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हिजाबः ताकि बढ़े कट्टरपंथ!

हिजाब का मुद्दा वापिस चर्चा में है। इस बार मामला केरल में तिरुवनंतपुरम स्थित राजकीय मेडिकल कॉलेज का है। यहां 26 जून को सात मुस्लिम छात्राओं ने ऑपरेशन थिएटर में हिजाब पहनने की आज्ञा नहीं मिलने पर उनकी मजहबी मान्यताओं के अनुरूप, विकल्प के तौर पर लंबी आस्तीन वाली ‘स्क्रब जैकेट’ और ‘सर्जिकल हुड’ पहनने की अनुमति मांगी है। कॉलेज प्रशासन ने रोगियों की सुरक्षा को सर्वोपरि मानते हुए ऑपरेशन थिएटरों के भीतर ‘विसंक्रमित प्रोटोकॉल’ और ‘अंतरराष्ट्रीय पोशाक संहिता’ मानदंडों का हवाला देकर इस मांग का विरोध किया है।

कॉलेज अधिकारियों का कहना है, “परिसर में किसी भी समुदाय के छात्रों पर अपने पसंदीदा मजहबी परिधान पहनने या अपनी मजहबी पहचान बनाए रखने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। …इतने वर्षों में, इससे पहले कभी भी किसी ने यह अनुरोध नहीं किया था कि ऑपरेटिंग रूम की पोशाक को उनकी मजहबी आवश्यकताओं के अनुरूप संशोधित कर दिया जाए।” आखिर कुछ मुस्लिम छात्राओं की इस एकाएक मांग का कारण क्या है?

केरल की स्वास्थ्य मंत्री वीना जॉर्ज ने मामले में राजनीतिक हस्तक्षेप से इनकार किया है। यहां वामपंथी सरकार का पक्ष बहुत दिलचस्प है, क्योंकि बीते वर्ष कर्नाटक में जब मजहबी उन्माद में आकर स्कूली छात्राओं द्वारा हिजाब कक्षा में पहनने की हठ कर रही थी, तो उन्हें जिन वैचारिक समूहों का समर्थन मिल रहा था, उनमें जिहादी संगठनों (अल-कायदा सहित), स्वयंभू सेकुलरवादियों-उदारवादियों के साथ वामपंथियों का कुनबा भी अग्रणी भूमिका निभा रहा था। अभी कर्नाटक का मामला शीर्ष अदालत में लंबित है।

केरल में इस प्रकार की मांग, कोई नई नहीं है। जनवरी 2022 में पी.विजयन सरकार ने आठवीं कक्षा की मुस्लिम छात्रा के उस अनुरोध को निरस्त कर दिया था, जिसमें उसने राज्य पुलिस से संबंधित ‘स्टूडेंट पुलिस कैडेट’ (एसपीसी) की पोशाक-संहिता को इस्लामी मान्यताओं के अनुरूप नहीं मानते हुए हिजाब और पूरी बांह का परिधान पहनने की स्वीकृति मांगी थी। तब राज्य के गृह विभाग ने कहा था, “…यह मांग विचारणीय नहीं है… यदि एसपीसी में इस तरह की छूट दी जाती है, तो ऐसी ही मांग अन्य समान बलों में भी की जाएगी, जो पंथनिरपेक्षता को प्रभावित करेगी…।”

वर्ष 2018 में ‘फातिमा तसनीम बनाम केरल राज्य’ मामला भी सामने आया था। इसमें एक निजी स्कूल में पढ़ने वाली दो नाबालिग छात्राओं ने केरल उच्च न्यायालय में निर्धारित विद्यालयी पोशाक-संहिता को चुनौती देते हुए ‘हेडस्कार्फ’ (हिजाब) और पूरी बाजू की कमीज पहनने की याचिका दी थी। तब न्यायाधीश ए.मोहम्मद मुस्ताक ने इसे निरस्त करते हुए कहा था, “याचिकाकर्ता संस्था के व्यापक अधिकार के खिलाफ अपने व्यक्तिगत अधिकारों को लागू करने की मांग नहीं कर सकती, यह स्कूल की पोशाक-संहिता के विरुद्ध है।”

