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सूर्य की उपासना का पर्व छठ पूजा

सूर्य की उपासना का पर्व छठ पूजा

पृथ्वी पर जीवन की देयतायों को बहाल करने के लिए धन्यवाद ज्ञापन करने के उद्देश्य से छठ पूजा प्रकृति, जल, वायु, सूर्य और उनकी बहन छठी म‌इया को समर्पित है। इस पर्व में पार्वती अर्थात शक्ति के छठे स्वरूप भगवान सूर्य की बहन छठी मैया को देवी के रूप में पूजा जाता है। छठ, षष्ठी का अपभ्रंश है। षष्ठी देवी को कात्यायनी माता के नाम से भी जाना जाता है। नवरात्रि के छठे दिन में भी षष्ठी माता के पूजन की परंपरा है। सूर्य की शक्तियों का मुख्य स्रोत उनकी पत्नी ऊषा और प्रत्यूषा हैं। छठ में सूर्य के साथ-साथ दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना होती है।

सर्वकामना पूर्ति के उद्देश्य से सूर्योपासना का अनुपम लोकपर्व छठ व्रत किए जाने की पौराणिक परिपाटी है। यह पर्व चैत्र व कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है। चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ और कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है। इस पर्व का अन्य नाम छइठ, छठ व्रत, छठ, छठी म‌इया की पूजा, रनबे माय पूजा, छठ पर्व, डाला छठ, सूर्य षष्ठी आदि है। बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाने वाला यह पर्व एक निर्जला व्रत है। यह काली पूजा अर्थात दीपावली के छह दिन बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि, पंचमी तिथि, षष्ठी तिथि और सप्तमी तिथि तक मनाया जाता है। दीपावली के बाद मनाये जाने वाले इस चार दिवसीय व्रत की सबसे कठिन और महत्त्वपूर्ण रात्रि कार्तिक शुक्ल षष्ठी की होती है। कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को यह व्रत मनाये जाने के कारण इसका नामकरण छठ व्रत पड़ा।

पृथ्वी पर जीवन की देयतायों को बहाल करने के लिए धन्यवाद ज्ञापन करने के उद्देश्य से छठ पूजा प्रकृति, जल, वायु, सूर्य और उनकी बहन छठी म‌इया को समर्पित है। इस पर्व में पार्वती अर्थात शक्ति के छठे स्वरूप भगवान सूर्य की बहन छठी मैया को देवी के रूप में पूजा जाता है। छठ, षष्ठी का अपभ्रंश है। षष्ठी देवी को कात्यायनी माता के नाम से भी जाना जाता है। नवरात्रि के छठे दिन में भी षष्ठी माता के पूजन की परंपरा है। सूर्य की शक्तियों का मुख्य स्रोत उनकी पत्नी ऊषा और प्रत्यूषा हैं। छठ में सूर्य के साथ-साथ दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना होती है। प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण अर्थात ऊषा और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण अर्थात प्रत्यूषा को अर्घ्य देकर दोनों का नमन किया जाता है।

भारत में सूर्योपासना का प्रचलन अत्यंत प्राचीन काल से है। वेदों में एकमात्र ॐ नामधारी ईश्वर की उपासना का विधान किया गया है, लेकिन देवता के रूप में सूर्य की महत्ता का उल्लेख संसार के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में मिलता है। अन्य वेदों के साथ ही उपनिषद आदि ग्रन्थों में भी इसका वृहत उल्लेख प्राप्त है। यास्काचार्य ने अपने निरुक्त में सूर्य को द्युस्थानीय देवताओं में पहले स्थान पर रखा है। परंतु पौराणिक ग्रंथों में सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना की गई है, और उनकी महिमा का वर्णन भगवान के रूप में किया गया है, जिसने कालान्तर में सूर्य की मूर्ति पूजा का रूप ले लिया। धीरे- धीरे सूर्य पूजा का प्रचलन और अधिक हो गया। और अनेक स्थानों पर सूर्यदेव के मंदिर भी बनाए गए। सूर्य और इसकी उपासना का विस्तृत वर्णन विष्णु पुराण, भागवत पुराण, ब्रह्म वैवर्त पुराण आदि में अंकित है।

