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हिन्दू-मुसलमान की काट में राहुल की जातिगणना

राहुल को इस मुद्दे पर इतना भरोसा है कि उन्होंने भरी प्रेस कान्फ्रेंसमें पत्रकारों के एक जैसे ही सवाल कि प्रधानमंत्री कहते हैं कि आप जातिगत जनगणना के बहाने देश को बांटना चाहते हैं के जवाब में उल्टा पत्रकारों से पूछ लिया कि यहां बैठे हुए पत्रकारों में से कितने ओबीसी हैं? हाथ उठाएं।हम वहीं थे। एक भी हाथ नहीं उठा। राहुल ने फिर कहा दलित? आदिवासी?वैसी ही खामोशी। राहुल ने कहा इसीलिए जरूरी है। समाज के हर वर्ग के लिए उचितप्रतिनिधित्व।

कांग्रेस के लिए इतना अनुकूल माहौल कई सालों बाद बना है। कह सकते हैं कि1984 में राजीव गांधी के आने के बाद से पहली बार। उस समय लोकसभा के चुनावमें कांग्रेस ने चार सौ से ज्यादा सीटें जीती थीं। यह वही प्रसिद्ध चुनावथा जिसमें भाजपा को केवल 2 सीटें मिली थीं। अभी करगिल हिल काउंसिल केचुनाव में उसे फिर 2 सीटें मिलने पर कांग्रेस को वह ऐतिहासिक चुनाव याद आगया। उस समय लोकसभा जीतने के बाद हुए विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेसने भारी जीत हासिल की थी। यूपी में वही आखिरी चुनाव था जब कांग्रेस जीती थी। 269 सीटों पर। वह सरकार 1989 तक चली थी। उसके बाद फिर यूपी मेंकांग्रेस की सरकार नहीं आई।

अभी लद्दाख आटोनोमस हिल डवलपमेंट कौसिंल के चुनाव में नेशनल कांन्फ्रेंसऔर कांग्रेस ने भारी जीत हासिल की। वहा 30 सीटें हैं। जिनमें चार में मनोनयनहोता है। 26 पर चुनाव हुए थे। जिनमें 12 पर नेशनल कान्फ्रेंस और 10 परकांग्रेस जीती है। भाजपा 17 पर चुनाव लड़ी थी। जिनमें से 15 हार गई। इसीचुनाव की चर्चा करते हुए राहुल गांधी ने सोमवार को अपनी प्रेस कान्फ्रेंसमें कहा था कि जनता का मूड बदल रहा है। और अब कांग्रेस पांचों राज्योंमें जिनके चुनाव डिक्लेयर हो गए हैं जीतने जा रही है।

दरअसल लेह की जीत इम्पोर्टेंट इसलिए है कि पांच साल पहले जम्मू-कश्मीरविधानसभा भंग करने के बाद यह वहां पहले चुनाव हैं। भाजपा 370 खत्म करनेके बाद यह बता रही थी कि जम्मू कश्मीर जिसके उसने दो टुकड़े कर दिए हैंवहां दोनों जगह उसकी स्थिति बहुत मजबूत है। कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंसको वह गुजरा हुआ जमाना बताने लगी थी। मगर नतीजे भाजपा के लिए इतने झटकेवाले रहे कि उसने अभी इन पांच राज्यों के साथ जम्मू कश्मीर में चुनावकरवाने का अपना इरादा ही बदल दिया। जम्मू कश्मीर में डिलिमिटेशन पूरा हो चुका है।

अपनी सुविधानुसार वहां भाजपा ने जम्मू में सीटें बढ़वा ली हैं।मगर जैसा कि करिगल में हुआ उसे यहां तीन बौद्ध बहुल सीटों में से भी केवल1 सीट जिसका नाम चा है पर जीत मिली है। दूसरी सीट उसे मुस्लिम बहुल स्टैकचाय खंगराल में नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस के आपस में लड़ जानेसे मिली। केवल 177 वोट से भाजपा वहां जीती।

