यह सवाल अजीब लग सकता है कि जब विपक्षी पार्टियों के साझा उम्मीदवार चुनाव हार गए तो भला विपक्ष को क्या मिलेगा? लेकिन ऐसा नहीं है कि विपक्ष पूरी तरह से खाली हाथ रहा। इस चुनाव से विपक्ष की एकजुटता को ताकत मिली है। विचारधारा की लड़ाई का नैरेटिव कायम रहा और गठबंधन की डोर भी मजबूती से पार्टियों को बांधे रही। मतदाता सूची कि विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर के बाद यह दूसरा मसला था, जिस पर विपक्ष की एकता दिखी। संसद के मानसून सत्र के बाद इस पर सवाल उठ रहे थे कि सत्र के दौरान बनी एकता आगे की राजनीति में कैसे दिखेगी।
मानसून सत्र में एसआईआर पर पूरी एकता रही। सभी पार्टियों को पता है कि इस मसले पर देश भर में लड़ाई लड़नी है इसलिए वे एकजुट रहे। इसके बाद उप राष्ट्रपति चुनाव ने भी विपक्ष को एक रखा। कम से कम घोषित तौर पर विपक्षी गठबंधन यानी ‘इंडिया’ ब्लॉक के किसी भी दल ने यह नहीं कहा कि वह एनडीए के उम्मीदवार का समर्थन करेगा। यह बहुत बड़ी बात है।
इससे पहले देश ने देखा है कि कैसे 2022 के राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी गठबंधन के एक बड़े घटक दल झारखंड मुक्ति मोर्चा ने ऐलान करके एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को समर्थन दिया। झारखंड में कांग्रेस के 16 में से करीब एक दर्जन विधायकों ने विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा की बजाय द्रौपदी मुर्मू के लिए मतदान किया, जबकि यशवंत सिन्हा झारखंड के ही रहने वाले हैं। उससे पहले देश ने यह भी देखा कि कैसे कांग्रेस के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को शिव सेना ने समर्थन दिया। इस बार भी उस तरह की संभावना बन रही थी। एनडीए ने तमिलनाडु के भाजपा नेता सीपी राधाकृष्णन को उम्मीदवार बनाय़ा तो उसके पीछे अगले साल होने वाले तमिलनाडु विधानसभा चुनाव की रणनीति तो ही साथ ही यह सोच भी थी कि इससे कांग्रेस की सहयोगी डीएमके और दूसरे प्रादेशिक दलों पर दबाव बनेगा।
लेकिन यह दांव नहीं चला। डीएमके और उसकी सहयोगी पार्टियों ने कम से कम ऐलान करके राधाकृष्णन का समर्थन नहीं किया। हो सकता है कि जो वोट अमान्य हुए हैं या करीब 15 सांसदों ने क्रॉस वोटिंग की है उसमें कुछ सांसद तमिलनाडु के हों लेकिन किसी ने घोषणा करके यह काम नहीं किया। यह मामूली बात नहीं है कि विपक्षी गठबंधन को 40 फीसदी वोट मिले और जीत का अंतर सिर्फ 152 वोट का रहा। यह इतिहास का दूसरा सबसे कम वोट के अंतर का चुनाव रहा।
इसका अर्थ है कि चुनाव कहीं न कहीं विचारधारा या गठबंधन की राजनीति पर केंद्रित रहा। न तो क्षेत्रीयता हावी हुई और न जाति की कोई बात हुई। ध्यान रहे विपक्षी गठबंधन की ओर से बार बार कहा जा रहा है, खास कर कांग्रेस नेता राहुल गांधी की ओर से कि भाजपा के खिलाफ लड़ाई विचारधारा की है। राहुल और विपक्षी गठबंधन के दूसरे नेता बार बार भाजपा के साथ आरएसएस का भी जिक्र इसलिए करते हैं ताकि विचारधारा की लड़ाई का नैरेटिव स्थापित किया जा सके। इसी विचारधारा की लड़ाई का विस्तार संविधान बचाने की लड़ाई है। विपक्ष यह भी कहता है कि भाजपा और आरएसएस संविधान खत्म कर देंगे, जबकि विपक्ष उसे बचाना चाहता है।
