विपक्ष ने लोगों को यह संदेश देने की कोशिश की है कि भाजपा का मुकाबला अगले चुनाव में INDIA की उस भावना या विचार है, जिसका उदय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हुआ और जिसकी अभिव्यक्ति हमारे संविधान में हुई है। इस तरह उन्होंने खुद और भाजपा/एनडीए के बीच एक प्रतीकात्मक अंतर स्पष्ट करने का प्रयास किया है। कहा जा सकता है कि इस प्रयास का शुरुआती प्रभाव सकारात्मक रहा है।लेकिन इस प्रभाव को टिकाऊ और अपने संदेश को अधिक विश्वसनीय बनाने की कठिन चुनौती INDIA के सामने है। अगर इस गठबंधन के नेता गौर करें, तो उन्हें इस प्रयास में गठबंधन के नाम में शामिल दो शब्दों से मदद मिल सकती है।
छब्बीस विपक्षी दलों ने अपने बंगलुरू सम्मेलन से यह स्पष्ट संदेश दिया है कि अगले वर्ष के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी के शासन से देश को मुक्त कराना अब उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता है। उन्होंने यह संकेत भी दिया है इस ‘बड़े मकसद’ के लिए वे अपने ‘छोटे स्वार्थों’ को छोड़ने के लिए फिलहाल तैयार हैं। 2024 के आम चुनाव में भाजपा (अथवा उसके नेतृत्व वाले एनडीए) को हर चुनाव क्षेत्र में वे सीधी टक्कर दे सकें, इसे अधिकतम सीमा तक संभव करने की चुनौती भी उन्होंने स्वीकार की है।
यह निर्विवाद है कि इस समय देश में जनमत का एक बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है, जो भाजपा शासन से मुक्ति दिलाने के विपक्षी दलों के मकसद से इत्तेफ़ाक रखता है। ऐसी राय रखने वाले व्यक्तियों और समूहों में विपक्ष की इस पहल से उत्साह पैदा हुआ है, तो उसे एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया कहा जाएगा। विपक्ष ने इन समूहों की इस राय को एक बड़े मंच पर अभिव्यक्ति दी है कि देश के संविधान पर हमले हो रहे हैं। इस रूप में कहा जा सकता है कि नए बने गठबंधन ने शुरुआत जनमत एक बड़े हिस्से की सहानुभूति और समर्थन के साथ की है।
इसके बावजूद यह प्रश्न प्रासंगिक है कि क्या यह समर्थन 2024 के आम चुनाव में विपक्षी गठबंधन की सफलता को सुनिश्चित कर पाएगा? देश के विभिन्न हिस्सों में जो चुनावी समीकरण हैं, उनके बीच पहले से मौजूद अपने समर्थन आधार के भरोसे विपक्ष आम चुनाव में कामयाबी की ठोस उम्मीद नहीं संजो सकता। इसलिए विपक्ष को अगर अपनी इस कोशिश में कामयाब होना है, तो उसे भाजपा के उस समर्थन आधार में सेंध लगानी होगी, जो गुजरे एक दशक में अनेक राज्यों में उसकी कामयाबी को सुनिश्चित करता रहा है।
स्पष्ट है कि यह काम- यानी नए समर्थकों को जुटाने का मकसद- सिर्फ नरेंद्र मोदी या भाजपा हटाओ के नारे से हासिल नहीं हो सकता। इसलिए कि बहुत से लोग यह पूछेंगे कि आखिर मोदी और भाजपा को क्यों हटाएं? और फिर आपके पास उनसे बेहतर देने के लिए क्या है?
