प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘एक देश, एक चुनाव’ का कानून बनाने की जल्दी में हैं। मोदी की तीसरी सरकार के पहले एक सौ दिन की उपलब्धियों का ब्योरा देने के लिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मंगलवार, 17 सितंबर को प्रेस कॉन्फ्रेंस की तो सब बातों के साथ यह भी कहा कि इसी लोकसभा में ‘एक देश, एक चुनाव’ का फैसला होगा। इसके एक दिन बाद कैबिनेट ने इसके प्रस्ताव को मंजूरी दे दी और सरकार ने ऐलान कर दिया कि इस साल शीतकालीन सत्र में इसका विधेयक पेश किया जाएगा।
इससे पहले सरकारी सूत्रों के हवाले से जब इसकी खबर आई थी तभी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व गृह व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने दावा किया था कि यह संभव नहीं है। चिदंबरम ने कहा कि लोकसभा और सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव कराना मौजूदा संविधान की व्यवस्था में संभव नहीं है। इसके लिए संविधान में कम से कम पांच संशोधन करने होंगे और केंद्र की मौजूदा सरकार के पास लोकसभा और राज्यसभा में इतना बहुमत नहीं है कि वह पांच संशोधन करके सारे चुनाव एक साथ कराने का फैसला करे।
इस मसले पर एक तरफ भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियां हैं, जो एक साथ चुनाव के लिए तैयार हैं तो दूसरी ओर विपक्षी गठबंधन की 15 बड़ी पार्टियों ने खुल कर इसका विरोध किया है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति के सामने मुख्य विपक्षी कांग्रेस सहित उन सभी विपक्षी पार्टियों ने पूरे देश में एक साथ चुनाव का विरोध किया, जिनकी किसी न किसी राज्य में सरकार है या जो राज्य की विधानसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी हैं।
कांग्रेस के अलावा राष्ट्रीय पार्टियों में बहुजन समाज पार्टी, आम आदमी पार्टी और सीपीएम ने इस विचार का विरोध किया। प्रादेशिक पार्टियों में समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, डीएमके, सीपीआई आदि पार्टियां विरोध करने वालों में शामिल हैं। राजद, जेएमएम, नेशनल कॉन्फ्रेंस, भारत राष्ट्र समिति, अकाली दल आदि ने इस पर कोई राय नहीं दी लेकिन माना जा रहा है कि ये पार्टियां भाजपा सरकार की ओर से पेश किए गए इस विचार का विरोध करेंगी।
अब सवाल है कि केंद्र सरकार इतनी पार्टियों के विरोध के बावजूद ‘एक देश, एक चुनाव’ का कानून कैसे पास करेगी? क्या सरकार जोर जबरदस्ती करेगी? ध्यान रखने की बात है कि यह कोई सामान्य कामकाजी कानून नहीं होगा, जिसे विपक्ष के विरोध के बावजूद पास कर दिया जाए और उसे लागू कर दिया जाए। संसद से पास होने के बावजूद इसमें विपक्ष की सभी पार्टियों की भागीदारी होगी तभी इसे लागू किया जा सकेगा।
देश के अनेक छोटे बड़े राज्यों में विपक्षी पार्टियों की सरकार है। उन्हें अचानक केंद्र सरकार कानून बना कर भंग नहीं कर सकती है या चुनाव टाल नहीं सकती है। अगर विपक्षी पार्टियां इस पर सहमत नहीं होती हैं तो इसे लागू करना लगभग नामुमकिन होगा। तभी यह हैरानी की बात है कि विपक्ष के साथ संवाद करने और सहमति बनाने का प्रयास करने की बजाय अमित शाह ने ऐलान कर दिया कि इसी लोकसभा में इसका कानून बनाएंगे और उसके बाद सरकार ने इसके प्रस्ताव को मंजूरी देकर शीतकालीन सत्र में पेश करने की डेडलाइन भी जारी कर दी।
हकीकत यह है कि इस पूरी प्रक्रिया में कई तरह की जटिलताएं हैं। अगले साल 23 फरवरी तक दिल्ली विधानसभा का कार्यकाल है। उसके बाद से लेकर दिसंबर 2028 तक 13 राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल है। इन राज्यों में 2029 के लोकसभा चुनाव से पहले चुनाव होंगे। इनके चुनावों की क्या व्यवस्था होगी? जिन राज्यों में अगले चार साल में चुनाव होने वाले हैं वहां कम कार्यकाल का चुनाव होगा या कार्यकाल पूरा होने के बाद राष्ट्रपति शासन लगा कर चुनाव टाल दिया जाएगा? जो सुझाव सरकार को मिला है उसमें कहा गया है कि एक साथ चुनाव कराने के लिए संसद से कानून बना कर 2029 को ‘निर्धारित तिथि’ मान लिया जाएगा।
