Naya India-Hindi News, Latest Hindi News, Breaking News, Hindi Samachar

जवान देश, बुज़ुर्ग सत्ता: सठियाई राजनीति!

पिछले साल जब अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव की सरगर्मी तेज़ थी, तो सबसे ज़्यादा चर्चा नीतियों की नहीं, उम्र की थी। जो बाइडन की याददाश्त को लेकर सवाल थे, तो डोनाल्ड ट्रंप के भौकाल पर भी। मुद्दा यह नहीं था कि कौन बेहतर नेता है, बल्कि यह कि किस उम्र तक का नेतृत्व स्वीकार्य है?

आज वही असहजता भारत की राजनीति में भी हल्के सुरों में सुनाई दे रही है। बंद दरवाज़ों के पीछे और नपे-तुले शब्दों में यह सवाल आकार ले रहा है—क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अब पद छोड़ देना चाहिए, उस 75 साल की अनौपचारिक सीमा का पालन करते हुए, जिसे कभी उन्होंने खुद स्वीकार किया था?

बीते हफ्ते आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के इस बयान के बाद ये कानाफूसी तेज़ हुई है कि 75 वर्ष की उम्र के बाद नेताओं को स्वेच्छा से पीछे हट जाना चाहिए। यह सीधा इशारा नहीं था, लेकिन भारतीय राजनीति में इशारे, बयान से कहीं ज़्यादा गूंजते हैं।

यह अंतर्विरोध केवल भारत तक सीमित नहीं है। अफ्रीकी देश कैमरून में 92 वर्षीय राष्ट्रपति पॉल बिया, जो 1980 के दशक से सत्ता में हैं, ने हाल ही में घोषणा की कि वे आठवीं बार चुनाव लड़ेंगे। बहुतों को उम्मीद थी कि वे अब पद छोड़ेंगे—चाहे थकावट के कारण या उम्र के सम्मान में। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसके बजाय, उनके इस फैसले ने वहां की युवा आबादी और सत्ता के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया। एक ऐसे देश में, जहां 60 प्रतिशत आबादी 25 वर्ष से कम है और मतदाता का बड़ा हिस्सा 30 से नीचे, वहां बिया की भाषा और सोच अब युवा पीढ़ी के लिए अपरिचित और असंबंधित लगने लगी है। रिपोर्ट्स कहती हैं कि युवा मतदाता आगे मतदान से दूर रह सकते हैं—निराश, कटे हुए, और दोहराव से थके हुए।

समय और नेतृत्व के बीच यह खिंचाव अब वैश्विक विमर्श में कई तरफ है। हम उस युग में रह रहे हैं, जहां दुनिया एआई क्रांति में है, सांस्कृतिक परिवर्तन बहुत तेज़ हैं, और जलवायु से लेकर रोज़गार तक के मुद्दों पर युवाओं की अगुवाई में आंदोलन चल रहे हैं। और फिर भी, दुनिया के ज़्यादातर राजनीतिक ताने-बाने, चेहरे बीसवीं सदी में ही जमे हुए हैं।

भारत में यह विरोधाभास और गहरा है। भारत की 140 करोड लोगों की आबादी की औसत आयु 30 वर्ष से भी कम है, लेकिन नेतृत्व अब भी 70 पार के लोगों के हाथ में है। ऐसे में सवाल उठता है—क्या राजनीतिक कल्पना, भविष्य की दृष्टि पिछली सदी के फ्रेम, जुमलों, भाषणों में ही फंसी रहेगी?

प्राचीन यूनानी इतिहासकार प्लूटार्क ने कभी कहा था कि उम्र अनुभव और गहराई देती है, लेकिन इसके साथ बदलाव से जड़ता भी आती है। सत्ता, उन्होंने चेताया था, इंसान के चरित्र की अच्छाई और बुराई दोनों को बढ़ा देती है। आज अगर दुनिया पर नज़र डालें—बेंजामिन नेतन्याहू 74 के हैं, पुतिन और शी जिनपिंग दोनों 71, ईरान के अयातुल्ला खामेनेई 85, और पाकिस्तान के शहबाज़ शरीफ 73 साल के। क्या उम्र ने इन्हें अधिक शांतिपूर्ण और विवेकपूर्ण, समझदार नेता बनाया है, या केवल सत्ता से चिपके रहने की ज़िद बनवाई है?