विपक्षी दलों को संभवतः इस बात का अहसास है। इसीलिए उन्होंने कहा है कि वे वैकल्पिक नीतियों का खाका पेश करेंगे। 2024 के आम चुनाव के लिए वे एक साझा न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार करेंगे। चूंकि अभी वह कार्यक्रम हमारे सामने नहीं है, इसलिए उस बारे में फिलहाल हम सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं। बहरहाल, अब तक जो कहा गया है, उससे संकेत ग्रहण करने का प्रयास हम जरूर कर सकते हैँ।
ऐसा लगता है कि विपक्षी दलों ने अपने गठबंधन का नाम रखने का निर्णय पहले लिया, जिसका acronym (अंग्रेजी में अनेक शब्दों वाले नाम में प्रत्येक शब्दों के पहले अक्षर को लेकर एक शब्द बनाना) INDIA बनता हो। इस तरह उन्होंने नाम से लोगों के मन को छूने का प्रयास किया है। साथ ही यह संदेश देने की कोशिश की है कि भाजपा का मुकाबला अगले चुनाव में INDIA की उस भावना या विचार है, जिसका उदय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हुआ और जिसकी अभिव्यक्ति हमारे संविधान में हुई है। इस तरह उन्होंने खुद और भाजपा/एनडीए के बीच एक प्रतीकात्मक अंतर स्पष्ट करने का प्रयास किया है। कहा जा सकता है कि इस प्रयास का शुरुआती प्रभाव सकारात्मक रहा है।
लेकिन इस प्रभाव को टिकाऊ और अपने संदेश को अधिक विश्वसनीय बनाने की कठिन चुनौती INDIA के सामने है। अगर इस गठबंधन के नेता गौर करें, तो उन्हें इस प्रयास में गठबंधन के नाम में शामिल दो शब्दों से मदद मिल सकती है। गठबंधन ने अपना पूरा नाम ‘Indian National Developmental Inclusive Alliance रखा है। हमें नहीं मालूम कि इसमें शामिल दो शब्दों Developmental और Inclusive सोच-समझ कर किसी खास मकसद से लिया गया, या सिर्फ acronym बनाने की सुविधा के लिहाज से। बहरहाल, चाहे जिस ढंग से भी ये शब्द आए, गठबंधन अगर इनके अर्थ को अपने साझा न्यूनतम कार्यक्रम में व्यक्त करे, तो वह एक ठोस शुरुआत कर सकता है।
यूपीए के शासनकाल में Inclusive Development शब्द पर काफी जोर दिया गया था। सोच यह थी कि नव-उदारवादी नीतियों को अपनाए जाने के बाद जब अर्थव्यवस्था में सरकार ने अपनी भूमिका न्यूनतम कर ली है और उसके परिणामस्वरूप समाज में गैर-बराबरी अभूतपूर्व ढंग से बढ़ रही है, तब development (विकास) और growth (आर्थिक वृद्धि) के कुछ लाभ नई नीतियों के कारण वंचित हो रहे तबकों तक भी पहुंचाए जाने चाहिए। यानी ढांचागत आर्थिक बदलाव को ‘मानवीय चेहरा’ दिया जाना चाहिए। ऐसा सामाजिक स्थिरता और सिस्टम में सबको अपना लाभ दिखने की जरूरी भावना को बरकरार रखने के लिए तब जरूरी समझा गया था। देश में इजारेदारी कायम कर रहे पूंजीपतियों/उद्योग घरानों को इतनी रियायत भी तब ‘समाजवाद’ नजर आई और उन्होंने यूपीए के खिलाफ विद्रोह कर दिया। यह जानी-पहचानी कहानी है।
उन तबकों ने अपने विद्रोह को अंजाम तक पहुंचाने के लिए भाजपा पर अपना दांव लगाया, क्योंकि इस पार्टी के पास सांप्रदायिक विभेद बढ़ाकर जन समर्थन जुटाए रखने का एक प्रभावी राजनीतिक हथियार मौजूद है। इसलिए स्वाभाविक ही है कि पिछले नौ वर्षों में भाजपा सरकार ने उन्हीं पूंजीवादी तबकों के हित में काम किया है, जिनका हाथ उसकी पीठ पर है, और जिनके जरिए अपनी सांप्रदायिक राजनीति को धारदार बनाए रखने के संसाधन उसे प्राप्त होते हैं।
इंडिया गठबंधन में शामिल दलों से यह अपेक्षा तो नहीं रखी जा सकती कि वे जन विरोधी और अब दुनिया भर में नाकाम साबित हो चुके नव-उदारवाद का कोई विकल्प ढूंढने की कोशिश करेंगे। उनका वर्ग चरित्र और उनका बौद्धिक रुझान इसकी इजाजत उन्हें नहीं देंगे। इसलिए वे इक्लूसिव डेवलमेंट को ही सरकारी नीतियों में वापस लाने का इरादा दिखा पाएं, तो यह भी एक बड़ी बात होगी। सवाल है कि क्या वे ऐसा इरादा दिखाएंगे?
