पहले भी नरेंद्र मोदी की दो सरकारों ने पहले सौ दिन का मुकाम पार किया था। लेकिन ध्यान नहीं आ रहा है कि 2014 या 2019 की सितंबर में भाजपा ने सरकार के सौ दिन पूरे करने का ऐसा जलवा बनाया हो। इस बार कुछ खास बात है। यह भी संयोग है कि इस बार प्रधानमंत्री मोदी के जन्मदिन के दिन ही सरकार के सौ दिन पूरे हुए। सो, यह भाजपा और सरकार दोनों के लिए विशेष अवसर बन गया। जगह जगह कार्यक्रम हुए। सेवा सप्ताह की शुरुआत हुई।
प्रधानमंत्री इस बार भी जन्मदिन के मौके पर गुजरात में रहे और उसी दिन ओडिशा जाकर कई बड़ी परियोजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास किया। एक आदिवासी महिला ने मोदी को खीर खिलाई तो उन्होंने कहा कि अब उनकी मां नहीं हैं, जो हर जन्मदिन पर गुड़ खिलाती थीं लेकिन आज एक आदिवासी मां ने खीर खिलाई। सो, आदिवासी बहुल झारखंड में विधानसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री ने एक आदिवासी मां की ममता का खासतौर से जिक्र किया।
सरकार के सौ दिन पूरे होने पर अमित शाह ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की और सौ दिन की उपलब्धियों का ब्योरा दिया। उधर प्रधानमंत्री ने गुजरात में एक दिन पहले कहा था और अगले दिन दिल्ली में अमित शाह ने बताया कि सौ दिन में 15 लाख करोड़ रुपए की परियोजनाएं शुरू हुई हैं। अब खबर आई है कि अगले एक सौ दिन में 15 लाख करोड़ रुपए की और योजनाएं शुरू होंगी। यानी दो सौ दिन में 30 लाख करोड़ रुपए की परियोजनाएं शुरू होंगी।
बात सिर्फ परियोजनाओं तक सीमित नहीं है। सौ दिन पूरे होने के बीच आधा दर्जन बड़े फैसले हुए हैं। पेंशन की नई योजना आई है, जो पुरानी पेंशन योजना से मिलती जुलती है। आयुष्मान भारत योजना के तहत 70 साल से ऊपर के बुजुर्गों को पांच लाख रुपए तक के मुफ्त इलाज की घोषणा हुई है। प्याज और बासमती का निर्यात कम करने के लिए तय किए गए न्यूनतम निर्यात मूल्य को समाप्त कर दिया गया है।
वक्फ बोर्ड बिल संसद में पेश करके उसे संयुक्त संसदीय समिति में भेजा गया है। और एक देश, एक चुनाव की रामनाथ कोविंद कमेटी की सिफारिशों को कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। सोचें, एक सौ दिन में कितने काम हुए हैं, कितने फैसले हुए हैं
अब दो सवाल हैं। पहला तो यह कि सरकार अपने कामकाज को सौ दिन के स्केल पर क्यों आगे बढ़ा रही है और दूसरा यह कि इस बार सौ दिन की उपलब्धियों का इतना जलवा दिखाने की क्या जरुरत थी? इन दोनों सवालों का जवाब यह है कि मोदी और शाह की राजनीतिक जरुरत है कि देश में सकारात्मक माहौल बने और जनता के बीच यह मैसेज जाए कि भाजपा का बहुमत कम होने के बावजूद सब कुछ पहले जैसा चल रहा है। असल में लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद भाजपा और संघ के भीतर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को लेकर जो भी सवाल उठ रहे हैं या धारणा बन रही है, उनका जवाब देने के लिए जरूरी है कि यह मैसेज बने कि बहुमत कम होने के बावजूद सब कुछ ठीक है।
सरकार को यह बताना है कि मोदी अभी पूरी तरह से कमान में हैं और भाजपा हो या सहयोगी पार्टियां, सबका समर्थन उनके साथ है। तभी हर मुद्दे पर सहयोगियों का समर्थन हासिल करने के भी पूरे प्रयास हुए हैं। देश में सकारात्मक माहौल का मैसेज जाने की जरुरत इस वजह से भी है कि चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा बैकफुट पर है। वहां किसी तरह से भाजपा के मौजूदा नेतृत्व को अच्छा प्रदर्शन करना है।
