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गहराई से निकाला हुआ भूमिगत जल अत्युत्तम

भूजल एक मीठे पानी के स्रोत के रूप में एक प्राकृतिक संसाधन है। मानव के लिए जल की प्राप्ति का एक प्रमुख स्रोत भूजल ही हैं, जिनसे कुओं और नलकूपों द्वारा पानी निकाला जाता है। भूमिगत जल मृदा अर्थात धरती की उपरी सतह की अनेक सतहों के नीचे चट्टानों के छिद्रों या दरारों में पाया जाता है। उपयोगिता की दृष्टि से भूमिगत जल सतह पर पीने योग्य उपलब्ध जल संसाधनों के मुकाबले अधिक महत्त्वपूर्ण है।

3 सितम्बर – भूमिगत जल संरक्षण दिवस

-अशोक “प्रवृद्ध”

मानव जीवन में जल का विशिष्ट महत्व है। जल सभी रोगों का इलाज है। जल आनुवंशिक रोगों को भी नष्ट करता है। जल में सोमादि रसों को मिलाकर सेवन करने से मनुष्य दीर्घायु होता है। चिकित्सा के लिए जल सर्वोत्तम होता है। हृदय के रोगों में भी इसका प्रयोग करना चाहिए। यह मनुष्य को शक्ति और गति देता है। पौष्टिकता और कर्मठता के लिए शुद्घ जल का सेवन लाभकारी होता है। जल बलवर्धक है और शरीर को सुंदरता प्रदान करता है। जल ही सभी प्राणियों के जीवन का आधार है। जल का मुख्य गुण है पदार्थों को गीला करना और उसके दोषों को निकालना। विद्युत जल का प्रकाश है। पृथ्वी जल का आश्रय स्थान है। प्राण जल का सूक्ष्म रूप है। बहता हुआ जल शुद्घ और गुणकारी होता है। हिमालय से निकलने वाली नदियों का जल विशेष लाभकारी है। गहराई से निकाला हुआ जल अत्युत्तम होता है। गहराई से निकाला हुआ जल अर्थात भूतल से निकाला हुआ भूजल अर्थात भूगर्भिक जल अर्थात भूमिगत जल। धरती की सतह के नीचे चट्टानों के कणों के बीच के अंतरकाश अथवा रन्ध्राकाश में मौजूद जल को भूजल अथवा भूगर्भिक जल कहते हैं।

सतह से नीचे स्थित भूगर्भिक जल में मृदा जल भी शामिल है। भूजल एक मीठे पानी के स्रोत के रूप में एक प्राकृतिक संसाधन है। मानव के लिए जल की प्राप्ति का एक प्रमुख स्रोत भूजल ही हैं, जिनसे कुओं और नलकूपों द्वारा पानी निकाला जाता है। भूमिगत जल मृदा अर्थात धरती की उपरी सतह की अनेक सतहों के नीचे चट्टानों के छिद्रों या दरारों में पाया जाता है। उपयोगिता की दृष्टि से भूमिगत जल सतह पर पीने योग्य उपलब्ध जल संसाधनों के मुकाबले अधिक महत्त्वपूर्ण है। भारत के लगभग अस्सी प्रतिशत गाँव, कृषि एवं पेयजल के लिए भूमिगत जल पर ही निर्भर हैं, लेकिन चिंता की बात यह है कि भारत सहित सम्पूर्ण विश्व में भूमिगत जल अपना अस्तित्व तेजी से समेट रहा है।