बंगलुरू में ‘सामूहिक संकल्प’ शीर्षक से जारी अपने साझा बयान में इन दलों ने अपनी आर्थिक समझ का कुछ संकेत दिया है। उन्होंने वर्तमान सरकार की आलोचना करते हुए कहा है- ‘हम जरूरी चीजों की लगातार बढ़ रही महंगाई और रिकॉर्ड बेरोजगारी से पैदा हुए गहरे आर्थिक संकट का मुकाबला करने के प्रति अपने संकल्प को दोहराते हैँ। नोटबंदी ने मध्यम-लघु-सूक्ष्म उद्योगों और असंगठित क्षेत्रों को अकथनीय दयनीय हाल में पहुंचा दिया। उससे हमारे नौजवान बड़े पैमाने पर बेरोजगारी का शिकार हुए। हम राष्ट्रीय संपत्तियों की अपने मित्रों के हाथ गैर-जिम्मेदाराना बिक्री का विरोध करते हैं।’
ये बातें हालांकि अधूरी, लेकिन सटीक हैं। अधूरी इसलिए कि जिन नीतियों पर देश पिछले साढ़े तीन दशक में चला है, उसका इसके अतिरिक्त कोई परिणाम संभव नहीं था। नोटबंदी जैसे दुस्साहसी और दूरगामी नुकसान पहुंचाने वाले कदम की तोहमत जरूर मोदी सरकार के माथे पर है, लेकिन विपक्ष के सामने यह सवाल भी है कि जो स्थितियां पैदा हो गई हैं, उनके बीच आम जन को वह कैसे राहत पहुंचाएगा?
इस लिहाज से सामूहिक संकल्प में एक महत्त्वपूर्ण बात कही गई है। इसमें कहा गया है- ‘हमें अनिवार्य रूप से न्यायपूर्ण अर्थव्यवस्था का निर्माण करना होगा, जिसमें एक मजबूत और रणनीतिक (स्ट्रेटेजिक) पब्लिक सेक्टर के साथ-साथ प्रतिस्पर्धात्मक और फूलता-फलता प्राइवेट सेक्टर मौजूद हो, जिसमें उद्यम की भावना फूले-फले और सबको आगे बढ़ने का मौका मिले। किसानों और खेत मजदूरों के कल्याण को हमेशा ही सर्वोच्च प्राथमिकता मिलनी चाहिए।’
मगर यहां यह सवाल उठेगा कि स्ट्रेटेजिक पब्लिक सेक्टर से इन दलों का क्या तात्पर्य है? अब तक इसकी जो समझ रही है, वह अपना अर्थ खो चुकी है। भारत की मूल समस्या आज मानव विकास और रिसर्च एंड डेवलपमेंट में बेहद पिछड़ जाना है। नया गठबंधन अगर सचमुच स्ट्रेटेजिटक पब्लिक सेक्टर को पुनर्जीवित करना चाहता है, तो उसे इस क्षेत्र में हर स्तर की शिक्षा और स्वास्थ्य को अवश्य शामिल करना चाहिए। शिक्षा और स्वास्थ्य को पब्लिक सेक्टर में लाए बिना किसी विकास की कल्पना नहीं हो सकती, यह बात अब दुनिया भर के अनुभव से साबित हो गई है।
इसी तरह किसान और खेत मजदूरों के कल्याण को अगर फौरी बैंड-एड से आगे ले जाना है, तो ऐसा करना मार्केट फंडामेंटलिज्म (मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में आस्था) से बाहर निकले बिना संभव नहीं है।
सामूहिक संकल्प में राज्यों के संवैधानिक अधिकारों पर लगातार हो रहे हमलों का जिक्र किया गया है। बेशक, मोदी सरकार की नीतियों और उसके द्वारा नियुक्त गवर्नरों के आचरण ने इसे एक गंभीर समस्या बना दिया है, जिससे भारत का संघीय ढांचा खतरे में पड़ा दिखता है। मगर राज्य आज अगर शक्तिहीन हो गए हैं, तो उसका एक बड़ा कारण उनकी वित्तीय स्वायत्तता खत्म होना भी है, जिसका प्रमुख कारण वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) है। क्या ‘इंडिया’ जीएसटी (कम से कम जिस रूप में अभी वह मौजूद है) को खत्म करने का वादा करेगा? अगर वह ऐसा नहीं करता है, तो संघीय व्यवस्था की रक्षा के उसके वादे पर भरोसा करना लोगों के लिए कठिन हो सकता है।
