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न्याय का मज़ाक उड़ाती : बुलडोजर कार्रवाई…!

Bulldozer Justice

भोपाल। आरोपी को अपराधी बनाने की कार्रवाई है प्रशासन द्वारा आरोपियों के घरों को गिराना। भले ही वह घर या मकान किसी और की मिल्कियत हो ! अब ऐसे मंे अगर परिवार के कोई लड़का कोई अपराध करता है, तब सज़ा उसके परिवार को प्रशासन देता है ! अब ऐसी कार्रवाई पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह कथन कि हम इस कार्रवाई को नहीं रोक सकते हंै ! न्याय के सिधान्त का मखौल ही उड़ना ही तो है। यह मध्ययुगीन काल के सुल्तानों की कार्रवाई की याद दिलाता है जब हुकुमरान की नाराजगी परिवार को नेस्तनाबूद कर देती थी। आजकल हम संविधान के प्रदत्त अधिकारों के तहत नागरिक है कोई प्रजा नहीं। फिर किस कारण देश की जिला या ऊंची अदालतें अफसरों की इस कार्रवाई पर कोई दंड नहीं सुनाती। अभी हाल में केवल गुरुग्राम में अफसरों की इमारतों को गिराने की कार्रवाई पर हरियाणा पंजाब हाईकोर्ट की डबल बेंच ने अफसरों से यूएनआई कार्रवाई पर सवाल उठाए थे और गिराई गयी इमारतों के मालिकाना हक़ और उनकी तामीर कराये जाने की तारीख के बाबत जानकारी बुलाई थी। परंतु इस फैसले के बाद यह मामला उनकी बेंच से मुख्य न्यायाधिपति ने हटा दिया था ! अब इस फैसले को क्या कहा जाये!

बुलडोजर कार्रवाई कुछ वैसे ही न्याय के बजाय अन्याय कर रहा है जैसे घरेलू हिंसा या दहेज प्रताड़ना के मामले में पहले आरोपी को अपराधी मानकर कार्रवाइ की जाती थी। ह्त्या और –बलात्कार के मामले में भी पुलिस जांच के बाद चार्जशीट अदालत मंे दाखिल करती है तब अदालत न्याय करती है। बाद में सुप्रीम कोर्ट और अनेक हाईकोर्ट भी दहेज प्रताड़ना के मामलों में निर्दोष रिश्तेदारों को आरोपी बनाने की मामलों में पुलिस को निर्देश दिया कि ऐसे मामलों की जांच उप पुलिस अधीक्षक द्वारा की जाये। फिर भी पुलिस कई बार अपने पुराने ढर्रे पर ही कार्रवाई कर रही है।

न्याय का सूत्र वाक्य है कि किसी को तब तक अपराधी नहीं माना जाये –जब तक उसका अपराध बिला शक सिद्ध नहीं हो जाए। अब इस सूत्र वाक्य को देश की अदालतों को एक बार फिर से याद दिलाने की जरूरत हैं। वैसे देश के प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ का कहना है कि प्रत्येक प्रशासनिक फैसले की न्यायिक जांच संभव नहीं है ! परंतु जिस प्रकार आईएएस और उनके पुलिस बंधु मनमानी कार्रवाई करते हैं उसका प्रतीकार एक नागरिक किस प्रकार करे? क्यूंकि अव्वल तो ये नौकरशाह नागरिक की शिकायत को अपनी हैसियत पर उंगली उठाना मानते हैं, इसलिए वे बदले की भावना से सबक सिखाने के लिए कानून के प्रविधानों का आसरा लेते हैं।

ऐसे कई मामले अफस्रान अपने राजनीतिक मालिकों को खुश करने के लिए भी करते हैं। अभी प्रदेश में चुनावी हिंसा में कई मौतंे भी हुई। राजनगर विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस के एक कार्यकर्ता को मोटर से दबाकर मार दिया गया। पुलिस से शिकायत की गयी तो उन्होंने रिपोर्ट लिखने से पहले जांच करने की बात की। जब पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने पुलिस थाने के सामने रात भर धरना दिया तब पुलिस अधीक्षक ने कार्रवाई का भरोसा दिलाया। वहीं शिवपुरी के पोहरी विधान सभा क्षेत्र मे बीजेपी समर्थकों पर हमला हुआ और तीन लोगों की मौत हो गयी -पुलिस ने आरोपियों के घरो को ढहा दिया! अब एक जैसी चुनावी हिंसा में पुलिस का दोहरा व्यवहार, उनकी कर्तव्य परायणता पर तो सवालिया निशान लगाता ही है।

रीवा में बीजेपी विधायक के प्रतिनिधि द्वारा एक आदिवासी पर पेशाब करने की घटना ने काफी तूल पकड़ा तब जिला अधिकारी ने आरोपी के घर को ढहा दिया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने भी उसको भोपाल बुला कर छमा याचना की और सरकारी सहायता भी सुलभ कराई। इस घटना के कारण उस विधायक को पार्टी ने विधान सभा चुनाव में टिकट नहीं दिया। इस कार्रवाई की प्रतिक्रिया स्वरूप इलाके के ब्राह्मनों ने घर बनवाने के लिए लाखों रुपये देने की घोषणा की। उधर बीजेपी के पूर्व विधायक ने पार्टी से इस्तीफा देकर आज़ाद उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा है। अब इस कार्रवाई से सत्तारढ़ दल को क्या लाभ होगा यह समय बताएगा।

उज्जैन में एक नाबालिग कन्या से बलात्कार हुआ – वह रात भर रक्त रंजीत लोगों से मदद मांगती रही पर महाकाल नागरी में वह बेबस बेहोस पड़ी रही। बाद में सुबह को पुलिस ने जब बालिका को अस्पताल में भर्ती कराया तब मीडिया ने इस घटना को उजागर किया तब हल्ला मचा और इसे उज्जैन का निर्भया कांड बताया तब पुलिस ने आरोपी ऑटो ड्राइवर को गिरफ्तार किया। जनता के रोष से घबड़ा कर जिला प्रशासन ने ने आरोपी के पिता के घर को ढहा दिया। जबकि वह खुद भी अपने बेटे की करतूत से शर्मिंदा था और उसे सज़ा देने की मांग कर रहा था! तब भी अफसरों­ ने उसका टापरा उजाड़ दिया ! यानि मुकदमे के पहले ही आधी सज़ा सुना दी वह भी बेगुनाह माँ पिता को।

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