भोपाल। यद्यपि रेवड़ी नामक मीठे खाद्य पदार्थ का सीधा संबंध मुस्लिम भाइयों के ‘गमी त्योहार’ मोहर्रम से है, किंतु अब समय के अनुरूप रेवड़ी का भी महत्व और उसकी तासीर बढ़ती जा रही है, वैसे लोग रेवड़ी का सीधा संबंध नेत्रहीन (अंधे) शख्स से करते आ रहे हैं और कहा गया “अंधा बांटे रेवड़ी, अपने-अपने को दें” लेकिन अब यह रेवड़ी मुस्लिम भाइयों के त्योहार से उछलकर सीधी राजनीति में आ बैठी है और येन-केन-प्रकारेण इसने देश के प्रजातंत्र से अपना नाता जोड़ लिया है और अब भारतीय राजनीति में यह रेवड़ी अहम हो गई है और हमारे राजनेता इसे पाकर अपने आप को धन्य मानने लगे हैं, भारतीय राजनीति में इसकी प्राप्ति के लिए हर पांचवें वर्ष में लंबी कतार लगती है और जिसे मिल जाती है वह अपने आप में खुद को सौभाग्यशाली मानता है।
वैसे भारतीय राजनीति में इस रेवड़ी की शुरुआत राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्रों से हो जाती है, जिसमें रेवड़ियों का अंबार रहता है, हर राजनीतिक दल इन रेवड़ियों को ‘स्वादिष्ट’ मानकर ही वितरित करता है, किंतु कभी-कभी यह रेवड़ियां अपनी तासीर बदलकर कड़वी भी हो जाती है और उपभोक्ता (मतदाता) इसे अनुपयुक्त समझकर इसका तिरस्कार कर देता है।
….और सबसे अहम बात यह कि यह रेवड़ियां राजनीति में इतनी अहम हो गई है कि देश की सर्वोच्च न्यायालय ने भी इन्हें बांटने की प्रक्रिया के सामने इसे रोकने में अपने आपको समर्थ घोषित कर दिया है। अभी-अभी पिछले दिनों ही सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीतिक दलों द्वारा बांटी जा रही वादों की रेवड़ियों के वितरण को रोकने से अपने आपको अयोग्य घोषित कर दिया है। यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने इन रेवड़ियों पर केंद्र सरकार, मध्य प्रदेश सरकार तथा निर्वाचन आयोग को नोटिस अवश्य जारी किए हैं, किंतु स्वयं सुप्रीम कोर्ट यह जानती है कि यह मेहज एक औपचारिकता है, इससे होना जाना कुछ नहीं है। आजादी के बाद के पहले चुनाव से ही चला आ रहा यह घोषणा पत्रिय रोग अब महारोग हो गया है, जिसका फिलहाल कोई उपचार नजर नहीं आ रहा है, जबकि समयानुसार अब यह रेवड़ियां अपना स्वाद बदलने में माहिर हो चुकी है, इनका मीठापन बिल्कुल खत्म हो गया है, अब राजनीति में उनके लिए किसी नए नाम की खोज जरूरी है।
सबसे बड़ी चिंता का विषय यह है कि जब सर्वोच्च न्यायालय ने ही इन रेवड़ियों के खातमे से अपने आप को असमर्थ सिद्ध कर दिया, तो फिर ऐसी कौन सी हस्ती है, जो इनका खत्म कर सके, क्योंकि आजकल तो देश-प्रदेश में सरकारें बनने-बिगड़ने का मुख्य आधार ही यह रेवड़ियां हो चुकी है और भारतीय मतदाता स्वयं इन रेवड़ियों को परखने का विशेषज्ञ हो गया है, किंतु जो भी हो फिलहाल ऐसा कतई नहीं लगता कि भारतीय राजनीति में इन रेवड़ियों का चलन बंद हो जाएगा और बिना इनके उपयोग में कोई सरकार बन पाएगी? इसीलिए फिलहाल इस रेवड़ी चलन के खातमें की कल्पना करना भी व्यर्थ ही होगा।
इसी ‘रेवड़ी कल्चर’ को लेकर यह भी जानना जरूरी है कि इन रेवड़ियों के साथ ही बड़ी कहावत जुड़ी है- “हींग लगे ना फिटकरी, रंग चोखा होय” अर्थात इन रेवड़ियों के निर्माण में थोड़े दिमाग के अलावा कुछ भी खर्च नहीं होता। मतदाता की व्यक्तिगत व्यथा व उसका मनोविज्ञान समझने वाला कोई भी राजनीतिक विद्वान बखूबी असरदार रेवड़ियों का निर्माण कर सकता है, पर…. इसके साथ सबसे बड़े दुख की बात यह है कि इन रेवड़ियों के बेहतर असर के लिए हर राजनेता लालायित रहता है, किंतु वह इनके निर्माण पर जो कुछ भी थोड़ा खर्च करता है, वह धन उसका स्वयं का नहीं, बल्कि जनता का ही होता है, हर सत्तारूढ़ दल अब तक यही सब करता आया है और इस चलन के बंद होने की कोई संभावना फिलहाल नजर नहीं आ रही।
इस प्रकार रेवड़ी तो मोहर्रम से लेकर राजनीति तक अहम है, जिसका स्वाद पिछले 75 सालों से हर कोई चखता आ रहा है, मीठा होने पर गटक लेता है और कड़वा होने पर थूक देता है, जो भी हो…. लेकिन यह तो कहना ही पड़ेगा की रेवड़ी अपने आप में काफी महत्वपूर्ण है, फिर वह मानव जीवन के किसी भी क्षेत्र में क्यों ना हो?