journalism news: आप सोच रहे होंगे कि आज मैं यह सफाईनुमा प्राक्कथन क्यों लिख रहा हूं? मैं यह इसलिए कह-बता रहा हूं कि पत्रकारीय जगत में धारदार ध्रुवीकरण के इस चरम दौर में अलग-अलग वैचारिक प्रतिबद्धताओं का लालन-पालन कर रहे पत्रकारों को तरह-तरह के अधम ख़िताबों से नवाज़ा जाने लगा है। ज़ाहिर है कि कई लांछन मेरे माथे भी मढ़े जाते हैं। सो, मेरे मन को कुछ सवाल मथ रहे हैं और मैं आप से उन का जवाब चाहता हूं।…मेरा मक़सद किसी से भी अपनी या किसी की तुलना करना नहीं है। मैं महज़ एक समांतर सोच का कंकर आप के तालाब में फेंक रहा हूं।
मैं ने 1979 में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में काम शुरू किया था और 2006 की दीपावली के कुछ सप्ताह बाद तक वहां रहा।
वह दौर दो-दो बरस में नौकरियां बदलने का नहीं था और टाइम्स-समूह की तो रोज़गार-सुरक्षा के मामले में शोहरत पर तब यह कथन मशहूर था कि ‘टाइम्स में तो डोली जाती है तो अर्थी ही वापस आती है’।
यही अपने साथ भी हुआ। तमाम प्रस्तावों और प्रलोभनों के बावजूद दिल्ली का नवभारत टाइम्स ही मेरी पहली और अंतिम पत्रकारीय नौकरी बना रहा।
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नवभारत टाइम्स छोड़ने के बाद मैं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से संबद्ध हो गया। सोनिया गांधी तब अध्यक्ष थीं। पहले उन्होंने मुझे पार्टी के मुखपत्र की ज़िम्मेदारी दी, फिर राष्ट्रीय सचिव बनाया, लिखने-पढ़ने संबंधी काम सौंपे, प्रवक्ताओं के दल में शामिल किया और नया हिंदी विभाग बनाया तो उस में मुझे भूमिका दे दी।
इस बीच मैं समाचार पत्र-पत्रिकाओं में अपना स्वतंत्र लेखन भी करता रहा और ऐसी एक नहीं बीसियों लिखित और वाचिक मिसालें हैं, जब मैं ने कांग्रेस के, मुझे ग़लत लगने वाले, फ़ैसलों और नीतियों की भी खुल कर आलोचना, समालोचना और समीक्षा की।
मैं सत्तापक्ष को ले कर नाहक मीनमेखी नहीं हूं और प्रतिपक्ष के दोषों को कालीन के नीचे धकेलने का धंधा भी मुझे रास नहीं आता है। कोई माने-न-माने, मैं सियासी मसलों में ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ के बीजमंत्र की तस्बीह के दाने फेरता रहा हूं।
यही अपनी इबादत थी, यही अपनी इबादत रहेगी। आप सोच रहे होंगे कि आज मैं यह सफाईनुमा प्राक्कथन क्यों लिख रहा हूं?(journalism news)
मैं यह इसलिए कह-बता रहा हूं कि पत्रकारीय जगत में धारदार ध्रुवीकरण के इस चरम दौर में अलग-अलग वैचारिक प्रतिबद्धताओं का लालन-पालन कर रहे पत्रकारों को तरह-तरह के अधम ख़िताबों से नवाज़ा जाने लगा है।
ज़ाहिर है कि कई लांछन मेरे माथे भी मढ़े जाते हैं। सो, मेरे मन को कुछ सवाल मथ रहे हैं और मैं आप से उन का जवाब चाहता हूं।
ये सवाल उठाते वक़्त मैं बहुत विनम्रतापूर्वक यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मेरा मक़सद किसी से भी अपनी या किसी की तुलना करना नहीं है। मैं महज़ एक समांतर सोच का कंकर आप के तालाब में फेंक रहा हूं।
