राज्य-शहर ई पेपर व्यूज़- विचार

एक हार से सब कुछ बदल गया

पिछले 23 साल में पहली बार नरेंद्र मोदी हारे हैं। हालांकि भारत में गठबंधन राजनीति की वास्तविकताओं को समझने वाले लोकसभा में 240 सीट मिलने को हार नहीं कहेंगे लेकिन अगर पैमाना नरेंद्र मोदी का प्रदर्शन हो तो वह हार मानी जाएगी। 2001 में गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद 2024 तक 23 साल में विधानसभा या लोकसभा का कोई चुनाव ऐसा नहीं हुआ, जिसमें नरेंद्र मोदी को बहुमत नहीं मिला हो। वे हर चुनाव पहले से ज्यादा सीट लेकर जीतते रहे और पूर्ण बहुमत हासिल कर सरकार बनाते रहे। पहली बार 2024 के लोकसभा चुनाव में उनकी कमान में भाजपा को बहुमत से कम सीटें मिलीं। भाजपा की सीटों की संख्या 303 से घट कर 240 पर आ गई और उनको सहयोगी पार्टियों की मदद से सरकार बनानी पड़ी। अभी नरेंद्र मोदी की पहली गठबंधन सरकार के तीन महीने नहीं हुए हैं और ऐसा लग रहा, जैसे सब कुछ बदल गया है। प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी पूरी तरह से हिले हुए हैं और कोर्स करेक्शन यानी चीजों को ठीक करने के ऐसे प्रयास कर रहे हैं, जिससे स्थिति और हास्यास्पद होती जा रही है। वे अपने ही लोगों के निशाने पर आए हैं। सोशल मीडिया में दक्षिणपंथी विचार रखने वालों ने उनको निशाना बनाना शुरू कर दिया है।

ताजा मामला पुरानी पेंशन योजना की तर्ज पर एकीकृत पेंशन योजना का है। नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल के पहले 10 साल में सरकारी कर्मचारियों के संगठन जेसीएम की बैठक बुलाने या उनसे मिलने की जरुरत नहीं समझी थी। लेकिन बहुमत गंवाने के तीन महीने के भीतर उन्होंने जेसीएम की बैठक बुलाई और पेंशन योजना में एक सुधार कर दिया। अटल बिहारी वाजपेयी ने पुरानी पेंशन योजना को खत्म करके नई पेंशन योजना लागू की थी, जिसमें कर्मचारी और सरकार दोनों एक निश्चित कंट्रीब्यूशन देते थे, जिसे शेयर बाजार में निवेश किया जाता और उससे रिटायर कर्मचारियों को पेंशन मिलती थी। इसकी रकम निश्चित नहीं होती थी।

अब एकीकृत पेंशन योजना के तहत केंद्र सरकार के सभी कर्मचारियों को उनकी बेसिक सैलरी की 50 फीसदी रकम निश्चित पेंशन के रूप में मिलेगी। यह बदलाव मोदी सरकार का ताजा रोलबैक है। क्या मोदी को लग रहा है कि सरकारी कर्मचारियों की नाराजगी के कारण भाजपा को नुकसान हुआ? और क्या इससे वे सरकारी कर्मचारियों की नाराजगी दूर करके सबको साथ ले पाएंगे? ध्यान रहे एक बड़े कर्मचारी संगठन ने इसका विरोध किया है। उन्होंने कहा है कि पुरानी पेंशन योजना की बहाली के लिए आंदोलन चलता रहेगा। यह भी सवाल है कि क्या मोदी ने अब सभी राज्य सरकारों के लिए इस तरह की पेंशन योजना का रास्ता नहीं खोल दिया? क्या इस बात का आकलन किया गया है कि इससे सरकारों पर क्या आर्थिक बोझ पड़ने वाला है?

प्रधानमंत्री मोदी नतीजों के बाद कितने विचलित हैं कि चुनाव के बाद जो सरकार बनी वह जस की तस रिपीट हो गई। सारे जीते हुए वरिष्ठ नेता न सिर्फ मंत्रिमंडल में लौटे, बल्कि सब अपने पुराने मंत्रालयों में ही लौटे। इससे पहले 2019 में जब मोदी दूसरी बार आए थे तब नितिन गडकरी और इक्का दुक्का अपवादों को छोड़ कर कोई भी कैबिनेट मंत्री पुराने मंत्रालय में वापस नहीं लौटा था। इस बार सबको पुराना मंत्रालय मिल गया क्योंकि मोदी निरंतरता दिखाना चाहते हैं। पता नहीं वे क्या दिखाना चाहते हैं लेकिन इसका संदेश यह गया कि वे कमजोर हो गए हैं और पार्टी के बड़े नेताओं के आगे असहाय हैं। ऐसे ही सरकार का पहला बजट पूरी तरह से रूटीन का था, जिसमें कोई नयापन नहीं दिखा और न कोई दृष्टि दिखी। इसी तरह चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ एक अभियान शुरू हुआ और अचानक थम गया। यह समझना भी मुश्किल है कि अचानक वह अभियान क्यों और कैसे शुरू हुआ था और अब अचानक कैसे रूक गया? संदेश यह है कि योगी के सामने मोदी और शाह की नहीं चली और उनका मोहरा यानी केशव प्रसाद मौर्य पिट गए। पता नहीं आगे क्या होगा लेकिन अभी यही संदेश है।