विपक्ष के उम्मीदवार जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी को सेकुलर और संविधान बचाने वाले व्यक्ति के तौर पर ही पेश किया गया। तभी उप राष्ट्रपति चुनाव में दोनों तरफ से किसी ने क्षेत्र के मुद्दे पर या दूसरे किसी मुद्दे पर मतदान नहीं किया। न तो तेलुगू उम्मीदवार देकर विपक्ष आंध्र प्रदेश व तेलंगाना की पार्टियों को तोड़ सका और न तमिल उम्मीदवार देकर एनडीए तमिलनाडु के वोट में ज्यादा सेंधमारी कर सका। विचारधारा के साथ साथ यह भी दिखा कि पार्टियां गठबंधन धर्म से बंधी रहीं। इक्का दुक्का सांसदों को छोड़ दें, जिन्होंने क्रॉस वोटिंग की होगी या वोट अमान्य कराया होगा, तो मोटे तौर पर पार्टियां गठबंधन की डोर से बंधी रहीं। अगर विपक्ष इस एकजुटता को बनाए रखता है तो इससे राज्यों में उसकी ताकत बढ़ेगी और विपक्ष की यह एकजुटता थोड़े समय के बाद सरकार और सत्तारूढ़ गठबंधन के लिए बड़ा सिरदर्द बनेगी।
विपक्ष को क्या हासिल हुआ या क्या मिला के बाद सवाल है कि क्या मिल सकता था, जो नहीं मिला। उप राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष की एक बड़ी रणनीतिक भूल यह रही कि उसने अपना नैरेटिव सेट करने का प्रयास नहीं किया। विपक्ष को पता था कि उसका उम्मीदवार चुनाव हारेगा। कोई समझदार व्यक्ति सोच भी नहीं सकता है कि संसद में सरकार के पास जिस तरह का बहुमत है उसमें कोई उम्मीदवार सत्तारूढ़ दल के उम्मीदवार को हरा सकता है। इसलिए जब नतीजा पहले से तय था तो विपक्ष को ज्यादा आक्रामक अंदाज में यह चुनाव लड़ना चाहिए था। इसकी शुरुआत पहले उम्मीदवार तय करने से हो सकती थी। विपक्ष ने भाजपा के उम्मीदवार तय करने का इंतजार किया और उसके बाद अपना उम्मीदवार घोषित किया।
यह गलत रणनीति थी। अगर विपक्ष पहले उम्मीदवार घोषित करता तो भाजपा को उसके हिसाब से रणनीति बदलनी होती। अगले साल तमिलनाडु में चुनाव है, अगर विपक्ष खुद ही तमिलनाडु से उम्मीदवार उतार देता तो एनडीए को सोचना पड़ता। आखिर पिछले चुनाव में यानी 2022 में विपक्ष ने कर्नाटक की मारग्रेट अल्वा को उम्मीदवार बनाया था, भले उनको 25 फीसदी ही वोट मिले लेकिन कांग्रेस ने 2023 का कर्नाटक का चुनाव जीत लिया। यह नहीं कह सकते हैं कि ऐसा मारग्रेट अल्वा की वजह से हुआ लेकिन उसमें एक रणनीति दिखी थी।
इस बार कोई रणनीति नहीं दिखी। एनडीए ने जब तमिलनाडु का चुनाव देखते हुए वहां से उम्मीदवार उतार दिया तो विपक्ष ने तेलंगाना से उम्मीदवार क्यों चुना यह समझ में नहीं आया। उससे क्या हासिल होना था? ध्यान रहे विपक्ष की एकता जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी के कारण कायम नहीं रही, बल्कि भाजपा की विचारधारा के विरोध की राजनीति के कारण कायम रही। इसका अर्थ है कि विपक्ष चाहे, जिसको उम्मीदवार बनाता, उसके समर्थन में एकजुटता बनी रहती। अगर तमिलनाडु चुनाव की वजह से भाजपा ने वहां के नेता को उम्मीदवार बनाया तो विपक्ष बिहार के चुनाव को देखते हुए वहां के किसी पिछड़े, अतिपिछड़े या दलित नेता को उम्मीदवार बना सकता था। पश्चिम बंगाल और असम के किसी नेता को उम्मीदवार बना सकता था, जहां अगले साल चुनाव हैं। तेलंगाना में 2028 में और आंध्र प्रदेश में 2029 में विधानसभा चुनाव होने हैं। तभी तेलंगाना के एक रिटायर जज को लड़ाने का कोई स्पष्ट राजनीतिक कारण समझ में नहीं आता है। अगर विपक्ष पहले उम्मीदवार देता, अपनी रणनीति के हिसाब से उम्मीदवार देता और अपना नैरेटिव बनाता तो हो सकता है कि उसे ज्यादा लाभ होता। फिर भी कह सकते हैं कि विपक्ष चुनाव हार कर भी अपना किला बचाए रखने में सफल रहा।