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एक्शन, लाइट, डायरेक्शन…

एक्शन, लाइट, डायरेक्शन…

भोपाल। किसी भी रंग निदेशक के लिये वह दिन बेहद गर्व और रोमांच का दिन होता है जब किसी नाट्य समारोह में उसके गुरू के नाटक का भी मंचन हो और उसी दिन उसी समारोह में उसके खुद के निर्देशन में तैयार नाटक का मंचन हो। ऐसा ही रोमांच का दिन पटना के नौजवान और प्रयोगधर्मी रंगनिदेशक विज्येन्द्र टांक के लिये राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा आयोजित भारत रंग महोत्सव के दौरान आया। इस दिन उसके निदेशन में तैयार नाटक ’गुंडा’ का मंचन एलटीजी आडिटोरियम हो रहा था तो इसी दिन उनके गुरू संजय उपाध्याय के निदेशन में तैयार नाटक ’आनंद रघुनंदनम’ का मंचन हुआ। यह प्रसंग विज्येन्द्र के लिये महत्वपूर्ण व रोमांचकारी गर्व का रहा तो रंग निदेशक संजय उपाध्याय के लिये कम यादगार नहीं रहा होगा।

1990 में पटना के निर्माण कला मंच द्वारा संगीत नाटक अकादमी और संस्कृति विभाग बिहार सरकार के सहयोग से स्लम बस्तियों में रहने वाले बच्चों के लिये रंगमंच कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस आयोजन के लिये बच्चों का चयन करने के लिये निर्माण कला मंच के रंगकर्मी नंद नगर बस्ती में आये जहां कुछ बच्चे ताश खेल रहे थे। उन बच्चों से नाट्य कार्यशाला में शामिल होने के लिये कहा गया तो उन्होंने इसे हंसी में उड़ाते हुए टाल दिया लेकिन एक बच्चा कार्यशाला में आने के लिये तैयार हो गया। यह बच्चा था विज्येन्द्र टांक जिसे बस्ती के बच्चों के साथ खेलना कभी रास नहीं आया था। कार्यशाला में निर्देशक संजय उपाध्याय के निर्देशन नाटक में ’अंधेर नगरी चैपट राजा’ तैयार किया गया जिसके अनेक मंचन हुए। इसके बाद निर्माण कला मंच ने ’सफर मैना’ नाम से बच्चों का नाट्य समूह बनाया। इस नये समूह में रंग निदेशक संजय उपाध्याय के निदेशन में बादल सरकार व सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे नाटककारों के नाटकों का मंचन किया गया। इन नाटकों में भी विज्येन्द्र ने भूमिका में निभाई।
विज्येन्द्र के माता पिता सफाई कर्मचारी थे और उन्हें इस बात से कोई ताल्लुक नहीं था कि उनका बेटा क्या कर रहा है। निम्न आय वर्ग परिवारों में कैरियर किस चिड़िया का नाम है, पता नहीं होता। चिंता तो बस दो वक्त की रोटी की होती है। ऐसे में अपने स्तर पर बेटा चाहे तो रंगकर्मी बन सकता है या मुहल्ले वालों की तरह रह सकता है या पढ़ाई कर विज्येन्द्र के भाई की तरह मल्टीनेशनल में काम पा सकता है। इन्हीं हालातों से मेरा बचपन भी गुजरा है, इसलिये मैं इन स्थितियों को बेहतर समझ सकता हूँ। जाहिर है कि विज्येन्द्र के रंगकर्मी बनने पर परिवार की ओर से न कोई बाधा थी और न कोई प्रोत्साहन।

