‘घूमर’ जितनी सैयामी खेर की फिल्म है उतनी ही अभिषेक बच्चन की भी है। संभव है कि ‘गदर 2’ और ‘ओएमजी 2’ के हल्ले में यह फिल्म थिएटरों में दब जाए, लेकिन सैयामी और अभिषेक दोनों के लिए यह अभूतपूर्व फिल्म है। सैयामी खुद एक क्रिकेटर रही हैं। क्रिकेट की समझ ने इस भूमिका को प्रभावी बनाने में उनकी मदद की है। और इस समझ ने ही उनके एक दायें हाथ के बल्लेबाज से एक बाएं हाथ की स्पिनर बनने की प्रक्रिया को विश्वसनीय बनाया है।
प्रतिभा और व्यक्तित्व का ‘घूमर’
सैयामी खेर उन कलाकारों में हैं जो मौका मिले तो अपनी प्रतिभा से चकित कर दें। उन्हें लोग खास कर अनुराग कश्यप की फिल्म ‘चोक्ड’ और मयंक शर्मा की वेब सीरीज़ ‘ब्रीद’ के दूसरे सीज़न से पहचानते हैं। मगर अब शायद उन्हें ‘घूमर’ से जाना जाएगा। नाम अगर ‘घूमर’ है तो कुछ घूमना ज़रूरी है। और यहां इसका मतलब क्रिकेट की बॉल के ज़्यादा स्पिन होने से भी है और किसी के व्यक्तित्व के पूरे कायाकल्प से भी। बॉल इतनी स्पिन हुई कि घूमर हो गई। इसी तरह एक लड़की दायें हाथ के बल्लेबाज़ से बायें हाथ की गेंदबाज़ में तब्दील हो गई। क्रिकेटर बनीं सैयामी खेर अपनी मेहनत से भारतीय महिला टीम में पहुंच जाती हैं, मगर एक दुर्घटना में अपना दायां हाथ गंवा देती हैं। क्रिकेट में ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाने के बाद शराब में डूब गया एक पुराना खिलाड़ी यानी अभिषेक बच्चन उनकी मदद के लिए आगे आता है। जिसने कभी सैयामी के टीम में सलेक्शन पर ऐतराज़ किया था वही शराबी, कुंठित और सनकी व्यक्ति अपनी कोचिंग से सैयामी को दायें हाथ की बल्लेबाज से बायें हाथ की स्पिनर में तब्दील कर देता है और फिर उसी ऊंचाई पर पहुंचा देता है। इससे ज़्यादा कोई क्या घूमेगा।
बड़े कोचिंग संस्थानों या निजी तौर पर जो भारी–भरकम फीस लेकर कोचिंग देते हैं, उन्हें छोड़ दीजिए। उनसे अलग, ऐसे कई कोच मिल जाएंगे जो खुद खिलाड़ी के तौर पर आगे नहीं बढ़ सके, लेकिन उन्होंने अपनी कोचिंग से कई नए खिलाड़ियों को बहुत ऊंचाई तक पहुंचा दिया। ये लोग शायद अपने ख्वाबों को अपने शिष्यों के जरिये पूरा होते देखते हैं। ऐसे मामलों में कोच को भी मेहनत, लगन, समय और भावनाओं का खिलाड़ी जितना ही निवेश करना पड़ता है। और जब सफलता ज़मीन पर उतरती है तो कहना मुश्किल है कि खिलाड़ी की खुशी ज़्यादा बड़ी होती है या कोच की। ‘घूमर’ भी जितनी सैयामी खेर की फिल्म है उतनी ही अभिषेक बच्चन की भी है। संभव है कि ‘गदर 2’ और ‘ओएमजी 2’ के हल्ले में यह फिल्म थिएटरों में दब जाए, लेकिन सैयामी और अभिषेक दोनों के लिए यह अभूतपूर्व फिल्म है। सैयामी खुद एक क्रिकेटर रही हैं। क्रिकेट की समझ ने इस भूमिका को प्रभावी बनाने में उनकी मदद की है। और इस समझ ने ही उनके एक दायें हाथ के बल्लेबाज से एक बाएं हाथ की स्पिनर बनने की प्रक्रिया को विश्वसनीय बनाया है।
हंगरी में एक शूटर हुए हैं, कैरोली टकास। वे सेना में डॉक्टर थे और एक ग्रेनेड ब्लास्ट में उन्होंने अपना दायां हाथ खो दिया था। हिम्मत हारे बगैर उन्होंने बायें हाथ से प्रेक्टिस शुरू की और 1948 और 1952 के ओलिंपिक में गोल्ड मेडल जीते। दूसरे विश्वयुद्ध की वजह से सन 1940 और 1944 के ओलिंपिक हो नहीं सके, अन्यथा वे उनमें भी जीत सकते थे। लेखक और निर्देशक आर बाल्की उन्हीं की जीवन-कथा से ‘घूमर’ बनाने को प्रेरित हुए। उन्होंने सैयामी की दादी के रूप में शबाना से बेहतरीन काम लिया है। साथ ही उन्होंने ट्रांसजेंडर एक्टर इवांका दास को मौका दिया और शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर को भी, जो फिल्मों के संरक्षण और संग्रह का काम करने वाला ‘फिल्म हैरिटेज फाउंडेशन’ नाम का एनजीओ चलाते हैं। लेकिन अमिताभ बच्चन से बाल्की साहब इस कदर अभिभूत हैं कि उनकी ज्यादातर फिल्म योजनाओं में अमिताभ शामिल रहते हैं। ‘घूमर’ में भी अमिताभ एक कमेंटेटर के तौर पर उपस्थित हैं। वैसे भी यह अमिताभ का पसंदीदा काम है। इस बारे में उन्होंने अपनी प्रतिभा कभी ‘नमक हलाल’ में दिखाई थी और बाद में वर्ल्डकप में बाकायदा कमेंट्री बॉक्स में दिखा चुके हैं।
इस फिल्म में अभिषेक बच्चन का अभिनय कई जगह यह मांग करता लगता है कि अब हमें उनको अमिताभ बच्चन की आभा से आज़ाद करके देखने की आदत डालनी चाहिए। यानी पिता के साथ उनका तुलनात्मक अध्ययन बंद कर देना चाहिए। हालांकि इसी फिल्म में एक-दो जगह वे खुद अपने पिता को दोहराते से लगते हैं। दूसरे लोग अभिषेक को अलग करके देखें उससे ज्यादा ज़रूरी है कि वे खुद अमिताभ की परछायीं से बाहर आएं। याद कीजिए, अमिताभ बच्चन को भी अपने शुरूआती कई सालों तक दिलीप कुमार के प्रभाव से बाहर आने के लिए मशक्कत करनी पड़ी थी।