पौराणिक ग्रंथों में सूर्य को आरोग्य का देवता भी माना गया है। सूर्य की किरणों में अनेक रोगों को नष्ट करने की क्षमता है। अनुसंधान के क्रम में कुछ विशेष दिनों पर इसका प्रभाव विशेष पाया गया। वर्तमान में प्रचलित छठ के पावन दिनों में सूर्य के विशेष प्रभाव को आधुनिक विज्ञान ने भी स्वीकार किया है कि षष्ठी तिथि अर्थात छठ को एक विशेष खगोलीय परिवर्तन होता है। इस समय सूर्य की पराबैगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं। इस कारण इसके सम्भावित कुप्रभावों से मानव की यथासम्भव रक्षा करने का सामर्थ्य छठ व्रत के अनुष्ठानों के पालन के माध्यम से प्राप्त होता है। पर्व पालन से सूर्य प्रकाश पराबैगनी किरण के हानिकारक प्रभाव से जीवों की रक्षा सम्भव है। पृथ्वी के जीवों को इससे बहुत लाभ मिलता है। सामान्य अवस्था में पृथ्वी की सतह पर पहुँचने वाली पराबैगनी किरण की मात्रा मनुष्यों या जीवों के सहन करने की सीमा में होने के कारण मनुष्यों पर उसका कोई विशेष हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि उस धूप के द्वारा हानिकारक कीटाणु मर जाते हैं, जिससे मनुष्य को लाभ प्राप्त होता है।

ज्योतिषीय गणना के अनुसार कार्तिक तथा चैत्र मास की अमावस्या के छ: दिन उपरान्त षष्ठी तिथि के दिन बनने वाली खगोलीय स्थिति में सूर्य की पराबैगनी किरणें कुछ चंद्र सतह से परावर्तित तथा कुछ गोलीय अपवर्तित होती हुई पृथ्वी पर पुन: सामान्य से अधिक मात्रा में पहुँच जाती हैं। वायुमंडल के स्तरों से आवर्तित होती हुई, सूर्यास्त तथा सूर्योदय को यह और भी सघन हो जाती है। यही कारण है कि छठ पर्व के समय मानव पर खुले आसमान के तले जल में खड़े होकर अर्ध्य देते हुए सूर्य स्नान करने से शरीर में पड़ने वाले सूर्य किरणों के सकारात्मक प्रभाव को महता प्रदान करने, सूर्य को धन्यवाद ज्ञापन करने के लिए छठ पर्व की परंपरा की शुरुआत हुई। मान्यता है कि महाभारत काल में सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्यदेव की पूजा आरंभ की थी। भगवान सूर्य के परम भक्त कर्ण प्रतिदिन घण्टों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्यदेव को अर्घ्य देते थे। सूर्य कृपा से ही वे महान योद्धा बने थे। आज भी छठ में अर्घ्य दान की कर्ण की यही पद्धति प्रचलित है। एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान श्रीराम और माता सीता ने विधिवत उपवास कर सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था।

ऐसी भी मान्यता है कि माता सीता ने त्रेतायुग में मुंगेर में यह छठ मनाया था, इसके बाद से ही इस व्रत का आरंभ हुआ। मुंगेर में गंगा के बीच में एक शिलाखंड पर स्थित है, जो सीता मनपत्थर सीताचरण मंदिर के लिए जाना जाता है। छठ पूजा की परम्परा और उसके महत्त्व का प्रतिपादन करने वाली अनेक पौराणिक और लौकिक कथाएँ प्रचलित हैं, उनमें से एक कथा के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में असुरों के हाथों देवताओं के हार जाने पर देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में रनबे (छठी मैया) की आराधना की। रनवे अदिति की पुत्री ही थी, लेकिन पुत्र प्राप्ति की कामना से अदिति ने अपनी पुत्री की आराधना की थी। तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति के आदित्य कहे जाने वाले पुत्र हुए, जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी। कुछ कथाओं में इस व्रत के प्रभाव से अदिति को वामन नामक पुत्र प्राप्त होने की बात कही गई है। एक अन्य कथा महाभारत काल के पांडवों से जुड़ी हुई है।

कथा के अनुसार पांडवों के अपना सारा राजपाट द्युत क्रीड़ा में हार जाने पर श्रीकृष्ण द्वारा बताये जाने पर द्रौपदी ने छठ व्रत रखा, तो उनकी समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण  हुईं तथा पांडवों को उनका राज- पाट वापस मिला। कुछ कथाओं में पांडवों की पत्नी द्रौपदी द्वारा भी सूर्य की पूजा करने का उल्लेख है। वे अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लम्बी उम्र के लिए नियमित सूर्य पूजा करती थीं। लोक परम्परा के अनुसार सूर्यदेव और छठी मइया का सम्बन्ध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र शाम्ब को कुष्ठ रोग हो जाने पर इस रोग से मुक्ति के लिए विशेष सूर्योपासना की गई थी, जिसके लिए शाक्य द्वीप से ब्राह्मणों को बुलाया गया था।

एक अन्य कथा के अनुसार संतानहीन राजा प्रियवद को महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ, परंतु वह मृत पैदा हुआ। प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गये और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त ब्रह्मा की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूँ। आप मेरी पूजा करें तथा लोगों को भी पूजा के प्रति प्रेरित करें। राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी।

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Published by अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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