राजनीतिक चंदे के लिए बनाई गई चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था विफल हो गई है। चुनावी चंदे को साफ-सुथरा बनाने और राजनीति में काले धन का प्रवाह रोकने के घोषित उद्देश्य से लाया गया यह कानून अपने उद्देश्य में पूरी तरह से असफल रहा है। उलटे इससे जुड़े अनेक ऐसे तथ्य सामने आ रहे हैं, जिससे लग रहा है कि यह अपने आप में काले धन के प्रसार का माध्यम बन गया था। हैरानी इस बात को लेकर है कि सरकार के स्तर पर इसकी विफलता को स्वीकार करने की बजाय इसका बचाव किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जब से इसका ब्योरा सामने आया है तब से इसके अपने उद्देश्य में विफल रहने की धारणा को प्रमाणित करने वाली कहानियां सामने आ रही हैं लेकिन दूसरी ओर उसी तीव्रता के साथ सरकार की तरफ से इसका बचाव किया जा रहा है।
नितिन गडकरी जैसे केंद्रीय मंत्री भी दावा कर रहे हैं कि चुनावी बॉन्ड के कानून को असंवैधानिक ठहराने के बाद राजनीति में काले धन का प्रवाह बढ़ जाएगा। सबसे पहले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यह बात कही कि उनको चिंता सता रही है कि अब राजनीति में काला धन बढ़ जाएगा। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने भी अपनी अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक के बाद इस बात को दोहराया है। भाजपा और संघ की ओर से दावा किया जा रहा है कि चुनावी बॉन्ड से राजनीति में स्वच्छता आ रही थी और अब फिर से काले धन का चलन बढ़ जाएगा। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि ज्यादातर विपक्षी पार्टियों ने भी इस मसले पर मुंह बंद कर लिया है। तभी हैरानी नहीं है कि चुनावी बॉन्ड से 94 फीसदी चंदा हासिल करने वाली पार्टियों ने इसका स्रोत बताने से इनकार कर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट के अप्रैल 2019 के एक अंतरिम आदेश के बाद सभी पार्टियों ने चंदे का ब्योरा सीलबंद लिफाफे में चुनाव आयोग को सौंपा है, जिसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद आयोग ने अपनी वेबसाइट पर अपलोड किया है। केंद्र में सरकार चला रही भारतीय जनता पार्टी ने भी यह नहीं बताया है कि उसे किसने चंदा दिया। मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस और दूसरी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने भी चंदा देने वाले का ब्योरा नहीं दिया। सबसे दिलचस्प तो यह है कि समाजवादी पार्टी और जनता दल यू ने कहा है कि उनके दफ्तर में आकर कोई अनजान व्यक्ति लिफाफा दे गया, जिसमें चुनावी बॉन्ड निकले। दोनों ने 10-10 करोड़ रुपए के चंदे के बारे में यह बात कही है। जाहिर है सभी पार्टियां एक जैसी स्थिति में हैं।
चुनावी बॉन्ड किस तरह से अपने मकसद में विफल रहा उसकी कई कहानियां सामने आई हैं, जिनमें से सपा और जनता दल यू की कहानी एक है। इसी तरह यशोदा सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल का मामला है, जिसके मालिकों का कहना है कि उन्होंने कोई चुनावी बॉन्ड नहीं खरीदा है लेकिन उनकी कंपनी के नाम पर 162 करोड़ रुपए के बॉन्ड खरीदे गए हैं। ऐसे ही कोलकाता की एक कंपनी है मदनलाल लिमिटेड। उस कंपनी का 2019-2020 का शुद्ध मुनाफा 1.82 करोड़ रुपए का था लेकिन कंपनी ने उस अवधि में 182 करोड़ रुपए का यानी अपने शुद्ध मुनाफे से सौ गुना ज्यादा कीमत के बॉन्ड खरीदे। पांच करोड़ के पेडअप कैपिटल वाली या पांच करोड़ के नेटवर्क वाली कई कंपनियों के ढाई सौ करोड़ रुपए तक का बॉन्ड खरीदने की खबरें सामने आई हैं।
