कांग्रेस और भाजपा विरोधी दूसरी पार्टियों ने बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के सम्मान का मुद्दा बनाया है। संसद में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के दिए एक बयान के खिलाफ सभी विपक्षी पार्टियां अपने अपने हिसाब से आंदोलन चला रही है। दूसरी ओर भाजपा यह साबित करने में लगी है कि अंबेडकर के लिए जितना प्रेम और सम्मान उसके मन में है उतना किसी के मन में नहीं है। अंबेडकर को भारत रत्न दिलाने से लेकर उनकी मूर्तियां लगाने, उनके नाम पर इमारतें बनवाने और उनके नाम पर तीर्थ विकसित करने के दावे भाजपा कर रही है। Dalit politics
भाजपा और कांग्रेस में इस बात की जंग छिड़ी है कि किसने अंबेडकर का अपमान किया और किसने सम्मान दिया। इस झगड़े में अरसे बाद मायावती की बहुजन समाज पार्टी प्रदर्शन करने उतरी। बसपा के नेताओं, कार्यकर्ताओं ने मौन प्रदर्शन किया और अमित शाह के बयान के खिलाफ रोष प्रकट किया। अरविंद केजरीवाल तो काफी समय से महात्मा गांधी की जगह अंबेडकर की तस्वीर लगा कर राजनीति कर रहे है। अन्य प्रादेशिक पार्टियां भी अंबेडकर के नाम की राजनीति में किसी न किसी तरह से डूबकी लगा रही है।
अंबेडकर और दलित राजनीति: समाजिक जागरण का राजनीतिक असर
भारतीय राजनीति में एक परिघटना के तौर पर अंबेडकर का नए सिरे से उदय और भगवान से भी ऊंचे आसन पर उनको बैठाने की होड़ सिर्फ राजनीतिक स्तर पर नहीं हो रही है। सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी इसी तरह की जागृति आई हुई है। दलित नौजवान सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अपने को अभिव्यक्त कर रहे हैं। अंबेडकर को लेकर गाने लिखे जा रहे हैं और कन्सर्ट में उन्हें गाया जा रहा है। सवाल है कि इस राजनीतिक व सामाजिक पुनर्जागरण का लाभ किसको मिलेगा?
क्या उन पार्टियों को इसका लाभ मिलेगा, जिनके नेता दलित हैं या मुख्यधारा की बड़ी पार्टियां यानी गैर Dalit politics वाली पार्टियों को ही इसका फायदा मिलेगा? ध्यान रहे मंडल की राजनीति शुरू होने के बाद पिछड़ी जातियों ने मोटे तौर पर राजनीति की कमान अपने हाथ में रखी। व्यापक रूप से पिछड़ी जातियों ने अपने नेताओं के चेहरे देख कर वोट किए। जिस तरह से एक समय अटल बिहारी वाजपेयी की चेहरे पर भाजपा ने कांग्रेस से उसका ब्राह्मण वोट छीना था उसी तरह बाद के समय में उसने अपने पिछड़े नेताओं के चेहरे पर ओबीसी वोट एकजुट किया। खास कर उन राज्यों में, जहां पिछड़े नेताओं की प्रादेशिक पार्टियों को बहुत स्पेस नहीं मिल पाया था। पिछड़ी जातियों की इस लक्षित राजनीति का फायदा यह हुआ कि हर राज्य में सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक स्थान पिछड़ी जातियों के नेताओं ने हासिल किया।
दलित राजनीति की दिशा: क्या खुद का नेतृत्व बनाएंगे या गैर-दलित नेताओं पर निर्भर रहेंगे?
यही काम मुस्लिम नहीं कर पाए तो पूरे देश में करीब 15 फीसदी आबादी होने के बावजूद उनकी राजनीति गैर मुस्लिम नेताओं के हाथ में रही। मुस्लिम आबादी की राजनीति पहले कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियां करती रहीं। फिर मंडल की राजनीति के बाद पिछड़ी जातियों के नेता करते रहे और साथ ही कांग्रेस से अलग हुई पार्टियों के नेता भी मुस्लिम राजनीति हैंडल करते रहे। दिल्ली में घनघोर राष्ट्रवादी और हिंदुवादी सोच के अरविंद केजरीवाल के पीछे भी मुस्लिम गोलबंद हुए क्योंकि उनका एकमात्र लक्ष्य भाजपा को रोकना था। उन्होंने अपना नेतृत्व आगे करने की वैसी लक्षित राजनीति नहीं की, जैसी पिछड़ी जातियों ने की। Dalit politics
इसलिए भाजपा के अखिल भारतीय उभार के साथ ही संसद और विधानसभाओं में मुस्लिम प्रतिनिधित्व कम होता गया। दूसरी ओर मुस्लिम नेतृत्व या तो जेल में सिसक रहा है या हाशिए पर है। सो, यह देखना दिलचस्प होगा कि दलित राजनीति क्या दिशा लेती है? दलित मतदाता गैर दलित नेतृत्व में अपना मसीहा देखते हैं या बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की तरह अपना नेता बनाने का प्रयास करते हैं!
