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गांधी जयंती अंहिसा को मनसा वाचा कर्मणा अपनाए

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द्वेष का मूल भय है। ये दोनों एक ही सिक्के के सीधे और उलटे पहलू … विरोधी के भय से ही हममें द्वेष उत्पन्न होता है। परन्तु अहिंसा के शब्दकोष में बाहरी शत्रु जैसा कोई शब्द ही नहीं है। जब यह चीज समझ में आ जाती है तब मनुष्य का भय भाग जाता है और उसके साथ ही द्वेष का भी अपने आप अंत हो जाता है। इस प्रकार विरोधी के हृदय परिवर्तन का अर्थ हमारा हृदय-परिवर्तन भी है।

एक न्यूज़ चैनल के नकारे एंकर की रिपोर्ट पर सोशल मीडिया में बहस छिड़ी है। एक नृशंस हत्या पर एंकर की रिपोर्ट का रुख हिन्दू-मुस्लिम नफरत बढ़ाने वाला माना गया। टीवी मीडिया की रिपोर्टिंग पर फिर पत्रकारीय नैतिकता के सवाल खड़े हुए हैं। देखने-समझने वालों के बजाए टीवी पत्रकारिता आज टीवी कंपनी मालिक के प्रति उत्तरदायी हो गयी है। और मीडिया मालिक भी सत्ता सहयोग पाने के चक्कर में समाज सेवा भूल गए हैं। कंपनी का कमाया धन सत्ता सहयोग से बनता जरुर है लेकिन आता वह भी समाज की स्वीकारिता से ही है। उद्योग और पत्रकारिता की अनैतिकता अभी छोड़ते हैं और समाज के प्रति उत्तरदायी सत्ता की नैतिकता पर आते हैं। देश के अलावा दुनिया भर में हिंसा से लड़ने में समाज संघर्ष करता ही दिख रहा है।

आज कुछ देशों में सत्ता द्वारा उकसायी जा रही नफरत व हिंसा में समाज घिरा दिख रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध हो या मध्य एशिया में फैली हिंसा, या फिर भारत में फैलती नफरत हो इसके भयानक परिणाम अन्य देशों को भी भुगतने ही पड़ेंगे। इस सब में वहां की सत्ता व उद्योग की लालसा पर वहां के मीडिया की मेहरबानी भी रही है। समाज इन सभी की लालसा भुगतने पर मजबूर है। सोशल मीडिया का समाज पर असर अच्छा कम, और भड़काऊ ज्यादा होता रहा है।

आज सूचना के फैलाव, विस्तार में समाज की समझ कैसे बड़े? और विवेक से कैसे समाज अपने उत्तरदायित्व निभाने में लगे? भारत को उसकी असल सुंदरता व खूबसूरती में देखने में ही हिन्दुस्तान की भलाई है। समाज को सीखना होगा कि जो हल हिंसा से नहीं निकलते वे अहिंसा से ही हल हो सकते हैं। गांधीजी का मानना था कि असभ्यता की हिंसा में लगे देशों को अहिंसा में रमा हिन्दुस्तान ही सभ्यता का रास्ता दिखा सकता है।

लंबे समय तक महात्मा गांधी के सहयोगी रहे और उनके आखिरी वर्षों को ‘पूर्णाहुति’ में सहेजने वाले प्यारेलाल ने सत्याग्रह, अहिंसा और ईश्वर-शरणता पर गांधी विचारों को विस्तार से रखा। आजादी के वक्त देश में हिंसा व दंगों का भयानक माहौल था। जिसको देश-दुनिया के दृश्य में आज भी देख सकते हैं। वे लिखते हैं, “गांधीजी की दृष्टि में अहिंसा केवल एक दर्शन नहीं थी। परन्तु कार्य करने की एक पद्धति थी। हृदय परिवर्तन का एक साधन थी। गांधीजी ने साम्प्रदायिक दंगों में उसका प्रयोग करके काफी विस्तार से उसके रहस्य की चर्चा की है।“

“हिंसा करना एक विशेष व्याधि है, एक रोग है। साम्प्रदायिक दंगों की तह में डर की मनोवृत्ति रहती है। जिसका नैतिकता का विचार न रखने वाले अखबार (आज का मीडिया) दुरुपयोग करते हैं। और जिसे भड़का कर वे आम लोगों में पागलपन पैदा करते हैं। एक अखबार (आज टीवी चैनल) भविष्यवाणी कर देता है कि दंगे होने वाले हैं, दिल्ली में सारी लाठियां और छुरियां बिक गयी हैं। और इस समाचार से हर आदमी घबरा जाता है। दूसरा अखबार (टीवी चैनल) यहां-वहां दंगे होने की खबर देता है और पुलिस पर दोषारोपण करता है कि एक जगह उसने हिंदुओं का पक्ष लिया दूसरी जगह मुसलमानों का। सामान्य लोग इससे भी परेशान हो जाते हैं।“

“द्वेष का मूल भय है। ये दोनों एक ही सिक्के के सीधे और उलटे पहलू हैं। इसलिए मारने की जितनी इच्छा होती है, उतनी ही मरने की तैयारी कम होती है। विरोधी के भय से ही हममें द्वेष उत्पन्न होता है। परन्तु अहिंसा के शब्दकोष में बाहरी शत्रु जैसा कोई शब्द ही नहीं है। जब यह चीज समझ में आ जाती है तब मनुष्य का भय भाग जाता है और उसके साथ ही द्वेष का भी अपने आप अंत हो जाता है। इस प्रकार विरोधी के हृदय परिवर्तन का अर्थ हमारा हृदय-परिवर्तन भी है।“