टाइम्स समूह में मेरे प्रशिक्षु पत्रकार बनने से आठ साल पहले मोबाशर जावेद अकबर का बतौर प्रशिक्षु पत्रकार चयन हुआ था।(journalism news)
वे टाइम्स के तब नए-नकौर बने प्रशिक्षण विभाग की पहली बैच के प्रशिक्षु थे। मैं आठवीं बैच का। बीच में सुरेंद्र प्रताप सिंह से ले कर रामकृपाल सिंह और हरिवंश नारायण सिंह तक कई लोग प्रशिक्षण विभाग से निकल कर नामी-गिरामी हुए।
मेरी वाली बैच की पत्रलेखा चटर्जी ने भी खूब नाम कमाया। बाद की बैच में जिन लोगों का चयन हुआ, उन में से संजय पुगलिया बहुत आगे गए।
देश के युवतम संपादक
तो जो मोबाशर यानी एम जे अकबर हैं, उन्होंने टाइम्स समूह की ‘इलेस्ट्रेटेड वीकली’ में काम किया और फिर टेलीग्राफ समूह की ‘संडे‘ के संपादक हो गए। वे तब देश के युवतम संपादक थे।
इस के सात साल बाद वे बिहार में किशनगंज से कांग्रेस के लोकसभा उम्मीदवार बने और संसद में आ गए। राजीव गांधी ने उन्हें कांग्रेस का प्रवक्ता बनाया।(journalism news)
अकबर ने ‘एशियन एज’ निकाला, ‘संडे गार्जियन’ निकाला, ‘इंडिया टुडे’ संभाला। फिर वे भारतीय जनता पार्टी में चले गए। वहां भी प्रवक्ता बन गए, राज्यसभा में चले गए और विदेश राज्यमंत्री बना दिए गए।
टाइम्स से राजीव गांधी और नरेंद्र भाई मोदी तक के इस सफ़र की पृष्ठभूमि में आप उन्हें अब भी पत्रकार मानेंगे या नहीं, मैं नहीं जानता। मगर मैं 74 बरस के हो गए अकबर को आज भी पत्रकार मानता हूं।
हरिवंश नारायण सिंह मुझ से दो साल पहले टाइम्स के प्रशिक्षु पत्रकार थे। वे ‘धर्मयुग’ में रहे। कोई 35 साल पहले जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने तो उन के अतिरिक्त मीडिया सलाहकार बन गए।
कुछ महीने बाद रांची के ‘प्रभात ख़बर’ के संपादक बना दिए गए। क़रीब 11 साल पहले नीतिश कुमार के यूनाइटेड जनता दल में चले गए।
नीतीश ने हरिवंश को राज्यसभा में भेज दिया और आज वे राज्यसभा के उपसभापति हैं। आप उन्हें भले नरेंद्र भाई समर्थक राजनीतिक मानें, मैं आज भी उन्हें पहले पत्रकार मानता हूं, फिर कुछ और।
पत्रकारिता और राजनीति के द्वंद्व
दीनानाथ मिश्र आापातकाल के दिनों से पहले संघ के प्रचारक और सक्रिय सदस्य थे। तब रोज़ाना भाजपा के दफ्तर और लालकृष्ण आडवाणी के घर जा कर पार्टी का काम भी किया करते थे।
बाद में वे ‘नवभारत टाइम्स’ में मेरे ब्यूरो-प्रमुख थे।भाजपा ने उन्हें राज्यसभा में भेजा। उन की वैचारिक निष्ठा अपनी जगह थी।
दफ़तरी-राजनीति की अखाड़ेबाज़ी में भी लगे ही रहते थे। अब नहीं हैं। मगर थे भले आदमी। मैं आज भी उन्हें पत्रकार ही कहूंगा।(journalism news)
आप के हिसाब से अरुण शौरी क्या हैं? पत्रकार या भाजपाई? ‘इंडियन एक्सप्रेस’ का उन्होंने राजीव गांधी के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने में कौन-सी कोताही बरती?