तभी भाजपा यह मैसेज बनाना चाहती है कि लोकसभा चुनाव में उम्मीद के अनुरूप प्रदर्शन नहीं होने का कारण थोड़ी एंटी इन्कम्बैंसी और थोड़ी लोगों की थकान थी और मतदाताओं को लोकसभा चुनाव में भाजपा को जो मैसेज देना था वह दे दिया है, जिसे भाजपा नेतृत्व ने समझ कर उसके मुताबिक कामकाज शुरू कर दिया है।
असल में राज्यों का चुनाव भाजपा नेतृत्व के लिए लिटमस टेस्ट है। अगर भाजपा चार राज्यों मे अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाती है तो मोदी और शाह के नेतृत्व के सामने बहुत बड़ी चुनौती पैदा हो जाएगी। लोकसभा चुनाव में ही भाजपा के बहुमत से नीचे आने का जो मैसेज है वह अच्छा नहीं है। 240 सीटों को बहुत कम नहीं कहा जा सकता है लेकिन इतनी सीटें आने और सरकार बना लेने के बावजूद भाजपा में सुगबुगाहट है और संघ की ओर से तो खुल कर कई बातें कही जा चुकी हैं।
सोशल मीडिया में भी भाजपा समर्थकों के सुर बदले हैं। लोकसभा चुनाव में कम सीट आने का नतीजा है कि जम्मू कश्मीर और हरियाणा में टिकट बंटवारे के बाद इतनी बगावत हुई। ऐसा पहले नहीं होता था। लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी का लौह अनुशासन भंग हुआ है। अगर चार राज्यों में भी भाजपा हार जाती है तो फिर बड़ी भगदड़ मचेगी और अव्यवस्था होगी।
ऐसा मानने का एक कारण यह है कि भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष का नाम तय नहीं कर पा रही है। ऐसा कब हुआ था कि पार्टी को राष्ट्रीय अध्यक्ष तय करने में इतनी दिक्कत आई होजेपी नड्डा का कार्यकाल जनवरी में ही पूरा हो गया था। लेकिन लोकसभा चुनाव के लिए उनका कार्यकाल जून तक बढ़ाया गया। वह विस्तारित कार्यकाल भी खत्म हो गया। अब वे तदर्थ अध्यक्ष के तौर पर काम कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि भाजपा और संघ के बीच खींचतान में अध्यक्ष का नाम तय नहीं हो रहा है। अचानक संजय जोशी की वापसी की चर्चा शुरू हो गई है, जिनको कोई 20 साल पहले राजनीतिक बियाबान में धकेल दिया गया था।
तभी एक राजनीति के तहत सौ दिन का स्केल तय किया गया है। लाखों लाख करोड़ रुपए की परियोजनाएं शुरू होने का दावा किया जा रहा है। बड़ी घोषणाएं हो रही हैं। बड़े नीतिगत फैसले हो रहे हैं। आम जनता के साथ साथ भाजपा कार्यकर्ताओं को सब कुछ ठीक होने का मैसेज दिया जा रहा है। लेकिन सब कुछ ठीक होने का मैसेज ज्यादा दिन तक नहीं चल सकता है।
अगर चार राज्यों के नतीजे भाजपा के अनुकूल नहीं आते हैं और इन राज्यों में विपक्षी पार्टियों की सरकार बनती है तो मोदी और शाह के नेतृत्व की ढलान का मैसेज बनेगा। फिर उस लुढ़कने को वक्फ बोर्ड के बिल या समान नागरिक संहिता या एक देश, एक चुनाव के बिल से नहीं रोका जा सकेगा। फिर तो ये बिल भी संकट में फंसेंगे। संसद के अंदर सरकार के लिए बिल पास कराना और कामकाज करना मुश्किल होगा। विपक्ष का हौसला बढ़ेगा। उसकी ताकत बढ़ेगी और उसी अनुपात में सत्तारूढ़ गठबंधन के अंदर बिखराव बढ़ेगा, मनोबल गिरेगा।
फिर कोई नहीं जानता है कि उसके बाद बिहार में क्या होगा? अगर झारखंड सहित चार राज्यों में हारे तो नीतीश कुमार क्या करेंगे यह कोई नहीं बता सकता। फिर भी सौ दिन का जलवा दिखाना तात्कालिक राहत तो देगा लेकिन लंबे समय तक जलवा कायम रहे इसके लिए चार राज्यों में भाजपा का अच्छा प्रदर्शन करना जरूरी होगा।