विधायी मामलों में भी सरकार की स्थिति टाइमपास वाली दिख रही है। चुनाव नतीजों से परेशान सरकार ने अपना नैरेटिव सेट करने के लिए वक्फ बोर्ड कानून में बदलाव का विधेयक पेश किया लेकिन उसको भी संयुक्त संसदीय समिति में भेज दिया गया। हो सकता है कि इसके पीछे कोई रणनीति हो। हो सकता है कि सरकार सहमति बनाने के नाम पर विपक्ष की दो चार बातें मान ले और अपने हिसाब से वक्फ बोर्ड कानून में बदलाव कर दे। लेकिन पहली नजर में मैसेज यह गया है कि सरकार बैकफुट पर है और वह अपने कोर एजेंडे की चीजों को भी लागू कराने में सक्षम नहीं है। ध्यान रहे पिछली बार सरकार ने अनुच्छेद 370 समाप्त करने और नागरिकता कानून में संशोधन का मामला फटाफट करा लिया था। इस बार गाड़ी अटक रही है। आगे क्या होगा यह नहीं कहा जा सकता है कि लेकिन जिस तरह से पूत के पांव पालने में दिखने की बात होती है उसी तरह शुरुआत में ही सरकार के बारे में नकारात्मक धारणा बन रही है। यह भी ध्यान रखने की बात है कि राजनीति में सारा खेल तो धारणा का होता है। अगर वह अच्छी नहीं बन रही है तो इसका बड़ा नुकसान होगा क्योंकि सरकार की धारणा बिगड़ने का मतलब है विपक्ष और राहुल गांधी के बारे में धारणा मजबूत होना।

बहरहाल, सरकार ने वक्फ बोर्ड से पहले ब्रॉडकास्टिंग बिल का मसौदा भी बांट कर वापस ले लिया। पता नहीं है इस बिल में क्या था और आगे किस रूप में इसे पेश किया जाएगा लेकिन कुल मिला कर यह मैसेज गया कि सरकार में हिम्मत नहीं हो रही है कि वह अपने हिसाब से सोशल मीडिया को नियंत्रित करने का कानून बना सके। ऐसे ही सरकार की शीर्ष नौकरशाही में लैटरल एंट्री के जरिए बहाली के लिए आए विज्ञापन को वापस लेने से भी सरकार के बैकफुट पर होने का संदेश गया है। इन सब घटनाओं से दक्षिणपंथी बौद्धिकों में खासतौर से नाराजगी बढ़ी है। उनको लग रहा है कि सरकार तमाम प्रगतिशील कदमों से पीछे हट रही है। उनमें इस बात को लेकर भी नाराजगी हुई है कि नसीरूद्दीन शाह और कुछ अन्य चुनिंदा लोगों के विरोध से घबरा कर सरकार ने इजराइल फिल्म फेस्टिवल क्यों रद्द कर दिया। उनको अब इस बात की चिंता हो रही है कि कहीं सरकार समान नागरिक कानून के प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में न डाल दे।

प्रधानमंत्री ने लाल किले से कहा है कि देश को सेकुलर समान नागरिक संहिता की जरुरत है। लेकिन यह संहिता कब आएगी यह किसी को नहीं पता है। दक्षिणपंथी बौद्धिक चिंतकों की निराशा इतनी बढ़ी है कि वे अब यह कहने लगे हैं कि रोलबैक मोदी सरकार क्या अनुच्छेद 370 पर भी पीछे हट सकती है? क्या सीएए को भी छोड़ा जा सकता है, जैसे एनआरसी को छोड़ दिया गया है? यह भी कहा जा रहा है कि अंत पंत मोदी सरकार जाति गणना भी कराएगी और निजी क्षेत्र में आरक्षण भी लागू करेगी, जैसे लैटरल एंट्री के जरिए होने वाले एकल पद की बहाली में भी आरक्षण की बात हो रही है।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

और पढ़ें