भारतीय जनता पार्टी ने 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पारंपरिक राजनीति में कुछ बुनियादी बदलाव शुरू किए थे। 2014 में लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद चार राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए थे। उन चार में जम्मू कश्मीर की स्थिति अलग थी। हालांकि वहां भी भाजपा ने एक प्रयोग किया। लेकिन असली प्रयोग उसने महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में किए। तीनों राज्यों में चुनाव जीतने के बाद भाजपा ने महाराष्ट्र में पारंपरिक राजनीति से हट कर मराठा की बजाय गैर मराठा ब्राह्मण मुख्यमंत्री बनाया। हरियाणा में जाट की बजाय गैर जाट पंजाबी मुख्यमंत्री बनाया और झारखंड में आदिवासी की बजाय गैर आदिवासी साहू मुख्यमंत्री बनाया। 10 साल बाद भी हरियाणा में भाजपा गैर जाट राजनीति करती रही और महाराष्ट्र में भी शिव सेना तोड़ कर मराठा समुदाय के एकनाथ शिंदे को सीएम बनाने के बावजूद उसने अपनी पार्टी में गैर मराठा फड़नवीस का नेतृत्व बनाए रखा। परंतु उसने झारखंड में 2019 का चुनाव हारने के बाद अपनी गैर आदिवासी राजनीति बदल दी। उसने पारंपरिक आदिवासी राजनीति साधने का प्रयास किया, जिस प्रयास में वह औंधे मुंह गिरी है।
भाजपा को ऐसा लगा कि गैर आदिवासी रघुबर दास को मुख्यमंत्री बनाने की वजह से 2019 का चुनाव हारे। इसलिए उसने 2019 के चुनाव के तुरंत बाद रघुबर दास को किनारे कर दिया और बाबूलाल मरांडी की पार्टी का भाजपा में विलय कराया। विलय के तुरंत बाद मरांडी को भाजपा विधायक दल का नेता चुना गया। यह अलग बात है कि मरांडी के दो विधायक कांग्रेस में चले गए और दोनों तरफ से दलबदल का मामला स्पीकर के पास पहुंच गया, जिसकी वजह से मरांडी नेता विपक्ष नहीं बन सके। चुनाव से पहले भाजपा ने दलित समाज के अमर बाउरी को नेता प्रतिपक्ष बनाया और बाबूलाल मरांडी को प्रदेश अध्यक्ष बना कर उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने का मैसेज बनवाया।
भाजपा को यह गलतफहमी थी कि उसने भूल सुधार कर लिया है और दो पड़ोसी राज्यों छत्तीसगढ़ व ओडिशा में आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने से झारखंड में आदिवासी उसको वोट दे देंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उलटे गैर आदिवासी राजनीति के कारण जो समूह भाजपा के साथ ज्यादा मजबूती से जुड़े थे उन्होंने भी साथ छोड़ दिया। इसके अलावा भी भाजपा ने रणनीतिक गलतियां कीं, जिनसे वह 2024 का चुनाव हारी है, उन पर आगे बात करेंगे।
पहले आदिवासी राजनीति पर बात करें तो भाजपा ने रघुबर दास को मुख्यमंत्री बना कर अलग अलग हिस्सों में बंटे आदिवासी समूहों को एक कर दिया। उससे पहले झारखंड के आदिवासी अलग अलग तरह से वोट करते थे। संथाल आदिवासी अलग वोट करते थे तो मुंडा, हो और उरांव आदिवासी अलग वोट करते थे। झारखंड मुक्ति मोर्चा संथाल आदिवासियों की पार्टी मानी जाती थी। तभी 2009 में मुख्यमंत्री रहते शिबू सोरेन दक्षिणी छोटानागपुर की तमाड़ सीट से उपचुनाव हार गए थे। वहां के मुंडा, उरांव और पातर आदिवासियों ने उनको वोट नहीं दिया था। परंतु 2014 के बाद यह स्थिति बदल गई। रघुबर दास को मुख्यमंत्री बनाने के बाद मोटे तौर पर सारे आदिवासी समूह एक हो गए।
2019 के चुनाव में इसका असर दिखा, जब हो आदिवासी वाले कोल्हान में भाजपा का खाता नहीं खुला। उसे 14 में से एक भी सीट नहीं मिली। वह राज्य की कुल 28 आदिवासी आरक्षित सीटों में से सिर्फ दो जीत पाई। इसी को ठीक करने के लिए उसने बाबूलाल मरांडी को प्रदेश का सर्वोच्च नेता बनाया। लेकिन आदिवासी समुदाय ने गांठ बांधी थी। इस बीच भाजपा ने एक और रणनीतिक गलती यह कर दी कि उसने हेमंत सोरेन को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। साथ ही उनकी पार्टी तोड़ने का प्रयास किया। हेमंत ने जेल जाने के बाद जिन चम्पई सोरेन के मुख्यमंत्री बनाया था उनको भाजपा में शामिल कर लिया। इन सबकी ऐसी प्रतिक्रिया हुई कि भाजपा इस बार सिर्फ एक आदिवासी सीट जीत पाई और वह भी चम्पई सोरेन की है। यानी उसके अपने तमाम आदिवासी नेता चुनाव हार गए।
