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हताश और हारे गुलाम नबी!

खराब सेहत को एक बड़ा कारण बता कर राजनीति के दिग्गजखिलाड़ी कहे जाने वाले गुलाम नबी आज़ाद ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव से ऐन पहले अपने आप को चुनाव से अलग करने का ऐलान कर दिया है। ऐसा करते समय उन्होंने अपनी पार्टी के चुनाव लड़ने जा रहे साथियों को एक सलाह भी दे दी कि अगर वे चाहें तो वे चुनाव मैदान से हट भी सकते हैं।… अपने लाभ के लिए दूसरों का इस्तेमाल करना और फिर उन्हें छोड़ देना, यह कला आज़ाद से बेहतर दूसरा कोई नही जान सकता।

जैसी संभावना थी ठीक वैसा ही हुआ, गुलाम नबी आज़ाद ने राजनीति के मैदान में लगभग अपने हथियार डाल दिए हैं। पूरे दो वर्षों तक जम्मू-कश्मीर के दुर्गम पर्वतीय रास्तों में भटकने के बाद आज़ाद दिल्ली की मखमली सड़कों पर टहलने के लिए वापस लौट गए हैं। साफ है कि जम्मू-कश्मीर की राजनीति ने उन्हें स्वीकार नही किया और वे खुद भी ज़मीनी हकीकतों को समझने में बुरी तरह से विफल रहे।

खराब सेहत को एक बड़ा कारण बता कर राजनीति के ‘दिग्गज’ खिलाड़ी कहे जाने वाले गुलाम नबी आज़ाद ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव से ऐन पहले अपने आप को चुनाव से अलग करने का ऐलान कर दिया है। ऐसा करते समय उन्होंने अपनी पार्टी के चुनाव लड़ने जा रहे साथियों को एक सलाह भी दे दी कि अगर वे चाहें तो वे चुनाव मैदान से हट भी सकते हैं। जबकि आजाद के बयान से तीन दिन पहले ही उनकी पार्टी ने आज़ाद की सहमति से 13 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी कर दावा किया था कि उनकी पार्टी पूरी ताकत के साथ चुनाव लड़ेगी। लेकिन सूची आने के बाद पार्टी प्रमुख गुलाम नबी आज़ाद ने बेहद रहस्यमय परिस्थितियों में अपने आप को ही चुनाव से अलग कर लिया।

महत्वपूर्ण बात यह रही कि आज़ाद के इस निर्णय को लेकर जम्मू-कश्मीर की राजनीति में मामूली सी हलचल भी नही हुई है। अपने बयान के बाद से आज़ाद ने खामोशी अपना रखी है। पार्टी महासचिव सहित अधिकतर नेता भी चुप हैं।  आज़ाद द्वारा चुनाव से पहले अपने आप को चुनाव से अलग कर लेना कुछ सवाल जरूर खड़े करता है। जो बयान आज़ाद ने दिया है उसी में सारी कहानी भी छुपी हुई है। दरअसल गुलाम नबी आज़ाद ज़बरदस्त हताशा का शिकार हो चुके हैं। उनका कथन ही उनकी निराशा को बता रहा है। अपने साथियों को चुनाव मैदान से अलग होने की सलाह देते समय आज़ाद अपने भीतर के ‘दर्द’ को छिपा नही सके है। यह सलाह अपने आप में ही बताती है कि आज़ाद हार मान चुके हैं। निश्चित रूप से यह एक योद्धा की निशानी तो नही दो सकती।

अपनी कमजोरी जाहिर करके उन्होंने जाने-अनजाने बता दिया है कि वे अलग-थलग पड़ चुके हैं और एक तरह से उन्होंने यह भी मान लिया है कि वे कभी भी ज़मीनी राजनेता नही रहे हैं और पार्टी चलाना उनके बस का नही है।