राष्ट्रपति के दस्तखत के बाद इसकी अधिसूचना जारी हो जाएगी। उसके बाद, जितने भी चुनाव होंगे उन विधानसभाओं का कार्यकाल 2029 तक ही माना जाएगा। इसका मतलब होगा कि मार्च 2027 में उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव होगा लेकिन उसका कार्यकाल पांच साल का नहीं, बल्कि दो साल का होगा! 2026 में विपक्ष के शासन वाले तीन बड़े राज्यों, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल में विधानसभा चुनाव होगा। क्या इन तीन राज्यों में शासन करने वाली पार्टियां, तृणमूल कांग्रेस, डीएमके और सीपीएम इसके लिए तैयार होंगी कि विधानसभा का कार्यकाल तीन साल का ही हो! सरकार के रवैए से ऐसा लग रहा है कि उसको लोकसभा चुनाव का चक्र डिस्टर्ब किए बगैर यह काम करना है और अचानक करना है।
परंतु अगर सरकार इसको अचानक और जोर जबरदस्ती करने की बजाय सबकी सहमति से करे और सारे चुनाव एक साथ कराने की बजाय जो चरण में कराने के फॉर्मूले पर काम करे तो यह बहुत आसान हो जाएगा। अमेरिका में दो चरण में सारे चुनाव होते हैं। एक बार राष्ट्रपति का चुनाव होता है और फिर मध्यावधि चुनाव होते हैं। इस फॉर्मूले पर भारत में लोकसभा के साथ आधे राज्यों के चुनाव हो सकते हैं और उसके बाद दूसरे चरण में आधे राज्यों के चुनाव हो सकते हैं।
इससे मतदाताओं को भी अपनी राय प्रकट करने के लिए पांच साल तक इंतजार नहीं करना होगा। गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव के साथ या उससे छह महीने आगे पीछे अरुणाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, सिक्किम, जम्मू कश्मीर, हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, तेलंगाना, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव होते हैं। लोकसभा चुनाव से एक साल पहले कर्नाटक का चुनाव होता है और 10 महीने बाद दिल्ली का चुनाव होता है। इन चुनावों को लोकसभा के साथ वाले चरण में लाया जा सकता है। दो चरण में चुनाव कराने का एक फायदा यह भी है कि अगर किसी वजह से राज्यों में सरकार गिरती है या विधानसभा भंग होती है तो दोबारा चुनाव के लिए ज्यादा समय इंतजार नहीं करना होगा। जो नजदीकी चरण होगा, उसमें उसका चुनाव हो जाएगा। लेकिन लग नहीं रहा है कि सरकार दो चरण में पूरे देश में चुनाव कराने के तर्कसंगत फॉर्मूले पर विचार के लिए तैयार है।
केंद्र सरकार इस बात पर अड़ी है कि सारे चुनाव एक साथ कराने हैं। इसके पीछे कोई बहुत ठोस तर्क नहीं है। बार बार चुनाव होने और आचार संहिता लगने से कामकाज ठप्प होने का तर्क फालतू का है। क्योंकि अगर मौजूदा व्यवस्था भी चलती रहती है तब भी हर राज्य में पांच साल की अवधि में दो ही बार आचार संहिता लगेगी। एक बार लोकसभा चुनाव की और दूसरी बार विधानसभा चुनाव की। इसलिए आचार संहिता से कामकाज ठप्प होने की बात का कोई मतलब नहीं है।
अभी दो राज्यों में चुनाव हो रहे हैं तो उससे कौन सा काम ठप्प हो गया है! केंद्र सरकार ने इस चुनाव के बीच ही लोक कल्याण के तीन बड़े फैसले किए हैं। उसे किसने रोक दिया? राज्यों में भी आपात स्थितियों में सारे फैसले होते हैं और पुराने कामकाज चल रहे होते हैं। अगर चुनाव आयोग सक्षम होता तो राज्यों में एक महीने में चुनाव की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी। अगर 60 महीने के कार्यकाल में एक या दो महीने आचार संहिता में चले गए तो कोई आसमान नहीं टूट पड़ेगा।
एक साथ सारे चुनाव कराने के फॉर्मूले में विधानसभा के बीच में भंग नहीं होने का कानून भी बनाना होगा, जिसे किसी स्थिति में लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता है। अगर ऐसा कानून नहीं बनता है तो विधानसभाओं का कार्यकाल छोटा होगा या जोड़ तोड़ की सरकार बनेगी या राज्यों को राष्ट्रपति शासन में रहना पड़ेगा। सो, सरकार को जिद छोड़ कर सहमति और वैज्ञानिक व तार्किक पद्धति की ओर बढ़ना चाहिए।