हमारे नेता नियमित रूप से प्रोपेगंडा, उपदेश, दिखावे, आदि करते रहते हैं। जबकि वास्तव में ताउम्र गद्दीनशीनी और तरह-तरह से दोहन की फिक्र में रहते हैं। यह स्वतंत्र भारत में शुरू से ही स्थापित मॉडल बन चुका है। सामान्य राजकाज अफसरों पर छोड़ा रहता है, जो उसे अपनी स्थिति, प्रवृत्ति और अवसरवादिता से जैसे-तैसे चलाते हैं। विभिन्न दलों और नेताओं में यही आम नमूना है। जो भी अंतर, वह मात्र डिग्री व रूप का है।
इसलिए क्योंकि भारत के नेता ही किसी देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। और हमें ‘गप्पी गाय’ की उपाधि चीनी नेता माओ ने दी थी। पड़ोसी होने के नाते विविध प्रसंगों, अनुभवों पर ही उन्होंने अपनी राय बनाई होगी। माओ के अनोखे मुहावरों का प्रायः कोई स्पष्टीकरण नहीं मिलता। उन का आशय अनुमान से ही समझना होगा।
वैसे, मुहावरे के दोनों शब्द सरल हैं। उन्हें मिलाकर अर्थ कुछ यही बनता है कि हम लोग बातें बनाने वाले, परन्तु दरअसल निरीह, नासमझ, और निकम्मे हैं। हमारे नेताओं की बातों और काम में “कुछ भी प्रमाणिक (ऑथेन्टिक), गंभीर (सिन्सियर), या नि:स्वार्थ (डिसइन्टेरेस्टेड) नहीं रहा है”, यह हमारे भी एक विद्वान ने 1952 में ही पाया था जिन की दृष्टि विशाल और पैनी थी।
सो, यह दु:खद चरित्र स्वतंत्र भारत में आरंभ से बना, जो ब्रिटिश-राज के ठीक विपरीत था! ब्रिटिश शासक और अफसर यहाँ अपनी नीति, कानून और प्रशासन में कभी भी दिखावटी, भीरू या भ्रष्ट नहीं रहे थे। यह सभी भारतीय भी मानते थे। जबकि हमारे नेताओं की बातें प्रायः ऊपरी, कर्महीन, तथा उपदेशात्मक रही हैं। जिन का वास्तविक सामाजिक, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय हालातों से कम ही लेना-देना रहा। फलस्वरूप किसी मामले पर सही उपाय ढूँढ कर लगने, जरूरी कदम लेकर खतरे उठाने से भी उन का संबंध नहीं रहता।
अप्रत्याशित या प्रत्याशित विकट घटनाओं पर भी लीपापोती करने, या शुतुरमुर्ग-सा सिर छिपा समय गुजारने की प्रवृत्ति उन में रही है। अर्थात, अपवाद छोड़ हमारे नेताओं में नीति-निर्माण और शासन की समझ तक नहीं रही है। इसी को माओ और आइजनहावर जैसे विदेशी नेताओं ने हैरत से देखा था! पहले गाँधीजी हिटलर को उपदेश लिखते थे, तो बाद में नेहरू अमेरिका को उसी के देश में लेक्चर पिलाते थे। कोई अपने धज-प्रवचनों से ‘दूसरा जीसस’ होने, तो कोई बस कबूतर उड़ा कर ‘विश्व-शांति का मसीहा’ होने का गुमान रखते थे। जबकि अपने देश-समाज की भी असलियत देखने की सूझ उन्हें न थी!
अतः उन के ‘गप्पी गाय’ होने की उपमा ठोस अनुभव, अवलोकन पर बनी थी। क्या आज भी वह गलत लगता है? हमारे नेता नियमित रूप से प्रोपेगंडा, उपदेश, दिखावे, आदि करते रहते हैं। जबकि वास्तव में ताउम्र गद्दीनशीनी और तरह-तरह से दोहन की फिक्र में रहते हैं। यह स्वतंत्र भारत में शुरू से ही स्थापित मॉडल बन चुका है। सामान्य राजकाज अफसरों पर छोड़ा रहता है, जो उसे अपनी स्थिति, प्रवृत्ति और अवसरवादिता से जैसे-तैसे चलाते हैं।
विभिन्न दलों और नेताओं में यही आम नमूना है। जो भी अंतर, वह मात्र डिग्री व रूप का है। वही अनुकरण नीचे तक अनुयायी करते हैं। सोशल मीडिया में भी इस के अंतहीन उदाहरण रोज दिखते हैं – परनिन्दा, शेखी, और हर विषय पर इन्सटैंट ज्ञान। यह सब हम ने कहाँ से सीखा? अपने नेताओं से। वे ही संपूर्ण वाद-विवाद, तैश-तुर्शी को निर्देशित करते हैं।
भारत में राष्ट्रीय विमर्श सदैव नेताओं द्वारा प्रवर्तित व नियंत्रित रहा है। समाजवाद, सेक्यूलरवाद से लेकर जातिगणना, और कण-कण में छीन-झपट के आरक्षण की सारी बातें व गतिविधियाँ सदैव ऊपर से चली हैं। विवेकशील, कर्मठ और न्यायपरक अधिकारियों का स्थान अंग्रेजी राज के साथ ही जाता रहा था। चाटुकार, अवसरवादी और भ्रष्टाचारी लगभग फौरन छा गये थे।
अतः स्वतंत्र भारत का इतिहास माओ के अवलोकन की पुष्टि ही करता है। गाँधीजी के खलीफत भाषणों, ‘एक वर्ष में स्वराज ले लेंगे’ से लेकर, ‘मैंने सेना को कह दिया है कि चीनियों को सीमा से बाहर फेंक दें’, और आज के ‘अच्छे दिन आ गये’ जैसे दावों में समान तत्व क्या है?