आत्ममुग्धता का शिकार रहे हैं आज़ाद

कहीं न कहीं गुलाम नबी आज़ाद एक तरह की आत्ममुग्धता का शिकार  रहे हैं। यही वजह थी कि अपने राजनीतिक जीवन का अधिकतर हिस्सा दिल्ली में बिताने के बाद और ज़मीनी आधार न होने के बावजूद  आज़ाद यह बात समझ नही सके कि जम्मू-कश्मीर में उनकी खुद की पार्टी को चला पाने की संभावना न के बराबर हैं। लेकिन वे शायद इस हद तक आत्ममुग्धता में जकड़े हुए थे कि ज़मीनी सच्चाई को पहचान ही नही सके। उन्हें लगता था कि लोग उनके नाम मात्र से ही उनके साथ जुड़ते चले जाएंगे। यही वजह थी कि जब उन्होंने अपनी पार्टी बनाई तो उसके नाम में ‘आज़ाद’ शब्द पर बहुत ज़ोर दिया गया।

यह आत्ममुग्धता ही तो थी जिसने कभी भी आज़ाद को यह स्वीकार नही करने दिया कि कांग्रेस ने उन्हें क्या कुछ नही दिया। वे कभी भी अपनी पुरानी पार्टी के लिए शुक्रगुज़ार नज़र नही आए। कांग्रेस छोड़ते समय के बयान और बाद के उनके सभी बयानों में एक आत्ममुग्धता और अंहकार नज़र आता है। लगभग हर बयान में वे अपनी खुद की तारिफों के पुल बांधते दिखते हैं। लगातार अपने को ‘बड़ा’ और ‘कामयाब’ राजनेता बताने के चक्कर में आज तक कभी किसी दूसरे की प्रशंसा नही कर सके।

कांग्रेस छोड़ने के बाद वे लगतार अपने आप को ‘श्रेष्ठ’ साबित करने में जुटे रहे। लगातार इस तरह के दावे किए कि महाराष्ट्र और कर्नाटक से लेकर पंजाब तक हर जगह कांग्रेस उनकी ही वजह से जीतती रही है। यह बयान अपने को अन्य लोगों से ‘अलग’ और ‘सर्वश्रेष्ठ’ साबित करने की दृष्टि से ही दिए गए और इस तरह के तमाम बयान उनकी आत्ममुग्धता को ही दर्शाते रहे हैं।

आत्ममुग्धता में वे कईं ऐसे बयान भी देते चले गए जो आधारहीन और तथ्यों से बेहद दूर थे। उनकी तरफ से एक ऐसा ही बयान आया था कि पंजाब कांग्रेस का प्रभारी रहते हुए उन पर 26 बार आतंकवादी हमले हुए जबकि जम्मू-कश्मीर में उन पर 16 बार हमले हुए। इतनी गज़ब की स्मरण शक्ति ही अपने आप में कईं सवाल पैदा करती है। इतने सटीक आंकड़े तो उन्होंने बता दिए, मगर आज तक यह नही बता सके कि आखिर यह हमले कब और कहां हुए ?

उनके इस तरह के बयान बचकाना तो थे ही तथ्यों से भी दूर थे। इस तरह के उन्होंने जो बयान दिए उन्हें लेकर उनके प्रशसंक भी हैरान होते रहे हैं। एक गंभीर नेता की जो छवि आज़ाद की बनी हुई थी उसे इस तरह के बयानों से भारी नुक्सान हुआ।

उनके बयानों में एक अजीब तरह की बौखलाहट और हताशा दिखाई देने लगी थी। कांग्रेस छोड़ते समय जिस तरह से अपने आप को ‘पीड़ित’ दर्शाने की कोशिश करते हुए हुए गांधी परिवार को निशाना बनाया उससे उन्हें फायदा तो कुछ हुआ नही उलटा उन्होंने हमेशा के लिए कांग्रेस वापसी के अपने सभी दरवाज़े बंद करवा दिए।

अब्दुल्ला परिवार को भी बनाया निशाना

अपने दो वर्षों के जम्मू-कश्मीर के प्रवास के दौरान दिए गए बयानों में गुलाम नबी आज़ाद ने अपने करीबी समझे जाने वाले अब्दुल्ला परिवार को भी नही बख्शा और डॉ फारूक अब्दुल्ला व उमर अब्दुल्ला पर लोकसभा चुनाव से ठीक पहले गंभीर आरोप लगाया कि दोनों पिता-पुत्र रात के अंधेरे में दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात करते हैं।  आज़ाद के इस बयान ने अब्दुल्ला परिवार के साथ उनके रिश्तों को बेहद खराब तो किया ही साथ-साथ फारूक और उमर ने आज़ाद को उन अहसानों को याद करवा दिया जो समय-समय पर अब्दुल्ला परिवार ने आज़ाद पर किए हैं। फारूक और उमर ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए आज़ाद को याद दिलाया कि कैसे नेशनल कांफ्रेंस की मदद से आज़ाद राज्यसभा तक पहुंचते रहे हैं।

