पर छोटे शहरों की छोडें, प्रांतों की राजधानी तक में ऐसे तमाम फर्जी विश्वविद्यालयों के बोर्ड लगे मिल जाएंगे। स्थानीय सरकारें सब जानते हुए भी खामोश बैठी रहती हैं। कारण साफ है। प्रायः इन कॉलेजों के संस्थापक या प्रबंधक क्षेत्र या प्रांत के प्रतिष्ठित राजनेता होते हैं, जिनकी रुचि शिक्षा के प्रसार में नहीं बल्कि बेरोजगारों की मजबूरी का फायदा उठाकर मोटी कमाई करने में होती है।
देश में सूचना क्रान्ति, उदारीकरण और उपभोक्ता संस्कृति तीनों ने मिलकर गांव और कस्बों के नौजवानों के मन में कुछ नया सीखने और व्यावसायिक जगत में आगे बढ़ने की ललक पैदा की हुई है। उनकी इस ललक को बढ़ाने का काम कर रहे हैं देश भर में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हजारों देसी व विदेशी उच्च शिक्षा संस्थान। इनकी दुकान जितनी ऊंची है, उतनी फीकी भी। यह किसी से छिपा नहीं है कि देश के बहुसंख्यक विद्यार्थियों को शिक्षा का सही वातावरण तक नहीं मिलता। शिक्षा के नाम पर खानापूर्ति ही ज्यादा होती है।
ऐसे में कमजोर नींव पर खड़े इन नौजवानों को यह शिक्षा संस्थान सपने दिखाकर, झूठे वायदे करके और भ्रामक सूचनाएं देकर आकर्षित कर लेते हैं। इनके जाल में फंसने वाले नहीं जानते कि जिन फर्जी सर्टिफिकेट या डिग्रियों को बांटकर यह लोग सुनहरे भविष्य के सपने दिखा रहे हैं, उन्हें लेकर वे सिर्फ धक्के ही खाएंगे। इनकी बदौलत कोई ढंग की नौकरी मिलना मुश्किल नहीं तो आसान भी नहीं है। अगर एमबीए करके कपड़े की दुकान पर पन्द्रह सौ रुपये महीने की सेल्समैनशिप मिली, तो कौन सा तीर मार लिया। इतना ही नहीं, प्रोफेशनल कोर्स की पढ़ाई से आने वाला आत्मविश्वास भी यह डिग्रियां नहीं दे पातीं।
ग़ौरतलब है कि ग़रीब घर से आए ये छात्र अपनी ज़मीन जायदाद को बेच कर या गिरवी रख कर इन संस्थानों में लाखों रुपये देकर पढ़ने आते हैं। इन छात्रों के मन में हमेशा एक डर सा बना रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि पढ़कर भी नौकरी न मिले। यदि सर्वेक्षण किया जाए तो यह बात सिद्ध भी हो जाएगी कि लाखों रुपये लेकर दाखिला देने वाले इन इंजीनियरिंग, मेडिकल या मैनेजमेंट कॉलेजों के ज्यादातर छात्रों को बरसों तक माकूल रोजगार नहीं मिलता।
यह तो उन लोगों की बात है जो जानते-बूझते हुए ऐसी डिग्रियां लेते हैं। लेकिन भारत में बहुत से ऐसे भी शिक्षण संस्थान भी हैं, जो असली होने का दावा करते हुए लाखों लोगों को सर्टिफिकेट और डिग्रियां बांट चुके हैं। जबकि है ये पूरे फर्जी। इनके काम करने के तौर तरीके देखकर कोई भी इन्हें असली मान लेता है। पर, वास्तव में यह असली नहीं होते। कहने के लिए इनके पास देश की जानी-मानी संस्थाओं से संबद्धता के भी प्रमाण होते हैं और यह अपने यहां पढ़ने वाले लोगों को देश-विदेश की बेहतरीन कंपनियों में नौकरी दिलाने का भी पक्का वायदा करते हैं। इसी झांसे में आकर प्रतिवर्ष लाखों लोग इनके चंगुल में फंस जाते हैं और मोटी रकम चुकाकर एक डिग्री हासिल करते हैं, जो वास्तव में जाली होती है, जिसे जारी करने का भी अधिकार इन संस्थानों को नहीं होता।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम 1956 की धारा 22 के मुताबिक, डिग्री प्रदान करने का अधिकार केवल उन्हीं विश्वविद्यालयों को है जो केन्द्र अथवा राज्य के कानूनों के तहत स्थापित किए गए हों या यूजीसी अधिनियम की धारा 3 के तहत यूनिवर्सिटी की मान्यता प्राप्त हो अथवा संसद द्वारा विशेष रूप से किसी संस्थान को डिग्री प्रदान करने की अनुमति दी गई हो। इसके अलावा अन्य कोई भी विश्वविद्यालय डिग्री प्रदान नहीं कर सकता। यदि वह ऐसा करता है तो कानूनन गलत है।