भाजपा को यह उम्मीद नहीं थी। इसलिए फिलहाल वहां विधानसभा चुनाव और टल गए।राष्ट्रपति शासन लगे वहां पांच साल होने वाले हैं। नवंबर 2018 में वहांविधानसभा भंग की गई थी। तो जम्मू कश्मीर, लेह करिगल से लेकर मिजरोम तक अब कांग्रेस अपनी स्थितिमजबूत समझ में आ रही है। यही वह 1985 के विधानसभा चुनावों के बाद का पहला मौकाहै जब कांग्रेस को लग रहा है कि स्थितियां उसके अनुकूल हो रही हैं। पांच राज्यों के चुनाव में तीन में कांग्रेस का सीधा मुकाबला भाजपा सेहै। 2018 के पिछले चुनाव में भी था। और तीनों में कांग्रेस जीती थी। मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिंया के विश्वासघात से कांग्रेस सरकार चली

गई। मगर 2023 में उसका परिणाम यह देखने को मिल रहा है कि हर ओपीनियन पोल,राजनीतिक पर्यवेक्षक और खुद भाजपा भी यहां कांग्रेस के आने की संभावनाएंबता रहे हैं। जिस चंबल ग्वालियर संभाग में ज्योतिरादित्य के सिंधियापरिवार का डंका बजता रहा वहां इस बार हालत इतनी खराब है कि उनकी बुआयशोधरा राजे जो उनके पिता माधवराव की तरह कभी चुनाव नहीं हारीं वे भी इसबार चुनाव लड़ने से कतरा गईं। साफ मना कर दिया।

सिंधिया परिवार मेंविजयराजे सिंधिया जिन्हें भाजपा राजमाता कहती है, से लेकर बड़ी बेटीवसुन्धरा राजे और राजमाता के इकलौते पोते ज्योतिरादित्य सब चुनाव हारचुके हैं। लेकिन वर्तमान में से जो यशोधरा कभी नहीं हारीं वे भी इस बारहार के डर से चुनाव मैदान से बाहर हो गई हैं। खुद ज्योतिरादित्य पूरीताकत लगा रहे हैं कि उन्हें विधानसभा चुनाव नहीं लड़ना पड़े। मगर जबकेन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र तोमर, प्रहलाद पटेल और महासचिव कैलाशविजयवर्गीय को मैदान में उतार दिया तो ज्योतिरादित्य का बचा रहना मुश्किलहै।

और खासतौर से इस परिस्थिति में जब पूरी भाजपा यह मान रही है कि मध्यप्रदेश में भाजपा के जो दुर्दिन आए हैं वह ज्योतिरादित्य की वजह से ही आएहैं। ग्वालियर चंबल संभाग में 34 सीटें हैं। जहां इस बार भाजपा के लिए 3- 4 सीटों से ज्यादा निकालना मुश्किल माना जा रहा है। नहीं तो इसी इलाके में हमने वह चुनाव देखे हैं जब सिंधिंया परिवार अपने ड्राइवर को भीविधानसभा जिता देता था। मगर अब खुद महाराज सिंधिया के लिए मुश्किल हो रहीहै।

राहुल गांधी को सबसे ज्यादा उम्मीदें मध्यप्रदेश से ही हैं। वहां अब कोई भी मुद्दा शायद ही कामयाब हो। लेकिन बाकी जगह मुद्दे इम्पार्टेंट रहेंगे।राहुल ने साफ कर दिया है कि वह इन विधानसभा चुनावों में जातिगत जनगणना कोही सबसे बडे मुद्दे के रूप में लेकर जाएंगे। भाजपा के हिन्दू-मुसलमानमुद्दे की काट सामाजिक न्याय ही होगी। सोमवार को चार घंटे से ज्यादा चली कांग्रेस की शीर्ष नीति निर्धारक इकाईसीडब्लयूसी ( कांग्रेस वर्किंग कमेटी) की बैठक में इसी मुद्दे पर सबसेज्यादा बात हुई। बैठक के बाद राहुल ने पत्रकारों को बताया कि सीडब्ल्यूसी

