प्रयागराज सिर्फ बहुयज्ञ स्थल के रूप में ही नहीं, बल्कि प्राचीन काल से ही शिक्षा के महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में भी विश्वविख्यात रहा है। इतिहासवेताओं के अनुसार प्राचीन काल में यहाँ अनेक ऋषियों के आश्रम व गुरुकुल थे। त्रेतायुग में प्रयागराज में वर्तमान आनन्द भवन के समीप ही भरद्वाज (भारद्वाज) आश्रम था। यहीं भगवान राम के वन गमन काल में महर्षि भरद्वाज का आश्रम हुआ करता था।
गंगा, यमुना और गुप्त सरस्वती के त्रिवेणी संगम स्थल पर अवस्थित उत्तरप्रदेश के प्रयागराज में आगामी 13 जनवरी 2025 से भव्य रूप से आयोजित होने वाले कुम्भ मेले के कारण प्रयागराज चर्चा के केंद्र में है। पौराणिक मान्यतानुसार सृष्टिकर्ता भगवान ब्रह्मा ने सृष्टि कार्य पूर्ण होने के बाद सबसे प्रथम यज्ञ भारत के उत्तरप्रदेश राज्य के प्रमुख प्राचीन नगर प्रयाग में किया था। संसार के इस प्रथम यज्ञ के प्र और याग अर्थात यज्ञ की सन्धि द्वारा प्रयाग नाम बना। इसीलिए ब्रह्मा के द्वारा सृष्टि रचना के बाद सर्वप्रथम यज्ञ सम्पन्न किए गए इस स्थल का नाम प्रयाग पड़ा। और कालांतर में इस स्थल को प्रयाग के नाम से जाना जाने लगा । वैदिक, पौराणिक और संस्कृत के महाकाव्य ग्रंथों में भी इस स्थान का उल्लेख प्रयाग के रूप में किया गया है। प्रयाग का शाब्दिक अर्थ नदियों का संगम भी है। यहीं पर गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का संगम होता है। पांच प्रयागों का राजा कहलाने के कारण इस नगर को प्रयागराज भी कहा जाता रहा है।
कालांतर में यहां समय- समय पर अनगिनत यज्ञ हुए। इसलिए भी इस स्थल को प्रयाग अर्थात बहु यज्ञ स्थल के रूप में संज्ञायित किया जाने लगा। यज्ञों के अनवरत आयोजन के कारण वहां सनातन वैदिक धर्मियों का प्रतिवर्ष जमावड़ा होने लगा। मकर संक्रांति आदि अवसरों पर यह स्वतः स्फूर्त भीड़ अत्यंत भव्य, धार्मिक, आध्यात्मिक, और सांस्कृतिक होती गई, जो कालांतर में कुम्भ के नाम से प्रसिद्ध हुई। प्राचीन काल से ही एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल के रूप में लोकख्यात प्रयाग अर्थात प्रयागराज के त्रिवेणी संगम में प्रत्येक बारह वर्ष में कुम्भ मेला का आयोजन होता है। यहां हर छह वर्षों में अर्द्धकुम्भ तथा हर बारह वर्षों पर कुम्भ मेले का आयोजन होता है, जिसमें समस्त विश्व से करोड़ों श्रद्धालु पतितपावनी गंगा, यमुना और सरस्वती के पवित्र त्रिवेणी संगम में आस्था की डुबकी लगाने आते हैं। इसलिए इस नगर को संगमनगरी, कुम्भनगरी, तंबूनगरी आदि विभिन्न नामों से भी जाना जाता है।
ज्योतिषीय दृष्टि से कुम्भ मेला एक विशिष्ट काल होता है। इस दौरान ग्रहों की स्थिति प्रयागराज के संगम तट पर गंगा जल को अमृतमय बना देती है। मान्यतानुसार इस काल में किया गया स्नान पापों का क्षरण करने के साथ ही मोक्ष की राह को भी प्रशस्त करता है। यही कारण है कि अर्द्धकुम्भ और कुम्भ मेले में देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु इन स्थानों पर उमड़ते हैं। वर्तमान में यह सबसे बड़े हिन्दू सम्मेलन महाकुम्भ की चार स्थलियों में से एक माना जाता है, शेष तीन हरिद्वार, उज्जैन एवं नासिक हैं। मान्यतानुसार इस पावन नगरी के अधिष्ठाता भगवान श्रीविष्णु स्वयं हैं और वे यहाँ वेणीमाधव रूप में विराजमान हैं। भगवान के यहाँ बारह स्वरूप विद्यमान हैं, जिन्हें द्वादश माधव