‘टाइम्स ऑफ इंडिया में भी कुछ वक़्त उन्होंने यही करने की कोशिश की। फिर भाजपा में चले गए और राज्यसभा पहुंचे।
अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री रहे। कई महत्वपूर्ण सरकारी कंपनियों का निजीकरण कर दिया।
उदात्त हिंदुत्व के खुले समर्थक रहे, मगर बावजूद इस के, आप अपना जानें, मैं आज भी उन्हें पहले पत्रकार मानूंगा।
विचारधारा और पहचान का संघर्ष
पत्रकारिता जगत की ऐसी बहुत-सी मशहूर हस्तियां रही हैं, जो पत्रकारिता करते-करते भाजपा की सियासत में भी अहम भूमिकाएं अदा करती रहीं।
बलबीर पुंज को क्या हम पत्रकार के बजाय भाजपाई मानें? चंदन मित्रा से क्या हम पत्रकार का तमगा छीन लें और उन्हें भाजपाई या तृणमूल कांग्रेसी करार दे दें?(journalism news)
स्वप्न दासगुप्ता को पत्रकार मानने के बजाय क्या हम भाजपा का पुछल्ला कहेंगे? विद्यानिवास मिश्र नवभारत टाइम्स में मेरे संपादक रहे। टाइम्स समूह के मुखिया अशोक जैन उन के पैर छूते थे।
विद्यानिवास जी धोती-कुर्ता पहनते थे, चोटी रखते थे, अपना पानी और लोटा-गिलास दफ़्तर साथ ले कर आते थे। ‘हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन’ के अनुगामी थे, मगर बहुत वि़द्वान थे।
वैचारिक मतभिन्नता के कारण मेरी जान को लगे रहते थे। बाद में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के ज़माने में उन्हें राज्यसभा मिली।
आप को मानना है तो मान लें कि वे भाजपा के पिछलग्गू थे, मैं तो उन्हें पत्रकार-साहित्यकार ही मानूंगा।
विचारधारा से परे पहचान का सवाल(journalism news)
ऐसे एक नहीं, पचासों नाम हैं, जो बेहतर पत्रकार थे, हैं, जिन्हें भाजपा सरकारों ने अहम भूमिकाएं दीं और महत्वपूर्ण अलंकरणों से जिन की शोभा बढ़ाई।
क्या हम उन सब को पत्रकारिता-कुटुंब का कलंक घोषित कर दें? अभी-अभी पद्भूषण से सम्मानित किए गए रामबहादुर राय और मैं ने नवभारत टाइम्स के नेशनल ब्यूरो में साथ काम किया है।
वे नरेंद्र भाई मोदी की सरकार आने के बाद से इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष हैं। मेरी और उन की वैचारिक आधारभूमि अलग-अलग है।
क्या सिर्फ़ इस वज़ह से मैं उन के पत्रकारीय योगदान को खारिज़ कर दूं? भाजपा सरकार ने इंडियन एक्सप्रेस के ए. सूर्यप्रकाश को प्रसार भारती का प्रमुख बनाया था और अब पद्मभूषण दिया है।
वे पत्रकार हैं या नहीं? राकेश सिन्हा अपने को खुल कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा बताते हैं। उन्हें भी राज्यसभा मिली।(journalism news)
मैं उन के विचारों से सहमत होऊं या असहमत, मगर मैं उन का पत्रकारीय लेखन पहले भी पसंद करता था और आज भी।
तो मेरा इत्ता-सा सवाल है हुज़ूर कि समांतर विचारों के मुझ बित्ते-से पैदल सैनिक के पत्रकारीय अनुष्ठान से ही इतना गुरेज़ क्यों? मैं तो इंद्रसभाई भी नहीं।