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देर से ही सही पर साथ आया विपक्ष

देर से ही सही पर साथ आया विपक्ष

देर से ही सही लेकिन विपक्षी पार्टियों का चुनाव अभियान जोर पकड़ रहा है। मार्च के महीने में तीसरी बार विपक्ष की साझा रैली हुई। इसमें संदेह नहीं है कि यह काम विपक्ष को पहले करना चाहिए था क्योंकि विपक्षी एकता और गठबंधन बनाने का प्रयास पिछले साल अप्रैल-मई से चल रहा है और कर्नाटक में कांग्रेस को मिली जीत के बाद उसके पास इसके लिए सबसे सुनहरा मौका था। फिर भी कह सकते हैं कि देर आए दुरुस्त आए।

विपक्षी पार्टियों ने तीन मार्च को पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में साझा रैली की और अपनी ताकत का प्रदर्शन किया। उसके बाद मुंबई में 17 मार्च को कांग्रेस की भारत जोड़ो न्याय यात्रा के समापन के मौके पर एक साझा रैली हुई और अब 31 मार्च को दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में 27 विपक्षी पार्टियों के नेता जुटे और लोकतंत्र बचाने का संकल्प जताया।

वैसे तो रामलीला मैदान की रैली के आयोजन का तात्कालिक कारण दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी थी लेकिन विपक्ष ने इसे बड़ा रूप दिया। इसमें झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी को भी जोड़ा गया और कांग्रेस के खाते जब्त करने का मुद्दा भी शामिल किया गया। इसे लोकतंत्र बचाए रैली का नाम दिया गया और नारा दिया गया ‘तानाशाही हटाओ, लोकतंत्र बचाओ’। सवाल है कि क्या देश के लोग मान रहे हैं कि भारत में तानाशाही आ गई है और लोकतंत्र खतरे में है? और क्या वे इसे बचाने के लिए आगे आएंगे?

अगर इसे लेकर बहुत उम्मीद नहीं पाली जा सकती है तो बहुत निराश होने की भी जरुरत नहीं है। हो सकता है कि लोग उस शास्त्रीय संदर्भ में तानाशाही की स्थापना या लोकतंत्र के खतरे को नहीं समझ रहे हों। लेकिन उन्हें यह तो पता चल रहा है कि जो हो रहा है वह बहुत अच्छा नहीं हो रहा है। विपक्ष के नेताओं के प्रति मतदाताओं के एक बड़े समूह के मन में हो सकता है कि बहुत अच्छा भाव नहीं हो लेकिन जिस तरह से चुनाव के दौरान विपक्ष को परेशान किया जा रहा है उससे उनके प्रति सहानुभूति का भाव पैदा हो जाए तो हैरानी नहीं होगी। विपक्ष ने अपनी रैली में इसे बड़ा मुद्दा बनाया और गिरफ्तार नेताओं की रिहाई की मांग की।

ध्यान रहे मतदाता हर बार जब वोट करते हैं तो यह सोच कर वोट नहीं करते हैं कि वे लोकतंत्र को मजबूती दे रहे हैं या लोकतंत्र को बचा रहे हैं। लेकिन उनके मतदान करने से और बहुत सोच समझ कर मतदान करने से ही भारत में लोकतंत्र की जड़ें गहरी हुई हैं। इसलिए कभी भी मतदाताओं की समझ पर सवाल नहीं करना चाहिए। इस देश के मतदाताओं ने ऐसे समय में सरकारों को अपदस्थ किया है, जब वे जीत के सर्वाधिक भरोसे में थीं। यह भी एक तथ्य है कि पिछले चुनाव में भी भारत के करीब 60 फीसदी मतदाताओं ने भाजपा और नरेंद्र मोदी के खिलाफ वोट किया था।

चूंकि वह वोट बंटा हुआ था इसलिए भाजपा को बड़ी जीत मिली। विपक्ष का प्रयास उसी वोट को एकजुट करने का है। रामलीला मैदान की रैली उसी दिशा में किया गया एक सार्थक प्रयास है। विपक्ष यह प्रयास कई महीने पहले शुरू कर सकता था। पिछले साल के अंत में हुए विधानसभा चुनावों के बीच भोपाल में विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की साझा रैली प्रस्तावित थी। लेकिन प्रदेश कांग्रेस के नेताओं ने यह रैली नहीं होने दी। पता नहीं साझा रैली होती तो नतीजे क्या होते लेकिन रैली नहीं होने के बाद के नतीजे का सबको पता है।

सो, विपक्ष ने समय गंवा दिया है फिर भी अगर विपक्षी एकजुटता बनी रहती है, आगे इसी तरह की साझा रैलियां होती रहती हैं और भाजपा के खिलाफ अधिक से अधिक लोकसभा सीटों पर विपक्ष का एक साझा उम्मीदवार उतरता है तो कोई संदेह नहीं है कि भाजपा को कड़ी टक्कर मिल सकती है। यह ध्यान रखने की बात है कि रैलियां सिर्फ शक्ति प्रदर्शन के लिए नहीं होती हैं, बल्कि संदेश प्रसारित करने के लिए होती हैं, सार्वजनिक विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए होती हैं और नैरेटिव सेट करने के लिए होती हैं।