“भय की भावना को जीतने का मार्ग शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर छिपा लेना नहीं है। परन्तु अपने भीतर ऐसी श्रद्धा पैदा करना है जो कभी विचलित नहीं होती। खतरे को स्पष्ट रूप में देख कर भी उसके सामने शांत और स्वस्थ बने रहना और ईश्वर की भलाई पर विश्वास रखना ही सच्ची बुद्धिमता है। इस प्रकार हम सत्याग्रह की गहरी से गहरी बुनियाद – प्रार्थना पर आ जाते हैं।

सत्याग्रही पशुबल के अत्याचार से अपनी रक्षा करने के लिए ईश्वर पर भरोसा करता है। जीवन के विविध क्षेत्रों में आत्म-समर्पण की उदात्त और वीरतापूर्ण कला सीखने में प्रार्थना प्रथम और अंतिम पाठ है। गांधीजी का मानना था प्रार्थना किसी बुढ़िया का फुरसत के समय का मनोरंजन नहीं है। प्रार्थना को अच्छी तरह समझा जाए और उचित रूप में उसका उपयोग किया जाय तो वह कार्य का अत्यंत शक्तिशाली साधन है।“

“अवश्य ही प्रार्थना के लिए ईश्वर में सजीव श्रद्धा होनी चाहिए। ऐसी श्रद्धा के बिना सफल सत्याग्रह की कल्पना नहीं की जा सकती। गांधीजी कहते थे ईश्वर को किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है, जब तक कि उसका अर्थ जीवन का सजीव धर्म है – दूसरे शब्दों में नियम और नियम का निर्माता ईश्वर एक ही है। मरने का साहस इस विश्वास से पैदा होता है कि ईश्वर सबके हृदय में विराजमान है और ईश्वर की उपस्थिति में कोई भय नहीं होना चाहिए।

ईश्वर की सर्वव्यापकता के ज्ञान का अर्थ विरोधी कहलाने वाले लोगों के प्राणों के लिए भी आदर होता है। क्रोध और द्वेष तथा दूसरे सब हीन आवेगों पर विजय पाने की शक्ति प्रार्थना से आती है। इसके अभाव में सत्याग्रही में क्रोध, भय और प्रतिशोध के बिना मरने का साहस नहीं पैदा होगा। जब आवेगों का जोर होता है और भय तथा सामूहिक उन्माद लोगों पर छा जाता है, तब प्रार्थना में श्रद्धा रखने वाले मनुष्य को तूफान में भी अपना मस्तिष्क ठंडा रखना चाहिए और पशु के स्तर पर उतर आने से इनकार करना चाहिए।“

“हिंसा में भी प्रेम-धर्म की विजय के दृष्टांत मिलते हैं। गांधीजी का मानना था मानव-जाति मर जाती, यदि समय समय पर मनुष्य में दैवी गुणों का प्रकटीकरण इस प्रकार न होता। अहिंसा अथवा प्रेम की सच्ची कसौटी निर्भयता है। संपूर्ण प्रेम से सारा भय दूर हो जाता है। इसके विपरीत, भय इस बात को सूचित करता है कि जिससे हम डरते हैं उसके प्रति हममें प्रेम या अहिंसा का अभाव है।

परन्तु जब हृदय में डर हो तब बहादुरी का दिखावा करने से कोई लाभ नहीं होता। उससे काम नहीं चलता। ….ऐसे दृष्टांत भी मिले हैं जब बालक निर्भय होकर सांप के साथ खेलता रहा है और उसका बाल भी बांका नहीं हुआ है। परन्तु यदि कोई प्रौढ़ व्यक्ति, जो सांप से डरता है, सांप के साथ खेलने की कोशिश करे, तो उसके स्पर्श में ही सांप को भय दिखाई दे जाएगा और कदाचित सांप उसे काट लेगा। यही बात मानवों के बारे में भी सच है।“

“गांधीजी के पास इन सब समस्याओं का उत्तर था। यह सच है कि हत्यारा दुष्ट प्रचार का शिकार हो जाता है। परन्तु ऐसा प्रचार भी दूषित वातावरण में ही असरकारी हो सकता है। यदि वातावरण से जहर को निकाल दिया जाए, तो सिद्धांतहीन प्रचार व्यर्थ हो जाएगा। सही उपाय यह है कि आरंभ अपने आप से किया जाए। ….. आपकी प्रार्थना व ईश्वर प्रेम व्यर्थ का रटन होगा यदि वह डर, घबराहट और सामान्य लोगों के उन्माद के वातावरण को साफ नहीं करती। … मन, वचन और कर्म से हम उन्माद का प्रोत्साहन देने से इनकार कर सकते हैं। … शब्द से भी अधिक शक्तिशाली शुद्ध विचार होता है।… आज अहिंसा को गगन-विहार कह कर उसकी हंसी उड़ाने का फैशन हो गया है। फिर भी गांधीजी का मानना था कि हिन्दू पंथ को जीवित रखने और भारत को अखंड रखने का यही एकमात्र उपाय है।“

आज पंथ-जमात या हिन्दू-मुस्लिम में बैठाया जा रहा डर सत्ता की लालसा भर है। समाज को ही सत्य और अहिंसा के धर्म या मज़हब पर लौटना व चलना होगा। सोशल मीडिया में ही शकील आज़मी यह शेर दिखा।

लगाना बाग तो उसमें मोहब्बत भी जरा रखना,

परिन्दों के बिना कोई शजर पूरा नहीं होता।

समाज को गांधी जयंती पर मनसा, वाचा, कर्मणा से स्मरण रहे।

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By संदीप जोशी

स्वतंत्र खेल लेखन। साथ ही राजनीति, समाज, समसामयिक विषयों पर भी नियमित लेखन। नयाइंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर।

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