उमर अब्दुल्ला ने आज़ाद से उनके भारतीय जनता पार्टी के साथ   रिश्तों को लेकर भी कई बार सवाल किए हैं। उमर इस मुद्दे पर बहुत आक्रामक रहे हैं और अक्सर पूछते रहे हैं कि जब अनुच्छेद-370 को समाप्त किए जाने के बाद तमाम बड़े नेताओं को हिरासत में ले लिया गया था तो गुलाम नबी आज़ाद पर सरकार क्यों मेहरबान रही? उमर ने बहुत बार सवाल किया है कि आज़ाद को सरकारी बंगले सहित तमाम सुविधाएं क्यों मिलती रहीं हैं? दरअसल भारतीय जनता पार्टी के साथ अपने रिश्तों को लेकर गुलाम नबी आज़ाद कभी भी स्थिति को स्पष्ट नहीं कर सके जिससे उनके अपने साथियों के भीतर भी कई तरह के संदेह पैदा हुए हैं। उनकी पार्टी के ज़्यादातर लोग भी चाहते रहे हैं कि आज़ाद भाजपा से दूरी बना कर रखें।

उल्लेखनीय है कि आज़ाद को भारतीय जनता पार्टी का करीबी माना जाता रहा है। हाल ही में लोकसभा चुनाव में उनके द्वारा उधमपुर लोकसभा सीट से चुनाव नही लड़ने से कहीं न कहीं यही संकेत गया कि वे भाजपा को मदद पहुंचाना चाहते थे।

दूसरों के सहारे चलाना चाहते थे पार्टी

गुलाम नबी आज़ाद चाहते थे कि अब्दुल्ला परिवार उन्हें उनकी पार्टी को प्रदेश में स्थापित करने में मदद करें। इसी आशा के साथ उन्होंने लोकसभा चुनाव के समय नेशनल कांफ्रेस से उम्मीद की थी कि नेशनल कांफ्रेस उनके लिए अनंतनाग की सीट छोड़ दे। आज़ाद ने अनंतनाग से चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर की थी। मगर जब नेशनल कांफ्रेंस नही मानी तो आज़ाद ने हताशा में अब्दुल्ला परिवार के खिलाफ ही बयानबाजी शुरू कर दी। यह बयान राजनीतिक रूप से परिपक्व नही कहे जा सकते थे।

जिस तरह से गुलाम नबी आज़ाद नेशनल कांफ्रेंस और अब्दुल्ला परिवार से सहारे और मदद की उम्मीद में थे ठीक उसी तरह आज़ाद चाहते थे कि कांग्रेस छोड़ कर उनकी पार्टी में उनके साथ आने वाले तमाम लोग पार्टी के लिए संसाधन भी खुद ही जुटाए और पार्टी को स्थापित भी करें। अपनी खुद की भूमिका वे पार्टी के एक बड़े चेहरे तक ही सीमित रखना चाहते थे।

लेकिन आज़ाद के रुख से पार्टी के उनके साथियों में अपने खुद के राजनीतिक भविष्य को लेकर चिंता सताने लगी। लोकसभा चुनाव के बाद तो हालात तेजी से बदले और आज़ाद के सभी साथी कांग्रेस की ओर देखने लगे। खुद आज़ाद को लेकर भी ये चर्चाएं तेज़ हो गईं कि आज़ाद भी कांग्रेस में वापसी के मौके की तलाश में हैं।

लेकिन राहुल गांधी द्वारा गुलाम नबी आज़ाद के नाम को लेकर अपनाए गए सख्त रुख की वजह से आज़ाद की कांग्रेस में वापसी नही हो सकी। लेकिन इन चर्चाओं के कारण आज़ाद की पार्टी में हर वह नेता  आशंकित हो गया जो तमाम विपरीत हालात में भी आज़ाद के साथ चल रहा था।

