Freebies: हमारे संविधान ने भारतीय प्रजातंत्र के चारों अंगों को स्वतंत्रता पूर्वक अपने दायित्व निभाने की सीख दी है और ये चारों अंग पिछले पचहत्तर वर्षों से संविधान की भावना को मूर्तरूप देने का प्रयास भी करते है,
किंतु इनके इस पुनीत कार्य में स्वार्थी सत्ता की राजनीति बहुत बड़ी बाधक बनी हुई है, जहां तक कार्यपालिका का सवाल है, उसे तो सत्ता व उसके संरक्षक राजनीतिक दल के इशारों पर चलना ही है, क्योंकि यह ‘जनतंत्र’ है,
जनता द्वारा चुने गए राजनेताओं व राजनीतिक दलों के नेतृत्व में कार्यपालिका को काम करना ही है,
किंतु आजादी के बाद पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर उन्नीस महीनें तक पूरे देश को अपने कब्जें में रखा था,
जिसका खामियाजा उन्हें अपनी जान गंवाकर देना पड़, उसके बाद अब फिर एक बार वैसी ही स्थिति ‘इंतिहास दोहराने’ की तर्ज पर बनती नजर आ रही हैI
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जब सत्ता प्रजातंत्र के चरों अंगों को अपने कब्जें में लाने का प्रयास कर रही है और इसी एक मसले पर न्यायपालिका में सत्ता के खिलाफ रूख नजर आने लगा है
इसी कारण सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश काफी मुखर होकर अपने न्याय प्रकट करने लगे है, जिसके ताजा उदाहरण सुप्रीम कोर्ट द्वारा सरकार से यह पूछा जाना है कि- ‘‘रेवड़ी बांटने के लिए पैसा है,
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की तनख्वाह के लिए नही’’, साथ ही यह सवाल भी किया गया कि ‘‘मुफ्त की योजनाएं वोट की खरीद-फरोख्त नही है तो फिर क्या है?’’, ‘‘राज्यों के पास मुफ्त बीज के लिए पैसा है, लेकिन जजों के लिए नहीं?’’
आखिर सर्वोच्च न्यायालय को सरकार से ऐसे तीखे सवाल करने की जरूरत क्यों पड़ी?
चुनाव आयोग भी काफी मुखर
क्या सरकार या किसी राजनीतिक दल ने इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ने की कौशिश की? केवल सर्वोच्च न्यायालय ही नही अब तो चुनाव आयोग भी काफी मुखर हो गया है,(Freebies)
मुख्य चुनाव आयुक्त ने सरकार से कहा कि ‘‘सत्तारूढ़ राजनीतिक दल देश की जनता को यह बताएं कि मुफ्त के वादों से देश पर कितना आर्थिक कर्ज बढ़ेगा?’
क्योंकि आज तो कई राज्य आर्थिक संकट के कारण अपने कर्मचारियों को वेतन देने में भी अपने आपको असमर्थ पाने लगे है।(Freebies)
इस प्रकार कुल मिलाकर देश में एक अजीब माहौल बनता जा रहा है, एक तरफ सत्ता प्रजातंत्र के सभी अंगों को अपने कब्जें में करना चाहती है और इस सोच के पीछे संविधान को कोई अहमियत नही दी जा रही है,
वही प्रजातंत्र का मुख्य अंग न्यायपालिका दिनों-दिन मुखर होकर खुलेआम सरकार के नियंत्रण प्रयासों का डटकर मुकाबला कर रही है, अब यह संग्राम आगे जाकर कौन सा रूप ग्रहण करेगा और फिर ‘प्रजातंत्र’ का क्या हश्र होगा?
इसकी कल्पना तो फिलहाल मुश्किल है, किंतु हालात जरूर यह बता रहे है कि यह संघर्ष देश व देशवासियों के लिए कतई हितकारी नही है, किंतु यह ‘उन्हें’ समझाए कौन?