वैसे हर कल्याणकारी कदम के साथ संसाधन जुटाने का अनिवार्य प्रश्न जुड़ा रहता है। अगर कोई पार्टी या गठबंधन अपने वादों के साथ यह नहीं बताता कि वह उन्हें पूरा करने के लिए संसाधन कहां से लाएगा, तो उसकी बात पर यकीन करना मुश्किल बना रहता है। इसलिए इंडिया को इस मुद्दे पर भी साफगोई दिखानी होगी। उसे देश में लगातातर प्रतिगामी होती गई कर व्यवस्था में बड़े बदलाव का वादा करने का साहस दिखाना होगा। प्रत्यक्ष करों में वृद्धि और परोक्ष करों में कटौती किसी प्रगतिशील कर व्यवस्था का अनिवार्य अंग है। ऐसा करते हुए पर्याप्त संसाधन जुटाने की बात को तभी विश्वसनीय हो सकती है, अगर वेल्थ टैक्स लगाने, उत्तराधिकार कर की शुरुआत करने और लॉन्ग टर्म एवं शॉर्ट टर्म कैपिटल गेन्स पर कर बढ़ाने का इरादा जताया जाए।
इसके अलावा चूंकि हम इंडिया गठबंधन से नीतियों में किसी आमूल बदलाव की आशा नहीं रख रहे हैं, इसलिए हमारी उससे अपेक्षा यहीं तक सीमित है कि यूपीए के जमाने में अधिकार आधारित विकास (rights based approach to development) की जो धारणा प्रचलित हुई थी, उसे वापस लाने का वादा नए गठबंधन की तरफ से किया जाए। इस सिलसिले में गठबंधन राजस्थान की कांग्रेस सरकार से कुछ संकेत ले सकता है, जहां स्वास्थ्य को कानूनी अधिकार बनाया गया है और न्यूनतम आय को ऐसा ही दर्जा देने की ठोस पहल की गई है। इसके अलावा गिग वर्कर्स को सामाजिक सुरक्षा देने के कदम वहां और कर्नाटक में उठाए गए हैँ।
INDIA अगर इस दृष्टि को सम्मिलित कर साझा न्यूनतम कार्यक्रम में ठोस वादे करे, तो वह लोगों से यह कहने की स्थिति में होगा कि सिर्फ किसी एक व्यक्ति को सत्ता से हटाना उसका मकसद नहीं है। इसके बावजूद इस कथन की विश्वसनीयता का सवाल बना रहेगा। इसके लिए गठबंधन में शामिल दलों को जनता के बीच जाने का माद्दा दिखाना चाहिए। सिर्फ चुनाव सभाओं और सोशल मीडिया के भरोसे ये नेता रहे, तो आज के हालात में आम जन तक वे अपनी बात पहुंचा पाएंगे, इसमें संदेह है।
नीतियां और राजनीति की दिशा कई बार परिस्थितियों का परिणाम होती हैं। अगर आज लेफ्ट और तृणमुल कांग्रेस तथा कांग्रेस और आम आदमी पार्टी एक मंच पर आए हैं, तो इसके पीछे कारण परिस्थितियों का दबाव ही है। इसलिए मुमकिन है कि विपक्षी दल, (भले ही अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए ही ऐसा करें) अपनी राजनीति का ढर्रा बदलने को मजबूर हो सकते हैँ। फिलहाल, सिर्फ इतना कहा जाएगा कि उन्होंने एक अच्छी शुरुआत की है, जिसके आगे बढ़ने और विकसित होने की संभावनाएं मौजूद हैं।