ऐसा नहीं है कि ब्योरा सार्वजनिक होने के बाद ही इसमें गड़बड़ी का पता चला है। इस मामले में स्टेट बैंक की याचिका पर सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कुछ संभावित गड़बड़ियों की ओर इशारा किया था, जिसकी अलग अलग तरह से व्याख्या हो रही है। इसको एक मिसाल से समझा जा सकता है। फर्ज कीजिए कि मिस्टर ए ने या उनकी कंपनी ने अपनी पहचान के दस्तावेज बैंक में जमा करके और अपने खाते से पैसा चुका कर एक बॉन्ड खरीदा। दूसरी ओर मिस्टर बी के पास काला धन है, लेकिन उन्हें किसी पार्टी को खाते में सफेद धन से चंदा देना है तो उन्होंने मिस्टर ए को ज्यादा पैसे देकर बॉन्ड खरीद लिया और किसी पार्टी को दे दिया, जिसने उसे भुना लिया। इस तरह मिस्टर ए को अपने निवेश पर कमाई हो गई, मिस्टर बी का काला धन सफेद हो गया और उन्होंने किसी पार्टी को उस सफेद धन से चंदा देकर कोई मदद हासिल कर ली।
लेकिन जब पूरा ब्योरा सामने आएगा तो पता चलेगा कि उस पार्टी को चंदा मिस्टर ए ने दिया है, क्योंकि बैंक में उनके पहचान पत्र से बॉन्ड खरीदा गया है और उनको सरकार या पार्टी से कोई फायदा नहीं मिला है। इस पूरी प्रक्रिया में असल में चंदा देने वाले मिस्टर बी का कहीं नाम नहीं आएगा। सोचें, गोपनीयता के नाम पर यह कैसी व्यवस्था बनाई गई थी कि मिस्टर ए भी पाक-साफ और चंदा लेने वाली पार्टी भी पाक-साफ! यह भी संभव है कि ऑफशोर अकाउंट्स के जरिए कुछ लोगों को पैसे मिले हों और उन्होंने उस पैसे से बॉन्ड खरीद कर पार्टियों को चंदा दिया हो। अगर बहुत गहराई से जांच नहीं हो तो वास्तविक चंदा देने वाले का पता लगना नामुमकिन हो जाएगा। अगर सुप्रीम कोर्ट इस मामले में पहल करे और अपनी निगरानी में जांच कराए तो उम्मीद की जा सकती है कि इसकी सचाई सामने आएगी। साथ ही कारोबारी घरानों और राजनीतिक दलों, खास कर केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दलों के बीच के क्विड प्रो को यानी मिलीभगत का खुलासा भी हो पाएगा।
बहरहाल, शून्य पारदर्शिता वाली इस योजना का बचाव करना किसी भी कसौटी पर उचित नहीं है। सो, अब सवाल है कि इससे आगे क्या? क्या राजनीतिक चंदे के मामले को पूरी तरह से छोड़ दिया जाए या सरकार पहल करके कोई नई व्यवस्था बनाए, जिसमें पारदर्शिता हो। चंदा देने और लेने वाले का नाम सार्वजनिक हो ताकि आम मतदाता भी जान सके कि वह जिस पार्टी को वोट दे रहा है उसे कहां कहां से चंदा मिल रहा है और चंदा देने वालों को क्या फायदा पहुंचाया जा रहा है। ध्यान रहे पार्टियों को अब भी ज्यादातर चंदा अज्ञात स्रोत से ही मिलता है। हकीकत यह है कि चंदे का स्रोत सिर्फ आम लोगों और एजेंसियों के लिए अज्ञात रहता है।
पार्टियों को पता होता है कि वह कैसा और किसका पैसा है। अज्ञात स्रोत का मतलब है 20 हजार रुपए तक का नकद चंदा। गौरतलब है कि मौजूदा कानून के मुताबिक 20 हजार रुपए तक का चंदा नकद दिया जा सकता है और उसके लिए चंदा देने वाले के पहचान पत्र की भी जरुरत नहीं होती है। इसलिए ज्यादातर पार्टियां इसी तरीके को तरजीह देती हैं। कोई व्यक्ति लाखों में चंदा देता है तब भी उसमें दिक्कत नहीं होती है। उसके लिए 20-20 हजार रुपए की ढेर सारी रसीदें काट दी जाती हैं। इसमें समय तो लगता है कि लेकिन किसी तरह का कानूनी झंझट नहीं होता है। यह भी काले धन को सफेद बनाने और उसे राजनीतिक सिस्टम में लाने का एक तरीका है।
इस लिहाज से कह सकते हैं कि अब समय आ गया है कि राजनीतिक चंदे की व्यवस्था को दुरुस्त किया जाए और उसे पूरी तरह से पारदर्शी बनाया जाए। महात्मा गांधी कहते थे कि सिर्फ साधन नहीं, बल्कि साध्य भी पवित्र होना चाहिए। अगर साध्य यानी राजनीतिक दलों को मिलने वाला चंदा पवित्र नहीं होगा तो उसके दम पर होने वाली राजनीति कैसे पवित्र रह पाएगी? वैसे यह सिर्फ एक पार्टी या केंद्र सरकार की जिम्मेदारी नहीं है। सभी पार्टियों की आम राय से चंदे की नई व्यवस्था बननी चाहिए। ऐसी व्यवस्था, जिसमें कारोबारी घरानों और पार्टियों की मिलीभगत की संभावना को कम किया जा सके।
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