कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां ना ना करते वापस उसी राजनीति में लौट आईं, जो वे हर बार करती हैं और हर बार नुकसान उठाती हैं। उन्होंने सेना की कार्रवाई, उसकी उपलब्धियों, सरकार की कूटनीति और भाजपा की राजनीति पर सवाल उठाना या उसकी आलोचना करना शुरू कर दिया है। यह भी कह सकते हैं कि किसी न किसी तरह से भाजपा ने उसको मजबूर कर दिया कि वह पुरानी राजनीति के रास्ते पर लौटे और विपक्षी पार्टियां भाजपा के बिछाए जाल में फंस गईं।
पहलगाम नरसंहार के बाद जब विपक्ष ने एक स्वर में कहा कि वह सरकार के साथ है और सरकार जो भी कार्रवाई करेगी विपक्ष उसका समर्थन करेगा तो ऐसा लगा था कि उसने सबक ले लिया है और वह भाजपा को कोई मौका नहीं देगी। लेकिन ज्यादा समय तक विपक्षी पार्टियां अपनी लाइन पर टिकी नहीं रह सकीं। उन्होंने वापस पुराना राग अलापना शुरू कर दिया।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अशोक गहलोत ने कहा है कि आतंकवादियों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई यानी ऑपरेशन सिंदूर की जानकारी देने के लिए दुनिया के दौरे पर जाने वाले डेलिगेशन में सदस्यों के चुनाव में भाजपा ने शरारत की। यह साफ दिख रहा है कि भाजपा ने शरारत की फिर क्यों कांग्रेस उसके जाल में फंसी? जब कांग्रेस को जाल दिख रहा था तो उसे उसमें फंसना क्यों था?
इसलिए फंसना था क्योंकि कांग्रेस का कोई भी नेता बड़ी राजनीतिक तस्वीर नहीं देखता है और न बड़ी राजनीति करता है। कांग्रेस का कोई नेता पहले ही क्यों नहीं भांप पाया कि अगर सांसदों का डेलिगेशन विदेश जाएगा तो भाजपा उसमें शशि थरूर को शामिल कर सकती है? नहीं भांप पाए तब भी अगर कांग्रेस के नेता जरा सी भी दूरदृष्टि वाले होते तो वे पहले ही अपनी ओर से शशि थरूर का नाम देते।
कांग्रेस ने थरूर का नाम नहीं दिया और जब सरकार ने उनका नाम दे दिया तो कांग्रेस ने दूसरी गलती यह कर दी कि उसने थरूर के नाम पर सरकार से लड़ना शुरू कर दिया। कांग्रेस की तीसरी गलती यह थी कि उसने जो चार नाम अपनी ओर से चुने उनमें आनंद शर्मा को छोड़ कर बाकी तीन नामों का कोई मतलब नहीं था। कूटनीति या सामरिक नीति के नाम पर गौरव गोगोई, सैयद नासिर हुसैन और राजा अमरिंदर वारिंग का क्या अनुभव है?
कांग्रेस ने इनके नाम तय किए। कांग्रेस को खुद से सलमान खुर्शीद, मनीष तिवारी, शशि थरूर, आनंद शर्मा का नाम देना चाहिए था, जो विदेश में जाकर देश की भी बात करते और कांग्रेस की भी बात करते। लेकिन कांग्रेस ने गलती की और ऊपर से भाजपा के जाल में उलझती चली गई।
विपक्ष की रणनीति फिर से विफल हुई
केंद्र सरकार ने विदेश जाने के लिए कांग्रेस के उन नेताओं का नाम तय किया, जो सामरिक और कूटनीतिक मामले में भारत का पक्ष सबसे बेहतर ढंग से रख सकते हैं। जब यह तय हो गया तब कांग्रेस अपने नेताओं से अंतरात्मा की आवाज पर बात रखने की अपील करने लगी। यह बहुत दयनीय है।
इसी तरह विदेश मंत्री एस जयशंकर की एक बात को पकड़ कर कांग्रेस के सर्वोच्च नेता राहुल गांधी सेना की कार्रवाई और उपलब्धि पर सवाल उठाने लगे। उनके पीछे पीछे मल्लिकार्जुन खड़गे और कांग्रेस के पवन खेड़ा जैसे प्रवक्ता भी यही काम कर रहे हैं। ऐसा लग रहा है, जैसे सरकार और सेना का समर्थन करते करते कांग्रेस का दम घुटने लगा था और उसके नेता छटपटा रहे थे कोई बात उठा कर सरकार पर हमला करने के लिए।
उनको जयशंकर के इस बयान से मौका मिल गया कि छह और सात मई को सैन्य कार्रवाई से पहले भारत ने पाकिस्तान को बताया था कि वह आतंकवादियों के ठिकाने पर हमला करने जा रहा है और पाकिस्तानी सेना इससे दूर रहे। कांग्रेस ऐसा दिखा रही है, जैसे वह जयशंकर पर हमला कर रही है और सरकार को कठघरे में खड़ा कर रही है।
लेकिन जब विदेश मंत्रालय और भारतीय सेना ने दो टूक अंदाज में कह दिया कि उसने पाकिस्तान को कार्रवाई से पहले नहीं, बल्कि कार्रवाई शुरू करने के बाद जानकारी दी थी तो जयशंकर की बात को पकड़ कर उसकी लकीर पीटने का क्या मतलब है?
