयुक्त किसान मोर्चा (टिकैत) और संयुक्त किसान मोर्चा (अराजनीतिक)। महेंद्र सिंह टिकैत ने भारतीय किसान यूनियन बनाया था। आज इस नाम से एक दर्जन संगठन हैं। किसी के नेता टिकैत हैं, किसी के लाखोवाल, किसी के चढ़ूनी तो किसी के नेता बुर्जगिल हैं।
संगठनों के जातियों में बंटने के अलावा जन आंदोलनों की संभावनाओं को कमजोर करने वाली दो और चीजे हैं। पहली चीज है मुफ्त की रेवड़ी और दूसरी चीज है सोशल मीडिया। मुफ्त की रेवड़ी ने लोगों को अपने हक के लिए लड़ने से रोका है। देश की एक बड़ी आबादी को लग रहा है कि सरकार उसे मुफ्त में इतनी सेवाएं और वस्तुएं दे रही है और ऊपर से नकद पैसे दे रही है तो उसके खिलाफ आंदोलन करने की कोई जरुरत नहीं है। भले सरकार के फैसले या नीतियों से उसके और उसके बच्चों के दीर्घकालिक हितों को नुकसान होता हो लेकिन मुफ्त की रेवड़ी ने उसे सरकारों का विरोध करने की राजनीति से दूर किया है। यह धारणा बदली है कि कोई भी सरकार आम जनता के लिए काम नहीं करती है। हालांकि यह सही नहीं है। आज भी दुनिया की कोई भी सरकार आम जनता के लिए काम नहीं करती है। उसका हर काम, हर फैसला, हर नीति दूसरी चीजों से नियंत्रित होती है। लेकिन जनता मानने लगी है कि सरकार उसके लिए काम कर रही है।
चूंकि केंद्र और अलग अलग राज्यों में अलग अलग पार्टियों की सरकारें हैं और सबकी नीतियां एक जैसी हैं तो जनता भी कंफ्यूज होती है कि वह कैसे और किसका विरोध करे। सोशल मीडिया ने भी आंदोलन की संभावनाओं को कमजोर किया है। फ्रेडरिक नीत्शे अखबार और लोकतंत्र को क्रांति विरोधी मानते थे। अब तो संचार की दुनिया अखबार से बहुत आगे पहुंच गई है। अब सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म हैं, जिन पर कोई भी व्यक्ति अपनी नाराजगी जाहिर कर सकता है। सरकार की नीतियों और फैसलों का विरोध कर सकता है। सोशल मीडिया में ट्रेंड चलवाए जा सकते हैं। सो, सारे आंदोलन अब सोशल मीडिया में चलाए जा रहे हैं। पार्टियों और सरकारों को पता है कि समय आने पर इन आंदोलनों से बनी भावना को किस तरह से सोशल मीडिया के जरिए ही बदला जा सकता है।