रियो द जनेरो शिखर सम्मेलन पर भी ट्रंप का साया महसूस हुआ। विभिन्न देश ट्रंप के नए कार्यकाल से जुड़ी आशंकाओं के अनुरूप अपनी नीति को नए सिरे से तय करने के प्रयास में जुटे हुए हैं। वैसे में रियो सम्मेलन की यही सफलता मानी जाएगी कि वहां जी-20 के अधिकांश राष्ट्राध्यक्ष/शासन प्रमुख आए। प्रमुख नेताओं में सिर्फ रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन गैर-हाजिर रहे, जिनकी जगह रूस की नुमाइंगदी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने की।
ब्राजील का शहर रियो द जनेरो जी-20 की अप्रसांगिकता का गवाह बना। दरअसल, यहां यह जाहिर हुआ कि कैसे हर गुजरते साल के साथ इस मंच की उपयोगिता संदिग्ध होती जा रही है। विश्व की सबसे बड़ी 20 अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के नेता एक जगह इकट्ठे हों, लेकिन वे विश्व की बुनियादी समस्याओं पर एक राय ना बना पाएं, तो उस मंच की भूमिका और जरूरत पर सवाल खड़े होना लाजिमी ही है।
जी-20 का 2022 का शिखर सम्मेलन में इंडोनेशिया के बाली में हुआ था। उस समय यूक्रेन युद्ध का साया उस पर पड़ा, जिस कारण वहां साझा घोषणापत्र पर आम सहमति बन सकी। साझा घोषणापत्र के रूप में जारी दस्तावेज में सिर्फ यह दर्ज किया गया कि किन देशों ने इस युद्ध और उससे बनी विश्व परिस्थितियों के बारे में क्या राय जताई है। इस लिहाज से 2023 में नई दिल्ली शिखर सम्मेलन अपेक्षाकृत कामयाब रहा। यहां कम-से-कम यह तो जरूर हुआ कि भले ही कमजोर भाषा के साथ एक साझा घोषणापत्र पर सहमति बन गई।
नई दिल्ली घोषणापत्र को उचित ही भारतीय कूटनीति की सफलता बताया गया था। इसे वैश्विक गोलबंदी के बीच दोनों समूहों में भारत की बढ़ती जरूरत के रूप में चिह्नित किया गया। नई दिल्ली में पश्चिमी देशों और चीन-रूस के नेतृत्व में उभरती धुरी दोनों ने एक साझा दस्तावेज पर दस्तखत किए। इस दस्तावेज की भाषा पश्चिम के सख्त रुख के विपरीत थी। बहरहाल, गौरतलब है कि यह सम्मेलन सितंबर में आयोजित हुआ था। उसके महीने भर बाद ही हमास के इजराइल पर हुए हमलों के साथ फिलस्तीन के गजा में शुरू हुए इजराइली मानव संहार ने वैश्विक परिस्थितियों में एक नया बदलाव ला दिया। इस घटनाक्रम ने वैश्विक गोलबंदी को और सख्त किया है। इसकी छाया आज हर अंतरराष्ट्रीय बैठक पर है। रियो में आयोजित जी-20 शिखर सम्मेलन के उस छाया से बचने की संभावना पहले से नहीं थी। ये बात 18 नवंबर की रात जाहिर हो गई।
जी-20 नेताओं ने रियो घोषणापत्र जारी किया है, लेकिन उसकी भाषा को देखें, तो उसका कोई व्यावहारिक मतलब नहीं है। सार यह कि रियो शिखर सम्मेलन इस समय की प्रमुख वैश्विक घटनाओं पर किसी पहल या प्रभावशाली साझा रुख तय करने में विफल रहा है। घोषणापत्र के तीन पहलुओं पर ध्यान दीजिएः
जी-20 नेताओं ने ग़जा पट्टी में मानवीय स्थिति और लेबनान में तनाव वृद्धि पर चिंता जताई। उन्होंने मानवीय सहायता में बढ़ोतरी और युद्धविराम की जरूरत पर जोर दिया।
