भोपाल। पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक में एक फिल्म आई थी, जिसमें एक गाने के बोल थे- ‘‘कसमें वादे प्यार वफा, सब बातें है, बातों का क्या….’’ वैसे फिल्म में तो यह गाना उसके कथानक पर था, किंतु वास्तव में देखा जाए तो यह गाना फिल्म के कथानक से ज्यादा हमारे देश की राजनीति पर अवतरित होता है, अब इसे हमारे प्रजातंत्र या चुनाव प्रणाली का दोष कहे? या और कुछ, किंतु यह सही है कि चुनावों के समय विजय प्राप्त करने के लिए बढ़-चढ़कर आकर्षित व लोक-लुभावन नारे और वादे मतदाताओं के सामने परोसे जाते है और विजय प्राप्ति के बाद अगले चुनावों के लिए उन्हें लाल बस्तें में बंद करके रख दिया जाता है और यदि उन वादों में दो-चार प्रतिशत वादे पूरे भी किए जाते है तो वे राजनीतिक दल या उसके प्रत्याक्षी के खर्च पर नही बल्कि मतदाताओं के हितों के लिए रखी गई सरकारी राशि, जो स्वयं मतदाताओं से भारी करों के रूप में एकत्रित की जाती है, उसके दम पर।
हमारा भारत विश्व के सभी प्रजातांत्रिक देशों में सिरमौर माना जाता है, पूरी दुनिया के सामने हमारे देश की सरकार भारत को ऐसे प्रस्तुत करती है, जैसे इससे बड़ा लोक-कल्याणकारी देश विश्व में कोई नही, किंतु इस देश के भुक्तभोगी ही जानते है कि यह प्रजातंत्र उन्हें कितना भारी पड़ रहा है, अब जबकि हमारे देश के प्रजातंत्र की हम हीरक जयंति मना रहे है, तब हमारे संवैधानिक संगठनों को यह राजनीतिक छल समझ में आ रहा है, यद्यपि हमारे प्रजातंत्र की मूल परिभाषा के सभी अंगों पर सत्तारूढ़ सरकार अपना कब्जा करना चाहती है और फिर राजतंत्र को ‘एकतंत्र’ के रूप में चलाना चाहती है, किंतु प्रजातंत्र के अंग विशेषकर न्यायपालिका अब इतनी सशक्त हो गई है कि वह सत्तारूढ़ दल की इस मनोकामना को पूरी नही होने दे रही हैI
जिसका ताजा उदाहरण भारतीय राजनीति के ‘रेवड़ी कल्चर’ की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई फटकार है, इस फटकार में सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों ने यहां तक कह दिया कि- ‘‘केन्द्र तथा राज्य सरकारों के पास मुफ्त सुविधाओं के लिए पैसा है, जजों के वेतन और पेंशन के लिए नहीं, चुनाव आते ही रेवडि़यों की झड़ी लग जाती है।’’ सर्वोच्च न्यायालय की इस फटकार को राजनीतिक सरकारों ने कितनी गंभीरता से लिया, इसका पता तो इसी से चल जाता है कि सरकारी पक्ष या विपक्ष के किसी भी राजनीतिक दल ने सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नही की, इससे स्पष्ट होता है कि पक्ष हो या विपक्ष सभी राजनीतिक दल ‘‘एक ही थाली के चट्टे-बट्टे है।’’
आज का सबसे अहम् सवाल यही है कि केन्द्र व राज्यों की ये मुफ्त योजनाऐं वोट की खरीद-फरोख्त नही तो फिर क्या है? ….और जहां तक हमारे देशवासियों का सवाल है, वे भी इस अपराध के दोषी है, जो आजादी के बाद की इतनी लम्बी अवधि के बाद भी ‘‘राष्ट्रप्रेमी भारतीय’’ साबित नही हो पा रहे है, वे यदि सतर्क होते तो आज राजनीतिक दल उनका इस तरह शोषण थोड़े ही कर पातें? किंतु आज के इन राजनीतिक दलों ने देश के नागरिकों को उनकी पारिवारिक समस्याओं मंहगाई आदि में इतना उलझा दिया कि भारतीय नागरिकों को अपने परिवारों के भरण-पोषण की चिंता से ही मुक्ति नही मिल पाती और इसी कारण देश में ‘‘आपा-धापी का राज’’ है।
किंतु अभी भी देर नही हुई है, भारतवासियों को निजी समस्याओं के चलते कुछ समय राष्ट्रहित के लिए भी निकालना चाहिए और इस ‘मुफ्त कल्चर’ को समझकर आज की राजनीति और राजनेतओं को सही रास्ते पर लाने का संकल्प लेना चाहिए, वर्ना फिर यही चलता रहा तो हमारे देश का फिर भगवान ही मालिक होगा।