केन्द्रीय भूजल बोर्ड के अन्वेषणों के अनुसार भारत के भूमिगत जल स्तर में प्रतिवर्ष 20 सेंटीमीटर की औसत दर से कमी हो रही है, जो हमारी भीमकाय जनसंख्या ज़रूरतों को देखते हुए गहन चिंता का विषय है। भारत में 60 प्रतिशत सिंचाई हेतु जल और लगभग 85 प्रतिशत पेय जल का स्रोत भूजल ही है, ऐसे में भूजल का तेजी से गिरता स्तर एक बहुत बड़ी चुनौती के रूप में उभर रहा है। जनसंख्या वृद्धि, कम होती वर्षा का परिमाण, बढ़ता औद्योगिकीकरण, बढ़ता शहरीकरण, वृक्षों की अंधाधुंध कटाई, विलासिता, आधुनिकतावादी एवं भोगवादी प्रवृत्ति, स्वार्थी प्रवृत्ति एवं जल के प्रति संवेदनहीनता, भूजल पर बढ़ती निर्भरता एवं इसका अत्यधिक दोहन, परम्परागत जल संग्रहण तकनीकों की उपेक्षा, समाज की सरकार पर बढ़ती निर्भरता, कृषि में बढ़ता जल का उपभोग आदि के कारण सम्पूर्ण विश्व में जल संसाधन निरंतर चिंता का विषय बना हुआ है।

औद्योगिक क्रांति के बाद संसार ने विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों का काफी दोहन किया है। पिछली शताब्दी में मानव जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि दर्ज की गई है। जिसके कारण पीने के लिए शुद्ध पेयजल की आपूर्ति के लिए भूजल का दोहन किया गया। हमलोगों का वर्षा जल संचयन के मामले में खराब प्रदर्शन रहा है। आज स्थिति यह है कि भूजल के मामले में समृद्ध माने जाने वाले क्षेत्र भी आज पेयजल संकट का सामना कर रहे हैं। यही कारण है कि भूजल के संरक्षण के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 3 सितम्बर को भूमिगत जल संरक्षण दिवस मनाया जाता है।

कृषि विकास किसी भी देश की अर्थव्यवस्था का मेरुदण्ड है। सघन फसल उत्पादन में पानी एक अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण घटक है, जिसका कोई विकल्प नहीं है। इसलिए पानी बचाने, बारिश का पानी सहेजने और जल सिंचन में मितव्ययता पर ध्यान देने की सख्त आवश्यकता है। अच्छी बारिश के मानसून के चार महीनों में बारिश की हर बूँद को सहेजने की आवश्यकता है। वर्षा का अधिकांश जल सतह की सामान्य ढालों से होता हुआ नदियों में जाता है तथा उसके बाद सागर में मिल जाता है। वर्षा के इस बहुमूल्य शुद्ध जल का भूमिगत जल के रूप में संरक्षण अति आवश्यक है। लेकिन चिंता की बात यह है कि न तो हर प्रकार की मिट्टी, पानी को जलग्रहण करने वाले चट्टानों तक पहुंचाने में सक्षम होती है और न ही हर प्रकार की चट्टानें पानी को ग्रहण कर सकती हैं।

कायांतरित अथवा आग्नेय चट्टानों की अपेक्षा अवसादी चट्टानें अधिक जलधारक होती हैं, जैसे कि बलुआ चट्टानें। कठोर चट्टानों में जल-संग्रहण कर सकने योग्य छिद्र ही नहीं होते। जिन भूमिगत चट्टानों में छिद्र अथवा दरारें होती हैं, उनमें यह पानी न केवल संग्रहित हो जाता है, अपितु एक छिद्र से दूसरे छिद्र होते हुए अपनी हलचल भी बनाये रखता है, और ऊंचे से निचले स्थान की ओर प्रवाहित होने जैसे सामान्य नियम का पालन भी करता है। मृदा से चट्टानों तक पहुंचने की प्रक्रिया में पानी छोटे-बड़े प्राकृतिक छिद्रों से छनता हुआ संग्रहित होता है, अतः इसकी स्वच्छता निर्विवाद है। किन्तु इस पानी के प्रदूषित हो जाने पर बहुत बड़े जल-संग्रहण को नुकसान पहुँचा सकता है, क्योंकि ये भूमिगत जलसंग्रह बड़े और आपस में जुड़े हो सकते हैं।