प्लूटार्क ने यह भी कहा था कि किसी समाज को अपने बुज़ुर्गों को पूरी तरह छोड़ नहीं देना चाहिए—क्योंकि महत्वाकांक्षा जब विवेक से अलग हो जाए, तो वह खतरनाक हो जाती है। लेकिन आज का समय ऐसे उदाहरणों से भी भरा है जहाँ युवाओं ने नेतृत्व संभाला—आयरलैंड के लियो वराडकर 38 की उम्र में प्रधानमंत्री बने; न्यूजीलैंड की जैसिंडा आर्डर्न 37 की उम्र में; फ्रांस के इमैनुएल मैक्रों 39 की उम्र में राष्ट्रपति बने। और सबसे महत्वपूर्ण यह कि वराडकर और आर्डर्न ने खुद सत्ता से संन्यास लिया—बिना हार, बिना दबाव, केवल इसलिए कि वे अब भीतर से तैयार नहीं थे। जैसिंडा ने प्रधानमंत्री पद छोड़ते हुए कहा था, “अब मेरे पास उतनी ऊर्जा नहीं बची कि इस पद का पूरा न्याय कर सकूं।” सोचे, आज की सत्ता-लोलुप राजनीति में एक नेता की ऐसी स्वीकारोक्ति और उस आधार पर रिटायर होना कितना दुर्लभ है।

बावजूद इसके राजनीति लगातार “बुज़ुर्गतंत्र” से संचालित हो रही है। भारत जैसे देश में, जहां युवा हर क्षेत्र में आगे हैं, वहीं नेतृत्व दो या तीन पीढ़ी पुराने नेताओं के हाथ में है। अमेरिका में, उम्र को लेकर चिंता के बावजूद, करोड़ों लोग अब भी बाइडन और ट्रंप जैसे 70–80 पार नेताओं को चुनने को तैयार हैं। कैमरून में 92 वर्षीय नेता आठवीं बार मैदान में उतर रहे हैं।

तो सवाल है—दुनिया की सबसे युवा जनता बार-बार सबसे बुढे नेताओं को क्यों चुन रही है?

इसका एक उत्तर कल्पनाशीलता के संकट में छिपा है। लोग विकल्प की कल्पना करने, साहस से कतराते हैं। चारों ओर जो निराशा और व्यवस्था पर विश्वास की कमी है, उसने सोच को कुंद कर दिया है। यह ऐसा है जैसे धुंध ने आकाश ढक दिया हो—और अब उस पार देखना, अंधेरे की खाई में झांकने जैसा लगता है। सोशल मीडिया ने इसे और गहरा किया है। भारत में देखिए—व्हाट्सएप पर मोदी को दैविक नेता की तरह दिखाया जाता है। X (ट्विटर) पर स्थिरता के आंकड़ों की बाढ़ है। इंस्टाग्राम पर ‘मोदी है तो मुमकिन है’, और राहुल गांधी अब भी ‘पप्पू’ के फ्रेम से बाहर नहीं आ पाए।

तभी जो राजनीतिक संस्थाएं बदलाव के लिए बनी थीं, वे अब इस तरह ढल चुकी हैं कि स्थायित्व को प्राथमिकता दी जाती है। बुढ़े नेताओं के पास पहचान है, नेटवर्क है, और “परीक्षित” होने की छवि है—भले ही थक चुके हों। वहीं दूसरी ओर, राजनीतिक दल भी युवाओं के लिए सशक्त विकल्प प्रस्तुत नहीं कर पा रहे। और जिन समाजों में उम्र को अब भी अनुभव और अधिकार का पर्याय माना जाता है, वहां यह चक्र चलता रहता है।

Gen Z भले ही डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर बदलाव की आवाज़ बुलंद कर रहा हो, लेकिन चुनावों में अक्सर ‘परिचित’ और ‘स्थिर’ विकल्प को ही वोट देता हैं। आज डर यह नहीं है कि युवा तेज़ी से आगे आ जाएंगे—डर यह है कि सत्ता में जमे बुज़ुर्ग, ‘स्थिरता’ के नाम पर, संस्थाओं को भीतर से खोखला कर रहे हैं।

तो समस्या केवल बुज़ुर्गतंत्र नहीं है। समस्या उन विचारों की है जो इसे टिकाए रखते हैं—यह धारणा कि केवल बुज़ुर्ग ही ज़िम्मेदार शासन दे सकते हैं; कि बदलाव खतरनाक है; विकल्प नहीं है, कि व्यवस्थाएं धीरे चलनी चाहिए जबकि दुनिया चारों ओर तेज़ी से बदल रही हो और आवश्यकता भविष्य के तकाजे में नए खून की है।

जब तक ऐसा नेतृत्व सामने नहीं आता, जो केवल युवा दिखता ही नहीं बल्कि युवा सोचता भी हो—जो समावेशन, कल्पना और तात्कालिकता की भाषा बोले—तब तक भविष्य केवल दरवाज़ा खटखटाता रहेगा… उन दरवाज़ों पर, जो एक दिन इतने बूढ़े हो जाएंगे कि उस दस्तक को सुन ही नहीं पाएंगे।

Exit mobile version