जी-20 देशों ने यूक्रेन की लड़ाई में ऐसी हर रचनात्मक पहल का स्वागत किया, जो शांति कायम करने में सहायक हो।
शिखर सम्मेलन ने इस बात पर जोर दिया कि यूक्रेन की लड़ाई का वैश्विक ऊर्जा एवं खाद्य सुरक्षा पर खराब असर पड़ा है।
शिखर सम्मेलन में भागीदार नेताओं ने दुनिया को परमाणु हथियारों से मुक्त रखने का पक्ष लिया।
जी-20 नेताओं ने इस बात को स्वीकार किया कि प्रगतिशील कराधान (progressive taxation) विषमता को घटाने का प्रमुख औजार है।
मगर इन सभी मसलों पर कोई निर्णय नहीं हुआ। ना ही मिल-जुल कर उपरोक्त भावनाओं को अमली जामा पहनाने की कोई योजना सामने आई।
यह रेखांकित करने की जरूरत है कि साझा घोषणापत्र में विभिन्न देशों के उन वक्तव्यों को शामिल नहीं किया गया है, जिन पर पूरी सहमति नहीं थी। अर्जेंटीना के सुपरनोवा कैपिटलिस्ट* बताए जाने वाले राष्ट्रपति हैवियर मिलेय ने दस्तावेज पर दस्तखत करने से पहले यह स्पष्ट कर दिया कि उनकी इसमें शामिल कई बिंदुओं से असहमति है। खास कर उन्होंने प्रगतिशील कराधान, आर्थिक गैर-बराबरी और सोशल मीडिया पर प्रतिबंध से संबंधित चिंताओं एवं सोशल मीडिया पर स्वतंत्रता की जरूरत संबंधी बातों से असहमति जताई।
तो सार क्या है? स्पष्टतः यही कि जी-20 नेताओं ने काफी ऊर्जा ऐसी कमजोर भाषा पर सहमति बनाने में लगाई, जिसका कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है। ग़जा या लेबनान में युद्धविराम की जरूरत है, यह कहने का क्या अर्थ है, जब युद्धविराम लागू करने की किसी ठोस रूप-रेखा पर रजामंदी नहीं उभरी। उसी तरह परमाणु हथियार मुक्त दुनिया की इच्छा का कोई मतलब नहीं है, जिस समय अमेरिका ने नाटो के सदस्य देशों में बनी मिसाइलों का इस्तेमाल करने की इजाजत यूक्रेन को दे दी हो और इसकी आशंका के मद्देनजर रूस पहले ही अपनी तरफ से परमाणु अस्त्रों का इस्तेमाल ना करने की वचनबद्धता से औपचारिक रूप से हट चुका हो।
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने विभाजित हो रहे विश्व बाजार, आर्थिक मुद्दों को सियासी रंग देने, संरक्षणवादी कदमों आदि के खिलाफ चेतावनी दी। मगर ये तमाम रुझान आज की ठोस हकीकत हैं, जिनका प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। इस सिलसिले में यह अवश्य याद कर लेना चाहिए कि जी-20 की स्थापना दुनिया में आर्थिक नीतियों पर सहमति बनाने और उन पर अमल में तालमेल के मकसद से किया गया था।
आरंभ में यह मंच आधिकारिक स्तर का था, जिसे बाद में वित्त मंत्री स्तर का बनाया गया। 2007-08 की वैश्विक मंदी के बाद इसके शिखर सम्मेलन के आयोजन की शुरुआत हुई। असल में जी-20 की स्थापना 1990 के दशक में अस्तित्व में आई एक-ध्रुवीय दुनिया का परिणाम थी। इस नए वैश्विक ढांचे के केंद्र में अमेरिका था, जिसके तुरंत बाद की शुरुआती परिधि पर जी-7 के उसके सहयोगी देश थे। परिधि की अगली कतारों में बाकी उभरती एवं नए वैश्विक सप्लाई चेन में संभावित प्रमुख भूमिका वाले देशों को रखा गया। तब यह बात इस मंच के संचालकों की कल्पना से बाहर थी कि दशक भर के अंदर इस वैश्विक ढांचे के सामने नई उभरी आर्थिक ताकतों की जोरदार चुनौती खड़ी हो जाएगी।