क्या राहुल गांधी और उनकी पार्टी के नेताओं को पता नहीं है कि विदेश मंत्री ऐसे मौकों पर बात नहीं करते हैं? क्या वे नहीं जानते हैं कि पाकिस्तान को जो भी सूचना दी गई है वह भारतीय सेना के सैन्य अभियानों के महानिदेशक यानी डीजीएमओ के जरिए दी गई है? वे जानते हैं कि बातचीत डीजीएमओ के स्तर पर हुई है तब भी अगर वे सवाल उठा रहे हैं तो इसका मतलब है कि सेना की रणनीति और उसके फैसले पर सवाल उठा रहे हैं।
दूसरे, यह कौन सी समझदारी की बात है कि इस समय सेना या सरकार बताए कि हमारे कितने विमान गिरे हैं? राहुल गांधी इस समय यह जानना चाहते हैं। राहुल और उनकी पार्टी के दूसरे नेता जयशंकर को पाकिस्तानपरस्त साबित करने में लग गए हैं। कांग्रेस की ओर से उनको पाकिस्तान का ‘मुखबिर’ बताया जा रहा है। यह भी कोई समझदारी की बात नहीं है।
राहुल बार बार यह सवाल पूछ रहे हैं कि सरकार बताए कि पाकिस्तान को जानकारी देने से भारतीय सेना को कितना नुकसान हुआ? इस समय देश में कोई यह राग नहीं सुनना चाहता है कि भारतीय सेना का कितना नुकसान हुआ। अगर नुकसान हुआ तो उसके बारे में बात करने के लिए इंतजार करना चाहिए था।
लेकिन कांग्रेस से इंतजार नहीं हुआ। उसने 22 अप्रैल के बाद सरकार का समर्थन और पाकिस्तान व आतंकवादियों का विरोध करके देश के लोगों का जो सद्भाव हासिल किया था उसे जयशंकर के बयान और विदेश जाने वाले डेलिगेशन के नामों के चयन में गड़बड़ी करके गंवा दिया। कांग्रेस अगर लगातार सरकार का समर्थन जारी रखती तो उसे कोई नुकसान नहीं हो रहा था।
ऐसा नहीं है कि अकेले कांग्रेस पार्टी छटपटा रही थी सरकार का विरोध करने के लिए, उसकी कम से कम दो और सहयोगी पार्टियों ने भी यही गलती की है। तृणमूल कांग्रेस के सांसद यूसुफ पठान को विदेश जाने वाले डेलिगेशन में शामिल किया गया था लेकिन ममता बनर्जी की पार्टी ने कहा कि पठान विदेश दौरे पर नहीं जाएंगे। तृणमूल कांग्रेस ने कहा है कि सरकार कैसे तय करेगी उसकी पार्टी से कौन जाएगा।
सोचें, यह कितनी नासमझी की बात है! एक बार इंदिरा गांधी ने और दूसरी और पीवी नरसिंह राव ने अटल बिहारी वाजपेयी को भारत का नेतृत्व करने के लिए विदेश भेजा था, क्या तब दोनों प्रधानमंत्रियों ने भाजपा को चिट्ठी लिख कर वाजपेयी के नाम की मंजूरी ली थी?
सरकार की ओर से कहा जा रहा है कि उसने सुदीप बंदोपाध्याय से पूछा लेकिन सेहत के आधार पर उन्होंने मना कर दिया। उसके बाद यूसुफ पठान का नाम तय किया गया। इसके पीछे यह सोच हो सकती है कि पठान क्रिकेटर रहे हैं और दुनिया के देशों में लोग उनको जानते होंगे इसलिए वे कुछ कहेंगे तो लोग सुनेंगे। ममता को भी उनके नाम पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए लेकिन उनको भी किसी बहाने सरकार का विरोध करना था।
दूसरी सहयोगी पार्टी उद्धव ठाकरे की शिव सेना है, जिसके नेता संजय राउत ने विदेश जाने वाले डेलिगेशन को ‘बारात’ कहा और विपक्षी पार्टियों से इसका बहिष्कार करने की अपील की। उन्हें शरद पवार ने नसीहत दी है। ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस हो या तृणमूल कांग्रेस या उद्धव ठाकरे की शिव सेना इन पार्टियों को किसी न किसी तरह से सरकार का विरोध करना था इसलिए उन्होंने विरोध शुरू कर दिया है।
यह सही है कि पहलगाम कांड से लेकर सीजफायर तक सरकार से कई गड़बड़ियां हुई हैं। लेकिन विपक्ष ने इन मामलों को जैसे उठाया है, उससे ऐसा लग रहा है कि वह सुरक्षा बलों के खिलाफ खड़ी है या सरकार की हर कूटनीतिक पहल का विरोध कर रही है। कांग्रेस बार बार पुरानी मिसाल दे रही है कि भाजपा ने युद्ध के समय सरकार पर हमला किया था।
लेकिन अब पुराना समय नहीं है। अब हाइपर नेशनलिज्म और सोशल मीडिया का जमाना है। इसमें धारणा विनिर्मित की जाती है। विपक्ष के पास मौका था कि वह हिंदुत्व और राष्ट्रवाद दोनों पर भाजपा के एकाधिकार की धारणा को तोड़े। विपक्ष ने 22 अप्रैल के बाद इसका प्रयास भी किया लेकिन एक महीने से भी कम समय में उसने अपनी लाइन बदल दी।
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