हिजाब को लेकर मुस्लिम समाज के एक वर्ग में यह उत्कंठा केवल केरल या कर्नाटक तक सीमित नहीं है। तेलंगाना भी ऐसे प्रकरणों का साक्षी बन रहा है। 22 जून को हयातनगर स्थित एक स्कूल में दो छात्रा हिजाब पहनकर आई थी, जिसका प्रधानाचार्य और अन्य शिक्षक-अधिकारियों का विरोध किया। इसके अगले दिन भी छात्राओं ने हिजाब पहनकर कक्षा में प्रवेश का प्रयास किया, तब भी शिक्षकों ने इसपर अपनी पुन: आपत्ति जताई। इसपर एक दसवीं की छात्रा ने प्रधानाचार्य और अन्य शिक्षकों के खिलाफ पुलिस में भारतीय दंड संहिता की धारा 352 (बल प्रयोग) और 295ए-298 (मजहबी भावना को जानबूझकर ठेस पहुंचाने) के अंतर्गत मामला दर्ज करा दिया। इससे पहले 16 जून को हैदराबाद स्थित संतोषनगर में बुर्का पहनकर एक निजी परीक्षा केंद्र पहुंची छात्राओं को जांचकर्ताओं ने बुर्का उताकर प्रवेश करने का अनुरोध किया था। विवाद बढ़ने पर तेलंगाना के गृहमंत्री मोहम्मद महमूद अली ने कार्रवाई की बात कही थी।

क्या हिजाब इस्लाम का अभिन्न अंग है, इसे लेकर ही मुस्लिम समाज में ही दो स्वर है। जार्डन का शाही— शाह अब्दुल्ला (द्वितीय) परिवार, पैगंबर मोहम्मद साहब के वंशज है और उनके घराने में बुर्का-हिजाब का प्रचलन नहीं है। ऐसे कई अन्य उदाहरण है। भारत के सभी नागरिकों को अपने मजहब का पालन करने और उसके अनुरूप जीवनयापन करने की सशर्त अनुमति है। यह तब तक ही प्रभावी है, जब तक लोक-व्यवस्था में इससे अन्य नागरिकों के अधिकार, स्वीकृत मूल्य, कानून और संविधान का हनन नहीं हो या उसपर कोई खतरा नहीं मंडराए।

ऑपरेशन थियेटरों या स्कूली कक्षाओं में हिजाब को अनुमति नहीं देना, क्या ‘इस्लामोफोबिया’ है? हिंदू परंपराओं-मान्यताओं के अनुसार, विवाह एक पवित्र और अपरिवर्तनीय बंधन है, जो सात जन्मों तक चलता है। किंतु हिंदू विवाह अधिनियम 1955 (अन्य तीन अधिनियमों सहित) ने बेमेल जीवन-साथी/संगिनी से छुटकारा पाने हेतु विवाह-विघटन (तलाक) की व्यवस्था की। यह निर्णय प्राचीन भारतीय शास्त्रज्ञान, परंपराओं और मान्यताओं को मानवता, गरिमा, बदलते मूल्यों और प्रगतिशीलता के अनुरूप बनाने की दिशा में एक प्रयास था। इन्हीं भावनाओं से ओतप्रोत होकर हिंदू समाज में सती-प्रथा समाप्त हो गया, तो पर्दा परंपरा नगण्य है। ऋषि मनु ने कुछ भी कहा हो, उसके बाद भी अस्पृश्यता अपराध है। क्या अब इन सुधारों को ‘हिंदूफोबिया’ कहेंगे?

कुछ का तर्क हो सकता है कि कक्षा या ऑपरेशन थियेटरों में हिजाब पहनने की इजाजत देने में क्या आपत्ति है? क्या इस आधार पर किसी को इन स्थानों पर विशेष टोपी, धोती, माता की चुनरी, चिवार (बौद्ध) पहनने या फिर निवस्त्र नहीं आने पर मना कर पाएगा? ऐसी स्थिति में निर्धारित परिधान-संहिता और प्रोटोकॉल का क्या अर्थ रह जाएगा? सोचिए, आज हिजाब के लिए चिकित्सीय मानदंडों को इस्लामी मान्यताओं के अनुरूप बनाने की मांग हो रही है, कल वे रविवार के बजाय शुक्रवार को साप्ताहिक अवकाश, रमजान पर मासिक छुट्टी आदि के लिए मांग उठा सकती है। क्या इसका कोई अंत है?

एकाएक भारतीय मुस्लिम छात्राओं के एक वर्ग द्वारा हिजाब पहने की हठ क्यों? यह वास्तव में, इस्लामी पहचान को प्रदर्शित करने, शक्तिबल दिखाने और भौगोलिक-राजनीतिक सीमाओं पर अतिक्रमण करके संबंधित राष्ट्र की मूल संस्कृति और पहचान को कुचलने के अखिल-इस्लामी आंदोलन का अंग है। दुर्भाग्य से भारतीय शिक्षण संस्थानों (मेडिकल कॉलेज सहित) में ‘हिजाब’ पहनने का समर्थन करने वाले प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से मुसलमानों को कट्टरपंथी बनाने के वैश्विक आंदोलन का हिस्सा बन रहे है।

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By बलबीर पुंज

वऱिष्ठ पत्रकार और भाजपा के पूर्व राज्यसभा सांसद। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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