अधिकतर नेता पहले ही छोड़ चुके थे साथ

उल्लेखनीय है कि कांग्रेस से इस्तीफा देकर जो लोग आज़ाद के साथ चले आए थे उनका बहुत जल्दी ही आज़ाद से मोहभंग होने लगा था। अगस्त-2022 में जिन लोगों ने आज़ाद के साथ हाथ मिलाया था उनमें से अधिकतर ने उसी साल की समाप्ति में उन्हें अलविदा कह कर वापस कांग्रेस का दामन थाम लिया था। सबसे पहले आज़ाद का साथ उन लोगो ने छोड़ा जो आज़ाद के सबसे ज़्यादा करीबी माने जाते थे। यह अपने आप में बहुत ही हैरान करने वाला मामला था।

राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की सफलता ने भी एक बड़ी भूमिका निभाई और जैसे ही यात्रा जम्मू पहुंची आज़ाद की पार्टी का बिखरना शुरू हो गया और नेता वापस कांग्रेस में लौटने लगे।

अगस्त-2022 से पहले तक आज़ाद को राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़े नेता के रूप में देखा जाता था मगर कांग्रेस छोड़ते ही आज़ाद राष्ट्रीय पटल से गुम हो गए। एक बड़े नेता के रूप में देश की राजनीति में जितनी जल्दी गुलाम नबी आज़ाद की छवि आम लोगों के सामने ध्वस्त हुई है शायद ही दूसरे किसी नेता के साथ ऐसा कभी हुआ हो।

दरअसल गुलाम नबी आज़ाद ज़मीनी वास्तविकताओं को नज़रअंदाज़ करके इस ढंग से प्रदेश की राजनीति में उतरे थे जैसे सबकुछ बना-बनाया उन्हें मिलने वाला है। आज़ाद मामूली सा राजनीतिक गणित भी नही लगा सके कि प्रदेश की राजनीतिक ज़मीन पहले से ही इतने अधिक दलों में बंटी हुई है उसमें एक नई पार्टी के लिए ज़्यादा उम्मीद व जगह बचती नही है।

कश्मीर घाटी में पहले से ही दो बड़े स्थापित दल -नेशनल कांफ्रेस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) मौजुद हैं। जबकि ‘अपनी पार्टी’ और पीपुल्स कांफ्रेस जैसे तीन से चार छोटे दल भी कश्मीर की सियासी ज़मीन पर अपने हिस्से की सियासत कर रहे हैं। ऐसे में कश्मीर घाटी में आज़ाद के लिए अपने लिए कुछ तलाश कर पाना कहां संभव था ?

ठीक इसी तरह से जम्मू संभाग में भी गुलाम नबी आज़ाद की पार्टी के लिए बहुत अधिक संभावना है नही। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस मजबूती के साथ स्थापित हैं जबकि शेष बची राजनीतिक ज़मीन पर नेशनल कांफ्रेस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) पर अच्छी ताकत रखते हैं।

अपने लाभ के लिए दूसरों का इस्तेमाल करना और फिर उन्हें छोड़ देना, यह कला आज़ाद से बेहतर दूसरा कोई नही जान सकता। हर राजनीतिक परिस्थिति का लाभ उठाने के लिए आज़ाद ने अपनी पुरानी पार्टी-कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेस और अपने साथियों का जीवन भर खूब इस्तेमाल किया मगर धीरे-धीरे सभी उनकी राजनीति को समझते गए और उन्हें छोड़ते चले गए। यही बड़ा कारण है कि आज आज़ाद अलग-थलग हैं और निराश हैं।

इन हालात में गुलाम नबी आज़ाद के लिए बकौल शायर यही कहा जा सकता है—

‘न खुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम

न इधर के हुए न उधर के हुए

रहे दिल में हमारे ये रंजो-ओ-अलम

न इधर के हुए न उधर के हुए’ ।

By मनु श्रीवत्स

लगभग 33 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय।खेल भारती,स्पोर्ट्सवीक और स्पोर्ट्स वर्ल्ड, फिर जम्मू-कश्मीर के प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार ‘कश्मीर टाईम्स’, और ‘जनसत्ता’ के लिए लंबे समय तक जम्मू-कश्मीर को कवर किया।लगभग दस वर्षों तक जम्मू के सांध्य दैनिक ‘व्यूज़ टुडे’ का संपादन भी किया।आजकल ‘नया इंडिया’ सहित कुछ प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिख रहा हूँ।

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