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राजनीतिक रूपकों को बदलने की जरुरत

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राजनीति में इस्तेमाल होने वाले कई मेटाफर यानी रूपक रूढ़ हो गए हैं। हैरानी की बात है कि ये गलत अर्थ में रूढ़ हो गए हैं फिर भी उनको बार बार दोहराया जाता है। कुछ मामलों में उनका असल में कोई अर्थ नहीं होता है, बल्कि कई बार तो राजनीति में इस्तेमाल होने वाले रूपक अनर्थकारी होते हैं। फिर भी अनजाने में पार्टियां और नेता ही नहीं, बल्कि राजनीतिक विश्लेषक भी उन्हें दोहराते रहते हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव के प्रचार में ऐसे कई राजनीतिक रूपकों का इस्तेमाल हो रहा है।

एक दूसरे पर हमला करने के लिए पार्टियां इनका इस्तेमाल कर रही हैं। कुछ अन्य रूपक ऐसे हैं, जिनका इस्तेमाल दिल्ली के चुनाव में नहीं हो रहा है लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले हुए विधानसभाओं के चुनाव में हुआ। कुछ रूपक ऐसे हैं, जिनका इस्तेमाल गठबंधन की राजनीति शुरू होने के बाद शुरू हुआ और अब भी हो रहा है। हम ऐसे ही कुछ रूपकों की बात करेंगे, जिनको बदलने या जिनका इस्तेमाल बंद कर देने की जरुरत है।

पहला, रूपक ‘बी टीम’ का है। दिल्ली विधानसभा में इस रूपक का इस्तेमाल हो रहा है। आम आदमी पार्टी इसका इस्तेमाल कांग्रेस के लिए कर रही है। आप नेताओं का कहना है कि भाजपा की बी टीम के तौर पर कांग्रेस चुनाव लड़ रही है। आप के ऐसा कहने के पीछ यह तर्क है कि कांग्रेस पार्टी को जो भी वोट मिलेगा वह आम आदमी पार्टी का वोट होगा और वह वोट टूटने का फायदा भाजपा को होगा।

इसका मतलब है कि बी टीम का सिद्धांत इस बात पर आधारित है कि दो समान वोट आधार या दो समान विचार वाली पार्टियां जब एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ती हैं तो उसका फायदा दूसरी विचारधारा वाली या दूसरे वोट आधार वाली पार्टी को होता है। लेकिन क्या भारत जैसे बहुदलीय प्रणाली वाले देश में ऐसा होना संभव है कि पार्टियां इस वजह से चुनाव ही नहीं लड़ें कि उनके लड़ने से किसी को फायदा या किसी को नुकसान होगा? यहां का बुनियादी सिद्धांत यह है कि सब अपने लिए लड़ते हैं और उसमें किसी को फायदा या नुकसान हो जाता है तो वह अलग बात है। बी टीम कहे जाने के डर से कोई पार्टी चुनाव लड़ना नहीं छोड़ सकती है।

भारतीय राजनीति में अगर इस रूपक को एक सिद्धांत के रूप में अख्तियार किया जाएगा तो उसका सीधा मतलब होगा कि दो दलीय प्रणाली अपनाई जाए। अगर ऐसा नहीं होगा तो फिर हर चुनाव में कई पार्टियों को किसी दूसरी पार्टी की बी टीम कहा जाएगा। जिस सिद्धांत के आधार पर आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में कांग्रेस को भाजपा की बी टीम कहा है उसी आधार पर हरियाणा में आम आदमी पार्टी को भाजपा की बी टीम कहा जा रहा था। उसी आधार पर गुजरात और गोवा में भी आम आदमी पार्टी भाजपा की बी टीम थी। आम आदमी पार्टी पहली बार यानी दिसंबर 2013 में दिल्ली का विधानसभा चुनाव लड़ी थी तब उसे भाजपा और संघ की बी टीम कहा जा रहा था।

इसी सिद्धांत के आधार पर हर जगह चुनाव लड़ रही तीसरी या चौथी पार्टी को पहली या दूसरी पार्टी की बी टीम कहा जा सकता है। जैसे असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम जहां भी चुनाव लड़ती है वहां भाजपा विरोधी पार्टियां उसको भाजपा की बी टीम कहती हैं क्योंकि उसके लड़ने से भाजपा को फायदा होता है या फायदा होने की धारणा बनती है। परंतु ऐसे ही बी टीम की राजनीति करते करते पार्टी ने हैदराबाद से निकल कर आधा दर्जन राज्यों में अपना मजबूत आधार बना लिया। ऐसे ही अगर महाराष्ट्र के बाहर कहीं शिव सेना चुनाव लड़े तो उसको भाजपा विरोधी पार्टी की बी टीम कहा जा सकता है। अगर एक सिद्धांत के रूप में बी टीम के रूपक को अपना लिया गया तो इसका मतलब होगा कि कोई भी प्रादेशिक पार्टी अपने राज्य से बाहर निकल कर चुनाव न लड़े। राष्ट्रीय पार्टियां भी चुनाव लड़ने से पहले या तो तालमेल करें या फिर किसी न किसी की बी टीम बतलाए जाने के लिए तैयार रहें। जाहिर है यह एक त्रुटिपूर्ण रूपक है।