में एकमत से जातिगत जनगणना के पक्ष में प्रस्ताव पारित हुआ। कांग्रेस इसेअपना सबसे बड़ा हथियार मान रही है। विधानसभा तो वह इसके बूते लड़ेगी ही2024 के लोकसभा भी वह इसीके सहारे जाएगी। राहुल ने कहा कि इन्डिया केअधिकांश दल जाति जनगणना पर सहमत हैं। राहुल को इस मुद्दे पर इतना भरोसा है कि उन्होंने भरी प्रेस कान्फ्रेंसमें पत्रकारों के एक जैसे ही सवाल कि प्रधानमंत्री कहते हैं कि आप जातिगतजनगणना के बहाने देश को बांटना चाहते हैं के जवाब में उल्टा पत्रकारों सेपूछ लिया कि यहां बैठे हुए पत्रकारों में से कितने ओबीसी हैं? हाथ उठाएं।हम वहीं थे। एक भी हाथ नहीं उठा। राहुल ने फिर कहा दलित? आदिवासी ?

वैसी ही खामोशी। राहुल ने कहा इसीलिए जरूरी है। समाज के हर वर्ग के लिए उचितप्रतिनिधित्व। जातिगत जनगणना होकर रहेगी। मैंने कहा था कोविड के बारेमें, चीन के बारे में ऐसे ही इसके बारे में कह रहा हूं सत्य निकलेगा। यहबात सही है कि राहुल ने किसान बिल वापसी, अर्थव्यवस्था, ट्रकों को ज्यादाड्राइवर अनुकूल बनाने, कुलियों का मेहनताना बढ़ाने, भूमि अधिग्रगण बिलवापस लेने, नोटबंदी जिस जिस पर जो कहा वह सच साबित हुआ।

पत्रकारों के सवाल को लोग योग्यता से जोड़ रहे हैं। अच्छी बात है। मगरसाढ़े 9 साल में यह दिख गया कि खुद को मेरिट पर आए समझने वाले कितनेपत्रकार इस दौरान पत्रकार रहे और कितने गोदी मीडिया बन गए। अमेरिका में भी ब्लैक पत्रकारिता में नहीं थे। कहीं भी शोषित समाज को ऐसेकाम में नहीं आने दिया जाता जो जनमत बना सकता है। लेकिन अमेरिका नेलोकतंत्र की मूल भावना सबको समान अवसर के मुताबिक ब्लैक को पत्रकारितामें लाने के लिए अफरमेटिव एक्शन ( सकारात्मक प्रयास) चलाया। उनका रुझानपत्रकारिता की तरफ बढ़ाया। सिखाया ट्रेनिंग दी।

अपने समाज की समस्याएं उसी वर्ग का व्यक्ति बेहतर बता सकता है। मंडल कासमय सबसे बड़ा उदाहरण है जब करीब करीब पूरा मीडिया मंडल का विरोध करनेलगा था। दलित साहित्य इसका बड़ा उदाहरण है कि कैसे दलित लेखकों ने दलितोंके अपमान, अमानवीय व्यवहार, शोषण की वह कहानियां लिखीं जो इससे पहले कभी सामने आईं नहीं थीं। महिला लेखन तो इसका विश्वव्यापी उदाहरण माना ही जाताहै।

राहुल ने कितने पत्रकार ओबीसी पूछ कर बड़ा धमाका कर दिया है? इस मामलेमें सिर्फ एक सर्वे हुआ है। एक दो पत्रकारों ने अपने साधनों से मालूमकरने की कोशिश की थी कि मीडिया में कितने दलित पत्रकार हैं? नतीजे बहुतनिराशाजनक थे। उच्च पदों पर जहां निर्णय लेने की जरूरत होती है वहां कोईनहीं था। वर्किंग जनरलिस्ट में भी गिनती के दो चार ही मिले। राहुल का यह सवाल अब खामोश नहीं होगा। इसकी गूंज दूर तक जाएगी।

By शकील अख़्तर

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स के पूर्व राजनीतिक संपादक और ब्यूरो चीफ। कोई 45 वर्षों का पत्रकारिता अनुभव। सन् 1990 से 2000 के कश्मीर के मुश्किल भरे दस वर्षों में कश्मीर के रहते हुए घाटी को कवर किया।

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