2017 आते-आते इस चुनौती को बर्दाश्त करना अमेरिका और उसके साथी देशों के लिए कठिन हो गया। नतीजतन, अमेरिका ने चीन के खिलाफ व्यापार युद्ध की शुरुआत कर दी। यह युद्ध धीरे-धीरे तकनीकी एवं भू-आर्थिक टकराव में तब्दील हो चुका है। इस बीच यूक्रेन युद्ध से बनी परिस्थिति में भू-राजनीतिक बंटवारा एक ठोस हकीकत बन चुका है। गज़ा में मानव संहार और उसे पश्चिमी देशों के समर्थन ने वैश्विक गोलबंदी को और तीखा बनाया है। ऐसे में जब संयुक्त राष्ट्र जैसे मंच पर सहमति बनना असंभव-सा हो गया हो, तो जी-20 जैसे अपेक्षाकृत अनौपचारिक मंच से उम्मीद रखने का कोई मजबूत आधार नहीं हो सकता।
पिछले वर्ष भारत में जी-20 के आयोजन को नरेंद्र मोदी सरकार ने घरेलू राजनीति के तकाजों की वजह से अत्यधिक महत्त्व दिया और मीडिया के जरिए इस समूह की सदारत को भारत की उपलब्धि के रूप में पेश किया गया। मगर अब साल भर बाद खुद भारतीय मीडिया के कवरेज पर ध्यान दें, तो यह साफ हो जाता है कि जी-20 का आयोजन एक रस्म-अदायगी बन कर रह गया है। आने वाले कुछ वर्षों में मुमकिन है कि इस आयोजन का स्तर और गिर जाए।
यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप राष्ट्रपति चुनाव जीत चुके हैं। अगले 20 जनवरी को अमेरिका की सत्ता औपचारिक रूप से उनके हाथ में आ जाएगी। ट्रंप बहुपक्षीय सहयोग की नीति में भरोसा नहीं रखते, यह उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में भी जाहिर किया था। इस बार वे व्यापार युद्ध और तेज करने का इरादा जताते हुए सत्ता में लौटे हैं। उनकी घोषणा है कि उनका प्रशासन चीन पर 60 फीसदी और अन्य देशों पर 10 से 20 फीसदी आयात शुल्क लगाएगा। इस तरह अमेरिकी संरक्षणवाद एक नई ऊंचाई पर पहुंचेगा। इसका जवाब देने को दूसरे मजबूर होंगे, यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। जब रुझान यह हो, तो साफ है कि बहुपक्षीय आर्थिक समन्वय और राजनीतिक-कूटनीतिक सहमति के मकसद से बने जी-20 जैसे मंच की उपयोगिता बहाल होने की कोई संभावना नहीं है। दरअसल, इस बारे में सोचने तक की गुंजाइश नहीं बनती।
रियो द जनेरो शिखर सम्मेलन पर भी ट्रंप का साया महसूस हुआ। विभिन्न देश ट्रंप के नए कार्यकाल से जुड़ी आशंकाओं के अनुरूप अपनी नीति को नए सिरे से तय करने के प्रयास में जुटे हुए हैं। वैसे में रियो सम्मेलन की यही सफलता मानी जाएगी कि वहां जी-20 के अधिकांश राष्ट्राध्यक्ष/शासन प्रमुख आए (प्रमुख नेताओं में सिर्फ रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन गैर-हाजिर रहे, जिनकी जगह रूस की नुमाइंगदी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने की)।2025 में जब जी-20 का 20वां शिखर सम्मेलन दक्षिण अफ्रीका मे होगा, तब सर्वोच्च नेताओं का ऐसा जमावड़ा जुटेगा, यह उम्मीद करना भी कठिन हो सकता है।