आतिशी के मुख्यमंत्री बनने से राजधानी में सत्ता व्यवहार की नई बयार चलने की आशा जरुर जगी है। दिल्ली में इससे पहले डेढ़ दशक तक चली शीला दीक्षित की सरकार की याद भी दिलाई जा रही है। जब दिल्ली की जनता को जननीति का संघर्ष व व्यवहार गिरावट देखने को नहीं मिली थी। आतिशी देश-विदेश में पढ़ी-लिखी, सहज व सेवाभावी जनसेवक मानी जाती हैं।
आज समाज में जिस भीड़तंत्र से लड़ना चाहते हैं उस लड़ाई के लिए हमें अपनी आधी आबादी के योगदान की ओर लौटना होगा। आधी आबादी यानी अपनी महिलाएं। पुरुष के विकास की बुलेट ट्रेन रफ्तार में स्त्री की स्वाभाविक सहनशीलता को ही ज्यादा विकसित माना जा सकता है। लगातार हिंसक होते समाज को उसकी आधी आबादी ही अहिंसक विश्वगुरु बना सकती है।
देश की राजधानी दिल्ली में केन्द्र-राज्य का राजनीतिक संघर्ष लंबा हो चला था। एक दशक से भी ज्यादा से चले आ रहे दिल्ली के सत्ता-संघर्ष में अब सौम्य, शालीन और सहनशील आतिशी तीसरी महिला, और दिल्ली की आठवीं मुख्यमंत्री बन गयी हैं।
आम आदमी पार्टी पर केन्द्र सरकार द्वारा थोपी गई राजनीतिक उठापटक के कारण ही सही, मगर राजधानी के साधारण, शिक्षित वर्ग में आतिशी के मुख्यमंत्री बनने के प्रति जो उत्साह जगा है वह समाज के प्रति अच्छा संदेश है। पद छोड़ने को अरविंद केजरीवाल की ईमानदार कोशिश माने या सफलता के लिए सत्ता योजना, वह तो समय आने पर दिल्ली की जनता ही बताएगी।
लेकिन आतिशी के मुख्यमंत्री बनने से राजधानी में सत्ता व्यवहार की नई बयार चलने की आशा जरुर जगी है। दिल्ली में इससे पहले डेढ़ दशक तक चली शीला दीक्षित की सरकार की याद भी दिलाई जा रही है। जब दिल्ली की जनता को जननीति का संघर्ष व व्यवहार गिरावट देखने को नहीं मिली थी।
आतिशी देश-विदेश में पढ़ी-लिखी, सहज व सेवाभावी जनसेवक मानी जाती हैं। उनके माता-पिता दोनों शिक्षक रहे। अंतरजातीय प्रेम विवाह किया। और बेटी को उच्च शिक्षा दिलाने के पक्षधर रहे। दोनों मार्क्स व लेनिन से प्रभावित थे इसलिए बेटी आतिशी को उपनाम मार्लिना दे दिया। शिक्षा का असर और सेवासत्ता से समाज बदलने की उम्र में ही, अन्य युवाओं की तरह आतिशी का सत्ताभाव भी जागा।
अण्णा आंदोलन से प्रेरित हो कर वे आम आदमी पार्टी की सदस्य बनीं। अहिंसक आंदोलन से समाज बदलने का रास्ता सूझा। चुनाव लड़े। हार-जीत भी हुई। लेकिन सहज, सरल सेवाभावी स्वभाव ने उन्हें दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य दे दिया।
नारायण देसाई ने “मेरे गांधी” संस्मरण में लिखा है कि महात्मा गांधी ने तमाम सामाजिक, राजनीतिक प्रयोग स्त्रियों के नैसर्गिक स्वभाव के इर्द-गिर्द गढ़े व खड़े किए थे। स्त्रियों को अहिंसक संघर्ष में जोड़ने की गांधी की रणनीति इसी विश्वास पर खड़ी हुई थी। उनकी यह रणनीति भारत में जागरूकता की लहर पैदा करने में अपूर्व कारक सिद्ध हुई।
भारत की स्त्रियों की मुक्ति का गांधी का तरीका उन्हें आजादी की लड़ाई में पुरुषों के बराबर भागीदार बनाने का था। गांधी का मानना था कि देश की गरिमा बहाल करने की प्रक्रिया में शामिल होने से स्वाभाविक ही स्त्रियों की अपनी गरिमा भी बहाल होगी।
गांधी जी अहिंसक शक्ति के उदाहरण के तौर पर स्त्रियों से खास उम्मीद रखते थे। इसलिए उनने कहा था, “आत्मोत्सर्ग के साहस के लिए हमेशा स्त्रियां पुरुषों से श्रेष्ठ रही है। जैसा कि मैं मानता हूं, हृदयहीन साहस के लिए पुरुष हमेशा स्त्री से आगे रहा है। मेरी पक्की राय है कि पुरुषों के मुकाबले स्त्रियां अहिंसा की ज्यादा बेहतर सिपाही हो सकती हैं।”
आश्रम जीवन की एक जिम्मेदारी ऐसी थी, जिसे स्वीकार करने में सब हिचकते थे। आश्रम के भंडारगृह के छोटे-छोटे ढेर सारे हिसाब रखने और तरह तरह के मिज़ाज वाले लोगों से वास्ता पड़ता था। गांधी जी के ध्यान में जब यह बात लाई गई तो उनको उपाय सूझा। “अगर यह बात है तो क्यों न सारी जिम्मेदारी महिलाओं को दे दी जाए। मुझे पक्का भरोसा है कि यह काम जो पुरुष के संभाले नहीं संभल रहा है, उसे वे अच्छी तरह संभाल लेंगी।” फिर दांडी यात्रा के बाद स्त्रियों पर गांधी जी ने अहिंसक असहयोग का बढ़ा उत्तरदायित्व डाला जो उनने बखूबी निभाया।
आज कमला हैरिस भी अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रही हैं। सबसे शक्तिशाली देश की प्रमुख अगर एक महिला बनती है तो दुनिया किस रास्ते पर चलेगी देखना कोरा आशावाद नहीं रहने वाला। दुनिया में चल रहे युद्धों पर अमेरिका का रुख भी साफ होगा। नफरत के माहौल में हिंसा के बजाए अहिंसा को तवज्जो देने का जिम्मा आधी आबादी पर आएगा तो सत्ता का अहंकार भी मिटेगा।
राजधानी का मुख्यमंत्री होना आतिशी की अग्नि परीक्षा होगी। क्योंकि आधी आबादी से ही आशा जगेगी कि हिंसक भीड़तंत्र की लड़ाई अहिंसक भाईचारे से लड़ी जाए। नफरत के घाव भरें। सौहार्द का माहौल बने। और विवेक से विकास हो।