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टिकट कटी तो बागी हए भाजपाई

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हरियाणा विधानसभा चुनाव की टिकट को लेकर भाजपा में हुए असंतोष को लोग भले बग़ावत मान बैठे हों पर सत्ता मेंवापिसी के लिए पार्टी को यह माफ़िक़ दिख रही है। चार मंत्रियों सहित 15 विधायकों के टिकट काट देना कोई मामूलीबात नहीं फिर भी भाजपा बे-फ़िक्र बताई जा रही है। हरियाणा में वापिसी पार्टी के लिए चुनौती बन चुकी है। पूर्व मुख्यमंत्रीभूपेन्द्र सिंह हुड्डा के हाथ चुनाव की कमान आने से यह चुनौती और भी ज़्यादा मुश्किल बन चुकी है। पर अगर दूसरा रास्तान हो तो पार्टी कर भी क्या सकती है। या यूँ कहिए कि भाजपा के हाथ बंधे हुए हैं सूबे में पिछले एक दशक से लंगों मेंनाराज़गी है। इसी नाराज़गी को दूर करने के लिए पार्टी को मुख्यमंत्री तक बदलना पड़ा पर हालात सुधरने की जगहबिगड़ते चले गए और अब जब आख़िरी हथियार या नहीं टिकट वितरण, तो असंतोष के बाद पार्टी में बग़ावत हो चली है।यह अलग बात है कि दस साल सत्ता के बाद लोगों में सत्ता विरोधी भावना वलवती होना नई बात नहीं है। और यह स्वाभिकभी पर यह सोच लेना कि चेहरे बदल देने से यह समस्या निपट जाएगी तो यह तो भ्रम ही समझिए। चनावी नतीजे बताते रहेहैं कि सत्ता विरोधी भावना सरकार के ख़िलाफ़ ही रही है। लेकिन विधानसभा जैसे चुनाव में पार्टी के पास विधायकों केचेहरे बदलने के प्रयोग से कुछ होता भी नहीं। दिल्ली में निगम चुनावों में पार्टी ऐसा ही प्रयोग पहले कर चुकी है। भ्रष्टाचारका जब खुले आम प्रचार पार्टी नेताओं ने ही तो नंगी होती पार्टी ने चेहरे बदल कर चुनाव लड़ा, पार्टी जीती और निगम कीसत्ता में वापिसी भी की । पर हरियाणा में भाजपा का यह प्रयोग इस बार सफल हो पाएगा,पार्टी नेताओं को भी इसकाभरोसा कम ही है। 90 सदस्यीय हरियाणा विधानसभा में पिछले चुनावों में 40 सीटें मिली थीं यानी एक तिहाई से ज़्यादाविधायकों के टिकट इस काट दिए गए हैं। अब इस बार ऊँट किस करवट बैठेगा यह तो इंतज़ार की बात रही पर भाजपाईयह भी दोहरा रहे हैं कि दूसरे राज्यों में यह रणनीति पार्टी फ़ायदेमंद साबित हुई है।

पिटे मोहरों पर भाजपा लगाएगी दांव !

दिल्ली विधानसभा के चुनाव नजदीक आने के साथ ही भाजपा में अटकलों का बाजार तो गर्म हो ही चला है।साथ ही पूर्वसांसदों की चर्चा भी शुरू हो ली है। यह अलग बात है कि चुनावों के बाद भी ये पूर्व सांसद पूर्व ही कहलाते रहेंगे या फिरदिल्ली की जनता इन्हें पूर्व सांसद की जगह विधायक कहलाने का हक़ देगी। अपन बात कर रहे हैं पूर्व सांसद मीनाक्षीलेखी, प्रवेश वर्मा और रमेश विधुरी की । भाजपा में आम चर्चा है कि पार्टी इन पर विधानसभा चुनाव में दांव लगा करचुनाव में माहौल बनाएगी और तीनों अपने अपने तरीके से अपने को भावी मुख्यमंत्री भी घोषित करवाने की जुगत में रहसकते है ताकि आसपास की सीटों पर भी जीत की संभावना बनाई जा सके । पर पार्टी में ही लोग इनके हालात दिल्ली कीपूर्व महापौर, पूर्व सांसद, पूर्व राष्टीय महामंत्री अनिता आर्य की तरह गुमनाम हो कर इतिहास बन कर रह जाने की संभावनासे भी इंकार नहीं कर रहे हैं। पर अनिता आर्य ही क्या मोदी के रहते चुनावी राजनीति से तोबा करने वाले पूर्व केन्द्रीय मंत्रीडॉक्टर हर्ष वर्धन का नाम तो जोड़ा ही जा सकता है साथ ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से राजनीति की शुरूआतकरने वाले और धुरंधर रहे नेता विजय गोयल भी बापू के चरखा की देखभाल मैं दिन काट रहे है। वरना तो विजय गोयल याफिर डा हर्षवर्धन में ही आज के भाजपा नेताओं से क्या कमी थी। भला जिन नेताओं पर पार्टी दांव खेलने की कोशिश मेंउन्होंने पार्टी के लिए कौनसे तीर चलाए थे। किसी ने लोकसभा चुनावों अपनों के ही साथ बे-वफ़ाओं की तो किसी ने संसदके भीतर ही अपने ही साथियों को गरिआया,बे-अदबी की और अपशब्द बोले तो किसी ने अपनी सांसदी को सिंहासनसमझ वोटर तो क्या अपनी ही पार्टी के चंद चाटुकारों को छोड़ बाक़ी लोगों से पूरे पाँच साल दूरी बनाए रखी। पर जुगाड़की राजनीति हो तो धुरंधरों को भी पूछे भी कौन। पर अगर लोग ही पूर्व सांसदों के सीएम बनने पर यह टिप्पणी,कर रहे होंकि इन नेताओं का हाल कहीं चोबेजी गए थे छब्बे बनने और लोटे दुब्बे बनकर तो कोई नई बात नहीं। और फिर भाजपा मेंरायता फैलाने वालों की भी कोई कमी तो है नहीं।