विज्येन्द्र की दिलचस्पी और लगन को देखते हुए निर्देशक संजय उपाध्याय ने अपने लीजेंड नाटक ”बिदेशिया“ में उसे भूमिका दी और इस नाटक के सैकड़ों प्रदर्शनों में विज्येन्द्र ने हिस्सा लिया। लगभग दो दशक तक संजय उपाध्याय के निदेशन-मार्गदर्शन में विज्येन्द्र ने नाटक के क ख ग से लेकर रंगमंच के विविध पहलूओं को सीखा। विदेशिया नाटक में अभिनय के साथ-साथ लाइट डिजाइन सीखते हुए वहा लाइट डिजाइन में सहयोग करने लगा। निर्माण कला मंच के स्थायी लाइट डिजाइनर अशोक तिवारी की नौकरी लग जाने के बाद उसके स्थान पर वह स्वतंत्र रूप से लाइट डिजाइन करने लगा।

2006 में निर्माण कला मंच ने जब ’आम्रपाली’ नाटक का मंचन किया तो लाइट डिजाइन के लिये दिल्ली के मशहूर डिजाइनर गौतम मजूमदार को पटना आमंत्रित किया गया। ऐसे में उनके साथ काम करने का मौका विज्येन्द्र को मिल गया। तब तक लाइट डिजाइन में विज्येन्द्र का इतना नाम हो गया था कि पटना में होने वाले अलग-अलग रंग समूहों के नाटकों में वह लाइट करने लगा। इस बीच दिल्ली के सारंगी वादक अनिल मिश्र को उत्तरप्रदेश में रामलीला का मंचन करना था तो उन्होंने लाइट डिजाइन का काम विज्येन्द्र को सौंपा। पहली बार उसे पटना के बाहर काम करने का मौका मिला था। वहां से लौटकर वह गौतम मजूमदार के पास दिल्ली रूक गया और लाइट डिजाइन में विशेषज्ञता हासिल करने लगा। इस दौर तक विज्येन्द्र का सारा फोकस अभिनय के बजाय लाइट डिजाइन में केन्द्रित हो गया था।

सब कुछ ठीक रहता तो संभव है विज्येन्द्र दिल्ली में रह जाता और लाइट डिजाइन का विशेषज्ञ बन जाता लेकिन घर के हालात ने उसे वापस पटना बुला लिया। पटना लौटकर वह फिर थियेटर करने लगा लेकिन यहां पैसा नहीं था और गुजारे के लिये पैसों की जरूरत थी। इस बीच उसे सरकारी नुक्कड़ नाटकों का काम मिल गया। इसके लिये किसी संस्था के नाम की जरूरत थी। निर्माण कलामंच के निदेशक संजय उपाध्याय ने अपनी संस्था का नाम देने से मना कर दिया। लिहाजा उसने अपनी एक नई संस्था बनाई जिसके माध्यम से नुक्कड़ नाटक करते हुए आर्थिक मोर्च पर थोड़ी मजबूती पाई।

विज्येन्द्र ने अपनी रंग संस्था का नाम प्रवीण सांस्कृतिक मंच रखा जिसके पीछे भी एक प्रसंग जुड़ा हुआ था। प्रवीण भी उसी की तरह दूसरी स्लम बस्ती का बालक था जो निर्माणकला मंच के अनेक नाटकों में मुख्य किरदार निभाता था। इसी के चलते उसकी नौकरी डीपीएस स्कूल में प्रशिक्षक के रूप में लग गई। स्लम से निकलकर इस प्रतिष्ठापूर्ण जगह पर प्रवीण का पहुंचना कुछ को शायद रास नहीं आया और उसकी हत्या कर दी गई। विज्येन्द्र ने प्रवीण की स्मृति में अपनी संस्था का नाम उसके नाम पर रखा। उसी की स्मृति में हर साल नाट्य समारोह का आयोजन भी किया जाता है और प्रवीण रंग सम्मान प्रदान किया जाता है।

अपनी संस्था से उसने पहला नाटक तैयार किया ”घासीराम कोतवाल“। इस नाटक के निर्देशन के लिये उसने सुमन कुमार को आमंत्रित किया लेकिन वे सहमति देने के बाद भी नहीं आ सके। ऐसे में नाटक के निर्देशन की जिम्मेदारी खुद को लेना पड़ी। कुछ समय तक ऐसे ही कुछ नाटक करते रहे लेकिन उसमें मजा नहीं आ रहा था। जिस पृष्टभूमि से विज्येन्द्र आते हैं, उसका प्रभाव उन पर गहरा था और उसी के अनुरूप वे अपना थियेटर करना चाहते थे।