दूसरा, रूपक है ‘दूल्हा कौन है’? दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने यह बात भाजपा से पूछी है। यहां तक कि आप की ओर से बारात में जाने वाली सजी सजाई घोड़ी की फोटो शेयर की गई है, जिसके ऊपर कोई दूल्हा नहीं बैठा है। अब सोचें क्या दिल्ली के लोग दूल्हा चुनने के लिए वोट डाल रहे हैं? कोई दुल्हन कहीं है, जो वरमाला लेकर खड़ी है और एक घोड़ी पर सवार अरविंद केजरीवाल आ रहे हैं और दूसरी सजी सजाई घोड़ी खाली आ रही है? यह सिर्फ आम आदमी पार्टी का मामला नहीं है।

लोकसभा चुनाव में यही सवाल भारतीय जनता पार्टी कर रही थी। भाजपा के नेता कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन से पूछ रहे थे कि दूल्हा कौन है? आपकी ओर से प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का दावेदार कौन है या आपका नेतृत्व कौन कर रहा है जैसे सवाल तो पूछे जा सकते हैं लेकिन चुनाव कोई विवाह समारोह नहीं होता है कि पार्टियों को दूल्हा लेकर जाना पड़े। न तो दिल्ली कोई वधू है और न भारत कोई वधू है, जिसके लिए लोगों को दूल्हा चुनना होता है। यह तो वैसे ही बहुत अनैतिक रूपक है। लेकिन अगर सांस्कृतिक व सामाजिक संदर्भ में देखें तो भारत में दूल्हा दूल्हन का जन्म जन्मांतर का साथ होता है लेकिन राजनीति में तो हर समय दूल्हे बदलते रहते हैं।

तीसरा, ‘बड़ा भाई और छोटा भाई’ का रूपक है। गठबंधन की राजनीति शुरू होने के बाद यह रूपक गढ़ा गया। चाहे केंद्रीय चुनाव हो या राज्यों का, जो बड़ी पार्टी होती है उसको बड़ा भाई कहा जाता है और कम सीटों पर लड़ने वाली पार्टी को छोटा भाई कहा जाता है। वैसे तो समाज में भी संबंधों के निर्वाह का कोई मतलब नहीं रह गया है। लेकिन राजनीति में तो सब कुछ दांव पेंच से चलता है तो वहां बड़े भाई और छोटे भाई जैसे पवित्र संबंध की कोई जगह कैसे हो सकती है। लेकिन सबसे दिलचस्प यह बात है कि वास्तविक जीवन में एक बार जो बड़ा भाई होता है वह जीवन भर बड़ा भाई ही रहता है। लेकिन राजनीति में कब बड़ा भाई छोटा भाई बन जाए पता ही नहीं चलता है।

जैसे महाराष्ट्र में दशकों तक शिव सेना बड़ा भाई थी और भाजपा छोटा भाई थी लेकिन आज भाजपा बड़ा भाई है और छोटे भाई का बंटवारा होकर दो छोटे छोटे भाई बन गए हैं। हरियाणा में भी इंडियन नेशनल लोकदल बड़ा भाई थी और भाजपा छोटा भाई। लेकिन अब छोटा भाई बहुत बड़ा हो गया और बड़े भाई के टुकड़े हो गए। बिहार में जदयू और भाजपा के संबंध भी ऐसे ही बदले हैं। हालांकि वहां एक उलटबांसी भी है। लालू प्रसाद के बड़े बेटे का नाम तेज प्रताप यादव है और छोटे का तेजस्वी यादव। लेकिन कागजों में बड़ा बेटा यानी तेज प्रताप अपने छोटे भाई तेजस्वी से छोटे हैं। यानी छोटा भाई बड़ा है और बड़ा भाई छोटा!

बहरहाल, चौथा, ‘सेमीफाइनल’ का रूपक है। यह रूपक खेलों से लिया गया है। लेकिन असल में राजनीति में सेमीफाइनल जैसा कुछ नहीं होता है। खेलों में सेमीफाइनल होता है और उसमें जीतने वाली टीम या खिलाड़ी ही फाइनल खेलते हैं। यानी जो सेमीफाइनल हार जाता है वह फाइनल नहीं खेलता है। वह मुकाबले से बाहर हो जाता है। लेकिन यह नियम राजनीति में तो लागू नहीं होता है।

राजनीति में हमेशा ऐसा होता है कि सेमीफाइनल हारने वाला भी फाइनल खेलता है और कई बार तो ऐसा भी होता है कि सेमीफाइनल हारने वाला फाइनल जीत जाता है। इसलिए किसी भी मुकाबले को सेमीफाइनल बताने का कोई मतलब नहीं है। लेकिन यह बेमतलब की बात सारे राजनीतिक विश्लेषक करते हैं और पार्टी भी करती हैं।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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