वर्षाजल और सतही जल का आपसी अन्योन्याश्रित संबंध है। नदियों में बहने वाला जल केवल वर्षाजल अथवा ग्लेशियर से पिघल कर बहता हुआ पानी ही नहीं हैं। नदी अपने जल में भूमिगत जल से भी योगदान लेती है, साथ ही भूमिगत जल को योगदान देती भी है। ताल, झील और बाँधों के इर्द-गिर्द भूमिगत जल की सहज सुलभता का कारण यही है कि ये ठहरे हुए जलस्रोत धीरे- धीरे अपना पानी इन भूमिगत प्राकृतिक जल संग्रहालयों को प्रदान करते रहते हैं। इस प्रकार पृथ्वी के उपर पाए जाने वाले जलस्रोत और भूमिगत जलस्रोत एक दूसरे की सहायता पर निर्भर होते हैं। वर्षा के जल को संग्रहित कर चट्टानों तक पहुंचाया जाये तो भूमिगत जलाशयों को भरा जा सकता है। प्रकृति अपने सामान्य क्रम में यह कार्य करती रहती हैं, किन्तु आज यह समस्या विकराल रूप ले चुकी है।

इसलिए भूमिगत जल के संचयन एवं संरक्षण हेतु प्रत्येक व्यक्ति को सचेत रहकर अपने स्तर पर इसके लिए कार्य अवश्य ही करना चाहिए। बूंद -बूंद से घड़ा भरता है और बारिश के पानी से भूगर्भ जल का स्तर ऊंचा होता है। आकाशीय पानी को भूगर्भ स्रोत से जोड़ने के लिए जगह-जगह पर तालाब, आहर, ढोढा आदि का निर्माण कर रिचार्ज-पिट की व्यवस्था की जानी चाहिए, ताकि-अतिवृष्टि में भी पानी बह कर बर्बाद नहीं हो। वर्षा-जल संधारण जरूरी भी है और जिम्मेदारी भी है। फसल के सिंचाई हेतु कम पानी की सिंचाई पद्धतियां अपनाना चाहिए। जैसे- फव्वारा एवं बूंद- बूंद सिंचाई प्रणाली। भूजल पुनर्भरण एक जलवैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत सतही जल रिसकर और पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से खिंच कर भूजल का हिस्सा बन जाता है। इस घटना को रिसाव को निस्यंदन द्वारा भूजल पुनर्भरण कहते हैं। भूजल पुनर्भरण एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसे आजकल कृत्रिम रूप से संवर्धित करने की दिशा में प्रयास किये जा रहे हैं, क्योंकि जिस तेजी से मनुष्य भूजल का दोहन कर रहा है केवल प्राकृतिक प्रक्रिया पुनर्भरण में सक्षम नहीं है।

वर्तमान भारत में इसके लिए जलशक्ति अभियान नामक कार्यक्रम संचालित किया जा रहा है। इसका उद्देश्य वर्षा जल की हर बूंद का संरक्षण करना है। भारत में बहुत सा वर्षा जल बर्बाद हो जाता है। इसके संरक्षण में वृद्धि हेतु 2050 तक का लक्ष्य रखा गया है। धारणीय विकास लक्ष्यों में सभी के लिए शुद्ध पेयजल आपूर्ति के लक्ष्य में से 2019 तक भारत ने 56.6 प्रतिशत का लक्ष्य ही प्राप्त किया है। 122 देशों की जल गुणवत्ता सूची में भारत का स्थान 120वां है। देश के ताजे जलस्रोतों का 78 प्रतिशत कृषि में लग जाता है। इसको बचाना बहुत जरूरी है। कृषि में भूमिगत जल का 64 प्रतिशत खर्च हो जाता है। इसके कारण जल की बहुत कमी होती जा रही है। सिंचाई के तरीके में आमूलचूल परिवर्तन करते हुए प्रत्येक बूंद से अधिकतम उपज वाला मिशन लेकर चलना होगा।

By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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