कहा जाता है। प्राचीन काल से ही यह स्थल महत्वपूर्ण रहा है। उस समय कन्नौज से सड़क सीधे प्रयाग आती थी। गंगा- यमुना के संगम पर स्थित प्रयाग से शृंगवेरपुर वर्तमान मिर्जापुर तक सेना आसानी से जाती थी। गंगा पार होने का घाट शृंगवेर में ही था। रामायण युग में 500 नावों का गरोह यहाँ तैयार रहता था। प्रत्येक नाव पर एक -एक सौ नाविक सशस्त्र युद्ध के लिए वद्धपरिकर रहते थे। प्राचीन भारत में प्रत्येक घाट पर सेनाएं सुरक्षा के लिए तैयार रहती थीं।
ऐतिहासिक वर्णनानुसार प्रयाग एवं वर्तमान कौशाम्बी जिले के कुछ भाग इस रूप में महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं। यह क्षेत्र पूर्व से मौर्य एवं गुप्त साम्राज्य के अंश एवं पश्चिम से कुशान साम्राज्य का अंश रहा है। बाद में यह कन्नौज साम्राज्य में आया। 1526 में नृशंस इस्लामी आततायियों के भारत पर पुनराक्रमण के बाद से प्रयागराज मुगलों के अधीन आया। 1575 में प्रयाग का दौरा करने के बाद अकबर इसके रणनीतिक स्थान से इतना प्रभावित हुआ कि उसने यहाँ एक दुर्ग के निर्माण का आदेश दिया और 1584 तक इसका नाम अल्लाहबास या भगवान का निवास रखा। बाद में शाहजहाँ के अधीन इसे बदलकर इलाहाबाद कर दिया गया।
फिर भी मुगलों से मुक्त कराने के लिए शहर में मराठों के आक्रमण भी होते रहते थे। इसके बाद यह अंग्रेजों के अधिकार में आ गया। 1775 में दुर्ग में थल-सेना के गैरीसन दुर्ग की स्थापना की गई। कालांतर में प्रयाग और इलाहबाद समानांतर रूप में समझे जाने लगे। 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में प्रयागराज भी सक्रिय रहा। 1904 से 1949 तक इलाहाबाद संयुक्त प्रांतों वर्तमान उत्तर प्रदेश की राजधानी था। 16 अक्टूबर 2018 को योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली उत्तरप्रदेश सरकार ने आधिकारिक तौर पर इसका नाम बदलकर प्रयागराज कर दिया।
प्रयागराज सिर्फ बहुयज्ञ स्थल के रूप में ही नहीं, बल्कि प्राचीन काल से ही शिक्षा के महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में भी विश्वविख्यात रहा है। इतिहासवेताओं के अनुसार प्राचीन काल में यहाँ अनेक ऋषियों के आश्रम व गुरुकुल थे। त्रेतायुग में प्रयागराज में वर्तमान आनन्द भवन के समीप ही भरद्वाज (भारद्वाज) आश्रम था। यहीं भगवान राम के वन गमन काल में महर्षि भरद्वाज का आश्रम हुआ करता था। वाल्मीकि रामायण व गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस से भी इस बात की पुष्टि होती है। रामचरित मानस 1/44/1 के अनुसार भरद्वाज मुनि प्रयाग में बसते हैं। उनका श्रीराम के चरणों में अत्यंत प्रेम है-
भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा।
तिन्हहि राम पद अति अनुराग।।- रामचरित मानस 1/44/1
महर्षि भरद्वाज वाल्मीकि के एक शिष्य थे। वे आयुर्वेद के पहले संरक्षक थे। भगवान राम ऋषि भरद्वाज के आश्रम में उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आए थे। तुलसीदास ने रामकथा का आरंभ त्रिवेणी संगम के समीप स्थित प्रयागराज में भरद्वाज मुनि के आश्रम पर परमविवेकी मुनि याज्ञवल्क्य के पावन संवाद से किया था। रामचरित मानस 1/44/5 के अनुसार तीर्थराज प्रयाग में आने वाले श्री वेणीमाधवजी के चरण कमलों को पूजते हैं और अक्षयवट का स्पर्श कर उनके शरीर पुलकित होते हैं। बाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड अध्याय 89 -90 के अनुसार त्रेतायुग के रामायण काल में भरद्वाज का यह आश्रम एक विश्वविद्यालय था। यहाँ सभी प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। सैनिक शिक्षा के लिए इसकी प्रसिद्धि थी। भरद्वाज आश्रम में बड़ा उपवन था। अनेक उटज थे, जहां वृक्षों की भरमार थी। आश्रम में जलाशय की कमी न थी। अनेक भवन थे। नीलवैदूर्य मणि की भांति हरी- हरी घासों से आश्रम की समतल भूमि आच्छन्न थी।
