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हरियाणा-जम्मू-कश्मीरः परिणाम अप्रत्याशित नहीं….?

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भोपाल । देश के दो प्रधान धर्मों हिन्दू व मुस्लिम के बाहुलय मतदाताओं वाले राज्यों की विधानसभा चुनावों के परिणामों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इन राज्यों के मतदाता धर्म आधारित तो बिल्कुल भी नही है। जम्मू-कश्मीर मंे जहां भाजपा को नेशनल कांफ्रेस से करीब आधी सीटें मिली, वहीं हिन्दू मतदाताओं के बाहुल्य वाले हरियाणा में कांग्रेस का काफी अवमूल्यन हुआ है, वैसे इस राज्य में कांग्रेस की जड़े गहरी है, किंतु इस बार मतदाताओं की सोच में समयानुसार परिवर्तन आया है, जिसका परिणाम यहां भाजपा का परचम लहराना है।

यद्यपि राजनीतिक पण्डितों की जम्मू-कश्मीर को लेकर यह सोच या आशंका अवश्य है कि वहां से नेशनल कांफ्रेस का जीतना भारत के लिए खतरनाक इसलिए है, क्योंकि नेशनल कांफ्रंेस के नेता फारूख अब्दुल्ला व उनके बेटे उमर अब्दुल्ला की निजी सोच पाकिस्तान के काफी निकट है, वे समय-समय पर पाकिस्तान की पैरवी करते रहते है, इसलिए यह भारत की एकता के लिए खतरनाक हो सकता है, किंतु चूंकि जम्मू हिन्दू प्रधान और कश्मीर मुस्लिम प्रधान क्षेत्र है, इसलिए जम्मू और कश्मीर के राजनेताओं और मतदाताओं की सोच अलग हो सकती है, किंतु इस मसले को भारत सरकार को समय रहते गंभीरता से लेना चाहिए, वर्ना धरती का स्वर्ग हमारे हाथों से खिसक सकता है, इसी विभाजनकारी खोज के कारण भाजपा का कश्मीर में कोई अस्तित्व नही रह गया है, जबकि जम्मू में भाजपा का स्थान काफी अहम् है, इसलिए यदि यह कहा जाए कि जम्मू-कश्मीर की राजनीति धर्म आधारित है तो वह कतई गलत नही होगा।

फिर इस राजनीतिक बिन्दु पर हमने अभी से गंभीर रूप से ध्यान नही दिया तो फिर हम पाक अधीकृत कश्मीर को हमारे पाले में लाने के बारे में भी सोच नही कर पाएगें। इस तरह कुल मिलाकर हमारे मस्तक पर विराजित इन दोनों महत्वपूर्ण क्षेत्रों जम्मू एवं कश्मीर के भविष्य पर गंभीर चिंतन जरूरी है और इस चिंतन की शुरूआत इन विधानसभा चुनाव परिणामों के साथ ही शुरू करना चाहिए। करीब एक दशक के बाद जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव हुए है और जनता ने भाजपा-कांग्रेस दोनों को ही सीधे-सीधे नकारते हुए नेशनल कांफ्रंेस के हाथों में राज्य की बागडोर सौंप दी है और लगे हाथ फारूख अब्दुल्ला ने अपने बेटे उमर अब्दुल्ला का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए घोषित भी कर दिया।

यहां इस राजनीतिक माहौल में कांग्रेस के पूर्व वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद को भी भुलाया नही जा सकता, जिनकी वजह से अतीत में जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस का परचम लहराया करता था, किंतु अब वे कांग्रेस से नाराज होकर अपने स्वयं द्वारा गठित नए राजनीतिक दल के सर्वेसर्वा है, यद्यपि उनकी अपनी पार्टी का राज्य में फिलहाल कोई विशेष अस्तित्व नही है, किंतु वे एक जाने-पहचाने राष्ट्रीय नेता अवश्य है। उनकी अपनी इन चुनावों में क्या भूमिका रही? यह अभी तक स्पष्ट नही हो पाया है किंतु उनकी मुख्य पहचान जम्मू-कश्मीर से ही हैं।

अब राजनीतिक पंडितों का इन चुनाव परिणामों को लेकर मुख्य चिंतन यह है कि इन दोनों राज्यों हरियाणा व जम्मू-कश्मीर के परिणामों का इस वर्ष के अंत तक होने वाले दो राज्यों व अगले वर्ष के प्रारंभ में दिल्ली तथा उसके साथ होने वाले राज्यों के विधानसभा चुनावों पर क्या होगा? भाजपा व कांग्रेस दोनों ही दलों के वरिष्ठ नेता इसी चिंतन में व्यस्त है। आज की एक और परिपाटी बन गई है वह यह कि जब चुनाव आते है तो वहां राजनीति केंद्रित हो जाती है और परिणामों के असर जैसे कई भविष्यवादी मुद्दों पर चिंतन करती है और फिर ‘कुर्सी’ मिल जाने के बाद सब कुछ भुला देती है। यह सोच देश के राजनीतिक भविष्य के लिए कितनी सही है, इस पर निष्पक्ष चिंतन जरूरी है और इन चुनाव परिणामों के भावी असर पर सोच-विचार भी निष्पक्षता की परिधि में जरूरी है।

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