बड़बोलापन; गंभीर मामलों पर भी नासमझी का प्रदर्शन; समस्या को ठीक-ठीक जानने से भी बेपरवाह बस मन की तरंग से आसान हल देने की नीम-हकीमी; ठोकर खाकर भी अनुभव से कुछ न सीखना; अपनी करनी के कुपरिणाम की जिम्मेदारी न लेना; सच्ची समीक्षा न करना न करने देना; नेतृत्व में अपनी ताउम्र अपरिहार्यता मान कर चलना; देश-विदेश के दबंग शत्रुओं से नजर बचाना; उन पर बोलने से भी कतराना; तथा, इन तमाम आदतों से हो रही राष्ट्रीय हानियों पर पर्दा डालना।
यदि उक्त आकलन सही हो, तो हम ने अपने को ‘गप्पी गाय’ से भिन्न क्या दिखाया? अभी देश में एक संगठन अपने को दुनिया का सब से बड़ा बताता है। कभी राष्ट्रवादी, तो कभी हिन्दूवादी बनता है। उन के नेता कहते हैं “हमारा संगठन तीन दिन में ऐसी सेना तैयार कर सकता है जो युद्ध लड़ सके”। लेकिन कश्मीर से लेकर केरल, कर्नाटक, बंगाल और दिल्ली, जम्मू तक, जब भी निरीह हिन्दू सामूहिक या अलग-अलग पीड़ित, अपमानित होकर मारे भी जाएं तो इन का एक सुसंगत बयान भी नहीं आता।
मौके पर पहुँच कर लड़ना, जुटना तो दूर रहा! तब उन के लोग बेधड़क कहते हैं कि ‘हमारा काम लड़ना नहीं, लड़ने के लिए कहना’ है। जबकि उन की अपनी राजनीतिक पार्टी भी है, जो दशकों से यहाँ वहाँ सत्ताधारी भी है। शेखी बघारने में वे सब को मात देते हैं, पर हर विकट प्रसंग में मुँह सी लेते हैं। इस से अधिक प्रतिनिधि ‘गप्पी गाय’ का उदाहरण क्या हो सकता है!
निस्संदेह, सभी लोकतंत्रों में नेतागण लफ्फाजी करते हैं। अपने शब्दजाल से लोगों को लुभाकर वोट लेना, फिर सत्ता पाकर पदों, संसाधनों की बंदर-बाँट उन का प्रधान काम है। लेकिन अमेरिकी, यूरोपीय लोकतंत्रों में नेताओं ने लफ्फाजी करने में राष्ट्रीय हित के गंभीर विषयों की एक सीमा रखी है।
उन के नेता कुछ गंभीर बिन्दुओं पर एक सर्वदलीय सहमति रखते हैं, ताकि उन की प्रतिद्वंद्विता में समाज की क्षति न हो। उस की तुलना में, भारतीय नेताओं की लफ्फाजियाँ निस्सीम रही हैं। वे अपनी झक में दर्शन, नैतिकता, धर्म और इतिहास भी विकृत करते रहते हैं। तब चालू नियम-कानून और सामाजिक हित तो छोटी चीजें हैं।
यह स्वतंत्र भारत में एक स्थाई दृश्य है। आज तो यदि किसी मुद्दे पर किसी ने कोई सत्याभासी बयान भी दे दिया, तो कुछ लोग उत्साह या आक्रोश से बावले होने लगते हैं। चाहे वह बयान आधा-अधूरा, अनावश्यक या दोषपूर्ण ही क्यों न हो! विशेषकर, सेक्यूलरिज्म वाले मुद्दों पर यह अधिक होता है। पर अन्य विषय भी हैं, जिस पर किसी नेता की सहज अभिव्यक्ति हलचल पैदा करती है। मानो, यह अपने-आप में उपलब्धि या अपराध हो!
हाल में एक सांसद द्वारा किसान आंदोलन के नकारात्मक पहलुओं पर एक बयान उस का उदाहरण है।
उन की पार्टी ने ही उन की सार्वजनिक खिंचाई की। मानो सांसद ने अपने मन की बात कह कर कोई अपराध कर दिया! जबकि उसी पार्टी का आई-टी सेल महीनों तक किसान आंदोलन पर वही बातें और अतिरंजित प्रचारित करता रहा था। उन के छोटे नेता व कार्यकर्ता उन्हीं मीम और पोस्टों को खूब शेयर करते थे। मानो, वह आंदोलन उन के अखंड प्रचार से ही ध्वस्त हो जाएगा!
लेकिन उल्टा हुआ। अंततः उन की पार्टी ने ही किसान आंदोलन के सामने हथियार डाल दिए। तब सोशल मीडिया पर उन के समर्थकों और पत्रकारों पर घड़ों पानी पड़ गया। कुछ ने नेताओं के पिद्दीपन पर भड़ास भी निकाली। फिर, यहाँ के चलन अनुसार सब कुछ आयी-गयी बात हो गई।
यही चीज ध्यान देने की है – प्रोपेगंडा, दोहरापन और गैरजिम्मेदारी। हमारे नेताओं, बौद्धिकों, और उन के समर्थकों में कोरी बातों, ढंग-अंदाज, और अपने बोल पर खुद फिदा हो जाने का रोग है। साथ ही, विकट समस्याओं, यहाँ तक कि घटनाओं से भी मुँह चुराने, तथा अपने काम के दुष्परिणाम की जिम्मेदारी लेने से भागने का भी। यह सब शेष दुनिया को दिखता रहता है। केवल हमें नहीं दिखता।