इसका विस्तार 40 मीलों का था। बेल, कपित्थ, कटहल, नींबू और आम के पेड़ फलों से समन्वित थे। हाथी और घोड़ों के रहने के लिए भी स्वच्छ, शुभ्र चार-चार कमरों की शालाएं बनी थी। सैनिक शिक्षा के उद्देश्य से ही यह आश्रम बसा था। वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड अध्याय 89-90 में ही भरद्वाज आश्रम में समतल मैदान, भिन्न -भिन्न प्रकार की हय शालाओं का वर्णन अंकित है। सांग्रामिक शिक्षा की लिए इन सब की अति आवश्यकता थी। मान्यता है कि आश्रम के समीप ही ऋषि भरद्वाज ने भरद्वाजेश्वर महादेव का शिवलिंग स्थापित किया था। वर्तमान में यहाँ श्रीराम लक्ष्मण, महिषासुर मर्दिनी, सूर्य, शेषनाग, नर वराह सहित सैकड़ों मूर्तियाँ हैं। भरद्वाज, याज्ञवल्क्य और अन्य संतों, देवी – देवताओं की प्रतिमा और शिव मंदिर है।
महाभारत आदि पर्व 140- 41 के अनुसार प्रयाग में ही अग्निवेश्याश्रम नामक आश्रम भी था। यहाँ भी विभिन्न प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। अग्निवेश्याश्रम के प्रमुख अग्निवेश्य श्री अगस्त (अगस्त्य) के प्रमुख शिष्य तथा द्रोण के गुरु थे। पांचाल राज द्रुपद भी उनके शिष्य थे। ऐसा प्रतीत होता है कि द्वापर युग में महाभारत काल तक भरद्वाज आश्रम ह्रासोन्मुख हो गया होगा। इसलिए अग्निवेश्य को विंध्य के उस पार अगस्त्य के आश्रम में सांग्रामिक व अन्य शिक्षाओं के लिए जाना पड़ा था। उल्लेखनीय है कि अगस्त्य का आश्रम उस समय भय और आदर का विषय हो चुका था। इस आश्रम में इतने विध्वंसात्मक शस्त्र तैयार होते थे कि राक्षस राज रावण के हृदय में सदा इसका आतंक बना हुआ रहता था। और राक्षसों की एक बड़ी छावनी यहाँ कायम हुई थी। दक्षिण से लौटने पर अग्निवेश्य ने भरद्वाज आश्रम के पास ही अपने आश्रम को संस्थापित किया। परंतु यह लोकप्रिय प्रमाणित नहीं हो सका।
कारण, स्वयं भरद्वाज पुत्र द्रोण को परशुराम के पास सैनिक शिक्षा में पूर्ण योग्यता प्राप्त करने के लिए जाना पड़ा था। इस प्रकार प्रयागराज केवल गंगा, यमुना, सरस्वती जैसी पवित्र नदियों का ही संगम नहीं, अपितु धार्मिक- आध्यात्मिक स्थल के साथ ही सैनिक व अन्य शिक्षा का भी संगम है। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रयागराज प्राचीन काल से ही शैक्षणिक नगर के रूप में प्रसिद्ध रहा है। वर्तमान में भी यह शिक्षा का केंद्र बना हुआ है। जहाँ भारत के सभी प्रदेशों से विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते है। यहाँ इलाहाबाद विश्वविद्यालय जैसा विख्यात शैक्षणिक केंद्र अवस्थित है, जहाँ से अनेकानेक विद्वान ने शिक्षा ग्रहण कर देश व समाज के अनेक भागों में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। प्रयागराज में कई विश्वविद्यालय, शिक्षा परिषद, अभियांत्रिकी महाविद्यालय, चिकित्सीय विश्वविद्यालय तथा मुक्त विश्वविद्यालय शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय भूमिका निभा रहे हैं।