यूजीसी एक्ट की धारा 23 के मुताबिक केन्द्र, राज्य अथवा प्रांतीय अधिनियम के अंतर्गत गठित विश्वविद्यालयों को छोड़कर किसी भी अन्य संस्थान को अपने नाम के साथ यूनिवर्सिटी या विश्वविद्यालय शब्द प्रयोग करने की अनुमति नहीं है। पर छोटे शहरों की छोडें, प्रांतों की राजधानी तक में ऐसे तमाम फर्जी विश्वविद्यालयों के बोर्ड लगे मिल जाएंगे। स्थानीय सरकारें सब जानते हुए भी खामोश बैठी रहती हैं। कारण साफ है। प्रायः इन कॉलेजों के संस्थापक या प्रबंधक क्षेत्र या प्रांत के प्रतिष्ठित राजनेता होते हैं, जिनकी रुचि शिक्षा के प्रसार में नहीं बल्कि बेरोजगारों की मजबूरी का फायदा उठाकर मोटी कमाई करने में होती है।
प्रायः फर्जी विश्वविद्यालयों तथा जाली डिग्रियों को बांटने से रोकने के लिए संसदीय समिति द्वारा कुछ सुझाव जाते हैं, जैसे यूजीसी या शिक्षा विभाग जाली विश्वविद्यालयों व संस्थानों की एक सूची बनाए, यूजीसी तथा शिक्षा विभाग अखबारों में छपने वाले फर्जी विश्वविद्यालयों के विज्ञापनों के बारे में प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया तथा एडीटर्स गिल्स को अवगत कराकर अखबारों में ऐसे विज्ञापनों को प्रतिबंधित करवाए, यूजीसी को दोषी संस्थानों के खिलाफ कार्रवाई करने के ज्यादा अधिकार दिए जाएं आदि-आदि। पर, ऐसी कितनी सूचनाएँ हैं जो हम तक पहुँचती हैं?
इन धोखेबाज संस्थाओं के जाल में अक्सर वही छात्र फंसते हैं, जो छोटे शहरों या कस्बों में रहते हैं, जिन्हें ऐसी संस्थाओं के कारनामों की जानकारी नहीं होती। कई बार तो बहुत से विश्वविद्यालय, कॉलेज अथवा स्कूल अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर कहते हैं कि उनकी डिग्रियां फलाने संस्थान से मान्यता प्राप्त हैं, फलाने संस्थान से संबद्ध है। कई तो कुछ कदम आगे बढ़कर जाली नाम वाली विदेशी संस्थाओं से भी अपनी संबद्धता दिखा देते हैं। असलियत से बेखबर भोले भाले नौजवान इन संस्थाओं के तड़क-भड़क वाले जाल में फंसकर अपना पैसा तो बरबाद करते ही हैं, साथ ही अपने भविष्य में भी पलीता लगा लेते हैं।
यह सही है कि इन निजी संस्थाओं में छात्रों को सुविधाएँ अधिक दी जाती हैं, परंतु सही और वैधानिक संस्थाओं की आड में कुछ नकली संस्थाएँ भी छात्रों का शोषण करती हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। कुछ मामलों में तो देश के नामी विश्वविद्यालयों के उच्च पदस्थ अधिकारी भी इन संस्थाओं के कामकाज में शामिल पाए गए। यूजीसी और अन्य रेग्यूलेटरी अथारिटी, एडवर्टाइजमेंट स्टेंडर्डस काउंसिल ऑफ़ इंडिया (एएससीआई), इंडियन न्यूजपेपर्स सोसायटी तथा मोनोपोलीज एंड रेस्ट्रिक्टिव ट्रेड प्रेक्टिसेज कमीशन को एकसाथ मिलकर एक ऐसी प्रक्रिया तैयार करनी चाहिए, जिनसे ऐसे धोखेबाज विज्ञापनों पर रोक लग सके।