दलित राजनीति: प्रतिनिधित्व से अधिक जरूरी है निर्णायक नेतृत्व की ताकत
जहां तक दलित प्रतिनिधित्व की बात है तो वह मुस्लिम की तरह कम नहीं हो सकता है क्योंकि संविधान के जरिए लोकसभा और विधानसभा में उनके लिए सीटें आरक्षित की गई हैं। अगर सीटें आरक्षित नहीं होतीं तो उनका प्रतिनिधित्व भी पूरी तरह से सिमट गया होता। इस बात को समझने के लिए राज्यसभा और विधान परिषदों में दलित प्रतिनिधियों की संख्या को देखा जा सकता है। सो, संविधान की व्यवस्था की वजह से दलित प्रतिनिधित्व कम नहीं होगा। परंतु क्या इससे दलित राजनीति और दलित नेतृत्व मजबूत होगा? सिर्फ प्रतिनिधित्व से यह संभव नहीं है। दलित वोटों की मसीहाई करने वाले लोग प्रतीकात्मक राजनीति करेंगे। Dalit politics
यह गिनती कराएंगे कि इतने दलितों को टिकट दी या इतने दलितों को मंत्री बनाया या दलित सांसद को लोकसभा में अगली कतार में बैठाने के लिए दबाव बनाया या किसी दलित को पार्टी का अध्यक्ष, महासचिव आदि बना दिया। इससे दलित राजनीति उस मुकाम के आसपास नहीं पहुंचेगी, जहां तक आबादी के हिसाब से उसे पहुंचना चाहिए था। कहने का आशय यह है कि दलित नेता राजनीति में उस तरह की निर्णायक ताकत नहीं बन पाएंगे, जैसी ताकत मायावती बनी थीं।
दलित राजनीति की दिशा: समरूपता से विभाजन तक का सफर
सो, कह सकते हैं कि पहली समस्या दिशा की है। अपनी सामर्थ्य को और मौजूदा जागृति को किस दिशा में ले जाना है, जिससे राजनीतिक शक्ति बढ़े और नेतृत्व स्थापित हो, यह पहली चुनौती है। इसके लिए तमाम दलित नेताओं को मुस्लिम राजनीति को पढ़ना छोड़ कर पिछड़ी राजनीति के ज्यादा नहीं सिर्फ पिछले चार दशक के इतिहास को पढ़ने और समझने की जरुरत है। किस तरह से पिछड़े नेताओं ने पोजिशनिंग की और अलग अलग जातियों में बंटे समुदाय को वोट डालने के लिए एक प्लेटफॉर्म पर ले आए उसको समझना होगा। यह अलग बात है कि अब उसमें भी विभाजन हुआ है लेकिन एक मुकाम के बाद यह अवश्यंभावी होता है।
अभी सिद्धांत रूप में यह माना जाता है कि दलित एक समरूप यानी होमोजेनस समुदाय है। इसी आधार पर आरक्षण के वर्गीकरण के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध हो रहा है। सामाजिक स्तर पर हो सकता है कि एक किस्म की समरूपता हो लेकिन राजनीतिक स्तर पर तो बहुत गहरा विभाजन है। बाबा साहेब अंबेडकर, बाबू जगजीवन राम और कांशीराम की कड़ी में समकालीन इतिहास की सबसे बड़ी दलित नेता मायावती हुईं लेकिन दुर्भाग्य से वे भी अब एक खास जाति की नेता बन कर रह गई हैं। यह दलित राजनीति के चरम पर पहुंचने से पहले ही बिखर जाने की मिसाल है।
दलित नेतृत्व की सीमित जगह: संघर्ष और सहारे की राजनीति
उत्तर प्रदेश कांशीराम के प्रयोग की धरती थी, जहां मायावती के नेतृत्व में उनका प्रयोग सफल हुआ। परंतु यह सफलता ज्यादा समय तक कायम नहीं रह सकी। 2012 के बाद से लगातार एक नेता के तौर पर मायावती और एक पार्टी के तौर पर बसपा कमजोर होती गई है। उनकी जगह लेने के लिए आजाद समाज पार्टी बना कर चंद्रशेखर आजाद आगे आए हैं लेकिन उनको आगे बढ़ने के लिए सहारे की जरुरत है। बिहार में पिछड़े नेताओं ने कभी भी दलित नेतृत्व को मजबूत नहीं होने दिया। रामविलास पासवान बड़े नेता थे लेकिन वे सिर्फ पासवान के नेता बन कर रह गए। नीतीश कुमार ने दलित और महादलित का विभाजन बनवा कर यह सुनिश्चित किया है कि पासवान के नेता चिराग पासवान रहें, मांझी के नेता जीतन राम मांझी रहें, पासी के नेता अशोक चौधरी रहें। Dalit politics
जिन राज्यों में राजनीति की कमान मजबूत जातियों के हाथ में रही वे भी किसी न किसी तरह से दलित नेतृत्व को रोकते रहे हैं। मिसाल के तौर पर पंजाब को ले सकते हैं, जहां दलित आबादी लगभग 33 फीसदी है लेकिन कांग्रेस ने दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना कर चुनाव लड़ा तो उसने जाट सिख का समर्थन गंवा दिया और नतीजा यह हुआ कि आम आदमी पार्टी चुनाव जीत गई। यही वजह है कि प्रादेशिक पार्टियों दलित नेता बहुत सीमित स्पेस में अपनी राजनीति कर रहे हैं और किसी न किसी के सहारे अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस संघर्ष में उन्हें कहीं पिछड़ों का विरोध झेलना है तो कहीं अगड़ों का और कहीं मुसलमानों का। Dalit politics
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अगर दलित नेता कोई कनफेडरेशन बनाते हैं, अपनी मोलभाव की ताकत बढ़ाते हैं और बाकी समूहों के अंतर्विरोधों का फायदा उठाने की साझा राजनीति करते हैं तभी स्वतंत्र नेतृत्व स्थापित होने या आबादी के अनुपात में राजनीतिक शक्ति प्राप्त होने की संभावना बनती है।