रामलीला मैदान की रैली से विपक्षी पार्टियों ने जो नैरेटिव सेट किया है उसे देश के हर हिस्से में पहुंचाने का प्रयास अगर विपक्ष करता है तो वह एक अच्छी लड़ाई बना सकता है। इसमें संदेह नहीं है कि भाजपा के प्रचार, नई सरकार का एजेंडा तय किए जाने की खबरों और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों ने चुनाव का माहौल बना दिया है। आम लोगों में यह धारणा बन गई है कि मुकाबला नहीं है। भाजपा जीत रही है। विपक्षी पार्टियां अपने मेहनत से इस धारणा को चुनौती दे सकती हैं।

विपक्ष की रामलीला मैदान की रैली से कुछ बातें बहुत स्पष्ट रूप से जनता के बीच पहुंची हैं। पहला मैसेज तो यह है कि भाजपा जीत का जितना भरोसा दिखा रही है उतना असल में है नहीं है। क्योंकि अगर इतना भरोसा होता तो दूसरी पार्टियों खास कर कांग्रेस के नेताओं को तोड़ कर उन्हें भाजपा में शामिल कराने और टिकट देकर चुनाव में उतारने का काम इतने बड़े पैमाने पर नहीं हो रहा होता। हो सकता है कि भाजपा यह काम विपक्ष को कमजोर करने के लिए कर रही हो लेकिन आम लोगों के बीच इस बात की चर्चा शुरू हो गई है कि दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के पास उम्मीदवार नहीं हैं या वह अपनी पार्टी का दशकों तक झंडा ढोने वालों को तरजीह नहीं दे रही है और घबराहट में विपक्षी पार्टियों के नेताओं को टिकट दे रही है।

दूसरा मैसेज यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा की लड़ाई असली नहीं है, बल्कि दिखावा है। उसकी सरकार सिर्फ विपक्षी नेताओं के खिलाफ कार्रवाई कर रही है और उनमें से भी जो भाजपा में शामिल हो जा रहा है ‘भाजपा की वॉशिंग मशीन’ में धुलाई करके उसको बेदाग कर दिया जा रहा है। भाजपा के बड़े नेता यहां तक कि खुद प्रधानमंत्री जिन लोगों के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते रहे हैं उनको भी पार्टी में शामिल करा कर टिकट दिया गया है। सो, विपक्षी नेताओं के ऊपर बहुत ज्यादा कार्रवाई का अब कोई असर नहीं रह गया है क्योंकि आम आदमी भी इससे राजनीतिक मतलब को समझने लगा है।

विपक्ष ने चुनावी बॉन्ड का मुद्दा उठा कर यह भी बताया है कि सरकार तमाम दावों के बावजूद दूध की धुली नहीं है। तीसरा मैसेज यह है कि चुनाव के समय विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी या मुख्य विपक्षी पार्टी के खाते जब्त करने का काम कहीं न कहीं लोकतंत्र के बुनियादी चरित्र को कमजोर करने वाले है। अगर इस मैसेज को विपक्ष अगले दो महीने तक जनता के बीच पहुंचाने में कामयाब होता है तो उसे इसका कुछ न कुछ फायदा जरूर मिलेगा। चौथा मैसेज चुनाव आयोग को लेकर है। विपक्ष ने बताया कि चुनाव में सबके लिए समान अवसर के प्राकृतिक सिद्धांत का उल्लंघन हो रहा है।

लेकिन सवाल है कि क्या विपक्षी पार्टियों का जो प्रयास है वह चुनावी लड़ाई की दिशा मोड़ने के लिए पर्याप्त है? कम से कम अभी ऐसा नहीं लग रहा है। रामलीला मैदान के मंच पर बैठे विपक्षी नेताओं की दोहरी राजनीति और उनके विरोधाभासों को भी जनता देख रही है। कांग्रेस के नेता अरविंद केजरीवाल के लिए आंसू बहा रहे थे लेकिन पंजाब में दोनों पार्टियां एक दूसरे के खून की प्यासी दिख रही हैं। मंच से भाषण के दौरान सुनीता केजरीवाल ने अपने गिरफ्तार पति अरविंद केजरीवाल का संदेश पढ़ा, जिसमें उन्होंने अनेक बार 75 साल की कमियां गिनाईं। जाहिर है कि उनका निशाना कांग्रेस पर भी था।

इसी तरह कांग्रेस और सीपीएम, सीपीआई के नेता मंच पर बैठे थे परंतु केरल में उनके बीच घमासान चल रहा है। लेफ्ट और तृणमूल के नेताओं की लड़ाई भी किसी से छिपी नहीं है और न कांग्रेस व तृणमूल का घमासान किसी से छिपा है। सो, तमाम एकजुटता के बावजूद राजनीतिक ईमानदारी की कमी स्पष्ट दिख रही है। अगर पार्टियां ईमानदारी से एक दूसरे का साथ दें और अपने हितों को किनारे रख कर साझा हित में चुनाव लड़ें तो उनकी लड़ाई बेहतर हो सकती है।

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Published by अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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