इस दौरान उनकी मुलाकात एनएसडी से निकले पटना के रंगकर्मी विनोद राय से हुई। विनोद राय हालांकि मुम्बई में बस गये थे लेकिन अपने शहर पटना के रंगकर्मियों की हमेशा मदद करते रहते थे। उन्होंने कुछ नाटक सुझाये जिनमें से जयशंकर प्रसाद की कहानी ’गुंडा’ विज्येन्द्र को पसंद आई। विज्येन्द्र का कहना था कि गुंडा नाम में मुझे काफी आकर्षक लगा। समाज में कई धारायें हैं जिसमें जो सबसे मजबूत धारा है वह समाज में होने वाले किसी भी विरोध को बुरा मानते हैं और विरोध करने वाले को गुंडा मान लिया जाता है। मैं समाज के जिस वर्ग से आता हूँ उसे बिना करीब से देखे हुए वहां बसने वाले सभी लोगों को ऐसे ही नाम से संबोधित किया जाता था, जो मुझे काफी बुरा लगता था। इस नाटक में गुंडा का चरित्र मुझे अपने समाज के नायक की तरह दिखा और उस चरित्र को मैंने नाटक के माध्यम से समाज के बीच स्थापित करने की कोशिश की।

युवा लेखक अभिजीत चक्रवर्ती ने इस कहानी का नाट्य रूपांतर तैयार किया और यह नाटक इतना सराहा गया कि भारंगम के लिये भी चयनित हो गया। वही भारंगम जिसमें गुरू संजय उपाध्याय और शिष्य विज्येन्द्र टांक दोनों के नाटक एक साथ एक ही दिन मंचित हुए। इस नाटक से विज्येन्द्र के नाटकों का टोन सेट हो गया और वह आगे भी ऐसे ही आफ बीट कथ्यों वाले नाटक करने लगा।

उसकी रंगयात्रा का अगला पड़ाव था प्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति की कहानी ”कुच्ची का कानून“ जिसका नाट्य रूपांतर भी अभिजीत ने ही किया। गुंडा की तरह यह नाटक भी समाज के निम्न वर्ग में होने वाले शोषण और उसके प्रतिकार की कहानी है। विधवा कुच्ची अपने पेट में पल रहे बच्चे को लेकर उस पुरूष का नाम बताने से इंकार करते हुए कहती है कि जिस तरह शरीर के अन्य अंगों पर उसका अधिकार है, उसी तरह पेट पर भी उसका अधिकार है जहां पल रहे बच्चे पर कोई सफाई देना उसके लिये जरूरी नहीं है। यही कुच्ची का कानून है जिसे समाज को अंततोगत्वा मानना पड़ता है।
भोपाल भारत भवन में इस नाटक को देखने के बाद विज्येन्द्र के इस नाटक ने मुझे झझकोर दिया था। मैंने पाया कि उसके नाटक स्वांतः सुखाय वाले नहीं है। अलवत्ता वे समाज के समकालीन सवालों से रूबरू भी होते हैं और अन्याय तथा शोषण के खिलाफ प्रतिकार करते हुए नई स्थापना भी देते हैं। इसी क्रम में उन्होंने चर्चित नाटककार रविन्द्र भारती का नाटक ’हुलहुलिया’ का मंचन किया।

यह नाटक उस आदिवासी समाज की बात करता है जो सदियों तक जल जंगल जमीन की रक्षा करता रहा लेकिन अपने निवासी होने का कोई कागजी सबूत उसके पास नहीं है जिससे नागरिकता रजिस्टर में उसका नाम दर्ज हो। बेहद समकालीन विषय पर नाटक लिखना व उसे मंचित करना कम जोखिम भरा नहीं होता लेकिन विज्येन्द्र ने यह किया। मुझे लगता है कि यही उसके रंगमंच की ताकत और उसकी अलग पहचान है।

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