केजरीवाल रिहा तो चुनाव का बदला रंग

बिल्ली यानी कि भाजपा के भाग्य से क्या हरियाणा चुनावों का छींका टूट पाएगा ? सवाल थोड़ा टेडा है मगर राजनीतिकगलियारों में जितनी पार्टियों को चुनाव की चिंता है उतनी ही शायद इस सवाल के जवाब की भी। ख़ासतौर से दिल्ली केमुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के जेल से रिहा होने के बाद से। कल तक जो भाजपा के नेता केजरीवाल को गरिया रहे थे वेमसट्ट मारे हुए हैं। न तो वे केजरी को ज़मानत मिलने पर बुरा -भला कह रहे हैं और न ही कोई बयानबाज़ी । संभव है किसुप्रीम कोर्ट के केजरीवाल को ज़मानत देने और सीबीआई को फटकारने के बाद भाजपाईयों को पार्टी का चुनावी खेलसमझ आ रहा हो। पिछले एक दशक से हरियाणा की सत्ता पर क़ाबिज़ भाजपा को इन चुनावों में सत्ता हाथ से जाती दिखरही है और तभी भाजपा नेताओं में केजरीवाल की ज़मानत पर चिंता दिखी। भला हरियाणा में इस बार सत्ता किसके हाथआती है यह बात अलग रही पर भाजपा की टेंशन को पढ़ा और समझा जा सकता है। हरियाणा चुनावों मुक़ाबला तिकोनाहोना है। यानी भाजपा,कांग्रेस और आप पार्टी के बीच। भले लोग यह कहें कि केजरीवाल की ज़मानत होने से पहले तकभाजपा को भरोसा था कि कांग्रेस से आप की तरफ़ शिफ़्ट हुआ दलित और पिछड़ा वोट आप से फिर कांग्रेस की तरफ़फिर शिफ़्ट होगा जिसका फ़ायदा भाजपा को होगा। लेकिन केजरीवाल को ज़मानत मिलने और कांग्रेस व आप के बीचगठबंधन न हो पाने से भाजपा का जीत की उम्मीद का गणित थोड़ा गड़बड़ा गया। और भाजपा ने पार्टी नेताओं औरकार्यकर्ताओं से आप पार्टी को लेकर बयानबाज़ी नहीं करने का इशारा किया। भाजपा को उम्मीद है कि कांग्रेस और आपके गठबंधन न होने और केजरीवाल को ज़मानत मिलने के बाद आप पार्टी पूरे दमख़म से चुनाव लड़ेंगी और कांग्रेस के वोटकाटेगी जिसका फ़ायदा भाजपा को मिल सकेगा। पर अगर हरियाणा के लोग ही यह कहें कि हरियाणा के लोग भाजपाकी सत्ता से आजिज़ आ चुके हैं या फिर हरियाणा में सत्ता विरोधी लहर चल पड़ी है तो भाजपा आश्चर्य भी कैसा।राजनैतिक गलियारों में यह खुसर-फुसर पहले ही चल चुकी थी कि चुनाव से पहले किसी भी सूरत में केजरीवाल कोज़मानत मिलनी तय है भले दबाब किसी भी नेता का क्यूं न हो। अब भले सूबे में पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के बूतेकांग्रेस सरकार बनाने का दंभ भरे हों लेकिन केजरीवाल को ज़मानत मिलने के बाद से कांग्रेस की यह चिंता भी थोड़ी बढ़गई है कि पंजाब से सटी हरियाणा विधानसभा की कुछ सीटों से जहां कांग्रेस को उम्मीद थी अब मुश्किल भी हो सकता है।अब हरियाणा में कौन जीतता है और कौन जाता है हार यह देखना बाक़ी है।

By ​अनिल चतुर्वेदी

जनसत्ता में रिपोर्टिंग का लंबा अनुभव। नया इंडिया में राजधानी दिल्ली और राजनीति पर नियमित लेखन

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