आदिवासी वोट आकर्षित करने के लिए किया गया अत्यधिक प्रयास भाजपा को भारी पड़ गया। उसने चम्पई सोरेन को पार्टी में लेकर उनको और उनके बेटे को टिकट दिया। पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा की पत्नी को टिकट दिया और एक अन्य पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी को भी टिकट दिया। भाजपा के आदिवासी प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय अध्यक्ष समीर उरांव को भी चुनाव लड़ाया। शिबू सोरेन की बहू सीता सोरेन को पार्टी में लाकर उनको भी टिकट दिया। हालांकि पार्टी बाबूलाल मरांडी को किसी आदिवासी आरक्षित सीट से लड़ने के लिए तैयार नहीं कर पाई। वे सामान्य सीट से ही चुनाव लड़े। वे तो जीत गए लेकिन सारे आदिवासी नेता चुनाव हार गए। ऊपर से आदिवासी वोटों के लिए बहुत प्रयास करते दिखने से भाजपा ने दूसरे समूहों में अपना समर्थन गंवाया। एक तरफ जहां आदिवासी वोट पूरी तरह से जेएमएम के साथ गोलबंद हुए तो आदिवासी के साथ साथ गैर आदिवासी समूहों का बड़ा हिस्सा उसकी सहयोगी पार्टियों कांग्रेस, राजद और लेफ्ट के साथ चला गया।
भाजपा की एक और रणनीतिक गलती यह हुई कि उसने आदिवासी के बाद दूसरे सबसे बड़े वोट सदान यानी कुड़मी को अपने साथ जोड़ने का प्रयास नहीं किया। उसने इस वोट को बांटने का प्रयास किया। हालांकि 2019 से उलट 2024 में भाजपा ने सुदेश महतो की पार्टी आजसू से तालमेल कर लिया था लेकिन उसने एक नई परिघटना के तौर पर उभर रहे जयराम महतो को रोकने की बजाय उन्हें आगे बढ़ने में मदद की। ऐसी आम धारणा है कि भाजपा ने झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा के 29 साल के जयराम महतो को परदे के पीछे से मदद की। उनके जरिए भाजपा को जेएमएम का महतो वोट तोड़ने और अपने सहयोगी सुदेश महतो को काबू में रखने का भरोसा था।
लेकिन यह दांव उलटा पड़ गया। 2019 में जिस तरह से सुदेश महतो ने आठ फीसदी वोट काट कर भाजपा को एक दर्जन सीटें हरवा दी थीं। उसी तरह 2024 में जयराम महतो ने सात फीसदी वोट काट कर भाजपा को 13 सीटें हरवा दीं। 13 सीटों पर उनकी पार्टी को इतने वोट मिले, जो भाजपा की हार के अंतर से बहुत ज्यादा थे। जयराम महतो ने भाजपा और आजसू को बेरमो, सिल्ली, बोकारो, गोमिया, गिरिडीह, टुंडी, ईचागढ़, तमाड़, चक्रधरपुर, चंदनक्यारी, सिंदरी, कांके और खरसावां में हरवा दिया। इसमें सुदेश महतो की भी सीट है और भाजपा की कई मजबूत सीटें हैं। रांची शहर की सीट है कांके, जहां भाजपा का उम्मीदवार 968 वोट से हारा और जयराम महतो के उम्मीदवार को करीब 26 हजार वोट मिले।
भाजपा ने एक और रणनीतिक गलती यह कर दी कि काटो बांटो की राजनीति ज्यादा कर दी। इससे संथालपरगना में उसको फायदे की उम्मीद थी लेकिन आदिवासी, मुस्लिम का ध्रुवीकरण पहले से ज्यादा हो गया और भाजपा चार से घट कर एक सीट पर आ गई। यानी चौबे से छब्बेजी बनने गए थे और दुबे जी बन कर रह गए। जिस तरह से आक्रामक अंदाज में हेमंत सोरेन ने आदिवासी राजनीति की थी और जिस तरह से आदिवासी, ईसाई और मुस्लिम का ध्रुवीकरण हो रहा था उसके बरक्स भाजपा को गैर आदिवासी ध्रुवीकरण के लिए जाना चाहिए था, जैसा उसने हरियाणा में गैर जाट और महाऱाष्ट्र में गैर मराठा की राजनीति की। उसे अपने सवर्ण वोट के साथ दलित और ओबीसी को जोड़ने का प्रयास करना चाहिए था। परंतु वह 28 आदिवासी आरक्षित सीटों की चिंता में डूबी रही, जिसमें से उसको सिर्फ एक सीट मिली है।
हालांकि इस तरह एक जाति के खिलाफ दूसरी जातियों को खड़ा कर विभाजन की राजनीति है, जिससे अंततः समाज विभाजित होता है लेकिन भारत में राजनीति इसी गणित से चलती है। चुनाव जीतने के बाद भाजपा आदिवासी हितों के लिए भी काम करती रह सकती थी। लेकिन चुनाव के समय वह गैर आदिवासी राजनीति पर फोकस करती तो उसके जीतने के चांस ज्यादा होते। आखिर झारखंड में आदिवासी और मुस्लिम आबादी 38 फीसदी के करीब है और 62 फीसदी गैर आदिवासी व गैर मुस्लिम आबादी है। अगर भाजपा इस 62 फीसदी की राजनीति करती और इस दुष्प्रचार का प्रभावी जवाब देती कि सरना आदिवासी हिंदू नहीं हैं तो उसे ज्यादा लाभ होता।