यह सोवियत रूस में 1950 के दशक में जानी-मानी बात थी कि लाखों लाख रूसी कैदियों से जो अपराध जबरन कबुलवाये गये, वे वस्तुत: निरपराध लोग थे। पर बाहरी दुनिया को इस की कोई खबर न थी। इक्के-दुक्के व्यक्तियों के बताने पर उसे अतिरंजित आलोचना समझा जाता था, जो इतने अविश्वसनीय लगते थे! पर वास्तविकता उस से भी अधिक भयावह थी।
गुलाग आर्किपेलाग की विरासत -2
सोवियत व्यवस्था में विविध शहरों को कोटा देकर भी गिरफ्तारियाँ और दंड दिए जाते थे। फलाँ शहर या जिले में इतनी संख्या में ‘जनता के दुश्मनों’ को पकड़ना है। यह सोवियत खुफिया पुलिस वालों को मिलने वाले ईनाम और तरक्की से भी जुड़ा था! सो, पुलिस अधिकारी ऊपर वालों से आग्रह करते थे कि उन्हें और भी ‘जनता के दुश्मन’ पकड़ने दिया जाए। यह सनक इस हद तक थी कि द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ने वाले रूसी सैनिक जो जर्मन सीमा में घुसे थे, उन में भी बहुतों को गिरफ्तार किया गया।
सिर्फ इस संदेह में कि चूँकि वे यूरोप के खुले, पूँजीवादी समाज का स्वतंत्र जीवन देख आए थे, तो जरूर समाजवाद के प्रति शंकालु हो गये होंगे! फिर जो रूसी सैनिक जर्मनों के बंदी होकर उधर महीनों रहे थे, उन्हें युद्ध समाप्ति के बाद लौटाये जाने पर सब को थोक भाव में बंदी बनाकर गुलाग भेज दिया गया। असंख्य वैसे रूसी सैनिक स्वदेश लौटना नहीं चाहते थे, जिन्हें ब्रिटिश और अन्य यूरोपीय सरकारों ने जबर्दस्ती वापस भेजा। (जॉर्ज ऑरवेल ने इस का प्रत्यक्ष विवरण नोट किया था, लेकिन इस घटना को यूरोपीय प्रेस ने लुप्तप्राय कर दिया क्योंकि तब सोवियत संघ हिटलर-विरोधी मोर्चे का अंग था)। उन रूसी सैनिकों में कुछ ने रास्ते में आत्महत्या कर ली, उन्हें मालूम था कि उन के साथ क्या होने वाला है। सब लौटे रूसी बंदी सैनिकों पर भी वही ‘राजनीतिक’ और ‘क्रांति-विरोधी विचार’ के अपराध की धाराएं लगाकर यातना शिविरों में भेज दिया गया।
यह धाराएं इतना विस्तार घेरती थीं कि वैसे अपराधियों के परिवारजन और संबंधी, मित्र भी स्वत: संदिग्ध और अक्सर अपराधी भी करार देकर बंदी बना लिये जाते थे। एक विशेष श्रम-यातना शिविर ‘जनता के दुश्मनों की पत्नियों ‘ का था। यानी जिस व्यक्ति को बंदी बनाया गया, उस की पत्नी भी निश्चित दुश्मन श्रेणी में संदिग्ध थी। उन के नाबालिग बच्चे भी बंदी बनाए जाते थे, ताकि बड़े होने पर सरकार के विरुद्ध शत्रुता न कर सके। जैसा सोवियत प्रोसेक्यूटर निकोलाई क्रिलेन्को ने कहा था, ”हमें अपने को न केवल अतीत बल्कि भविष्य के शत्रुओं से भी बचाना है।”
दंड के रूप भी जारशाही जमाने की तुलना में विविधता भरे और अधिक से अधिक भयावह थे। जार के जमाने में जेल भोगे रूसी लेखक दॉस्ताएवस्की ने अपने ‘नोट्स फ्रॉम द हाउस ऑफ द डेड’ में जेल के जो विवरण लिखे हैं वे सोवियत जेल और गुलाग के विवरणों के सामने मानो स्वर्ग जैसे प्रतीत होते हैं! सोल्झेनित्सिन नोट करते हैं कि जब रूसी साम्राज्ञी कैथरीन द ग्रेट ने लेखक रादिश्चेव (1791 ई. लगभग) को कैद किया था, जो उसे यातना नहीं दी गई थी। उस के संबंधियों को भी बंदी बना लेने का ख्याल किसी को सपने में भी नहीं आया था। बल्कि रादिश्चेव जानते थे कि उन का बेटा बड़ा होकर इंपीरियल आर्मी में अफसर बनेगा, चाहे खुद रादिश्चेव का कुछ भी हो।
उसी तरह, जारशाही में लेनिन के सगे भाई को आतंकवादी कार्रवाई के दंड में फाँसी हुई थी। पर लेनिन मजे से कजान विश्वविद्यालय में पढ़ते रहे। कानून की डिग्री भी ली। यदि किसी को खुद उस की राज्य-विरोधी गतिविधियों के लिए पकड़ा भी जाता था, तो केवल देहात चले जाने का हुक्म दिया जाता था। कैद भी नहीं। यह बीसवीं सदी के आरंभिक समय तक रहा। यानी, अंतिम जार के शासन तक, जिसे यूरोपीय लोग सब से बड़ा उत्पीड़क मानते रहे थे। किसी विद्रोही को सजा भी होती थी, तो एक साल की। जो सोवियत दौर में कम से कम दस साल की होती थी, वह भी जिस ने ‘कुछ न किया हो’, यानी केवल मामूली संदेह पर। वरना बीस-पच्चीस साल की सजा सामान्य थी।
जार की जेलों में राजनीतिक कैदियों को पुस्तकें आदि पढ़ने-लिखने की सुविधाएं थी। वस्तुत: जार की जेलें ऐसी ढीली-ढाली थीं कि जो चाहे भाग सकता था। खुद स्तालिन चार बार जेल से भाग चुके थे। सो, सोल्झेनित्सिन लिखते हैं कि आलस्य या अनिच्छा के सिवा कोई कारण न था कि सोवियत काल से पहले की रूसी जेलों से कोई चाहे तो भाग न निकले। तब यंत्रणा देकर पूछताछ, जबरन अपराध कबूलवाना, आदि का तो कोई पता भी न था।
चेखव के नाटकों में रूसी बुद्धिजीवी लोग जीवन की चिंताओं पर जो माथा धुनते, बिसूरते नजर आते हैं, उन्हें यदि कोई आगे तीस चालीस साल बाद रूसी जेलों में दी जाने वाली यंत्रणा बताता तो वे धक्के से पागल हो जाते! यह सोवियत रूस में 1950 के दशक में जानी-मानी बात थी कि लाखों लाख रूसी कैदियों से जो अपराध जबरन कबुलवाये गये, वे वस्तुत: निरपराध लोग थे। पर बाहरी दुनिया को इस की कोई खबर न थी। इक्के-दुक्के व्यक्तियों के बताने पर उसे अतिरंजित आलोचना समझा जाता था, जो इतने अविश्वसनीय लगते थे! पर वास्तविकता उस से भी अधिक भयावह थी।
सोवियत इंट्रोगेटर पकड़े गये कैदियों पर यंत्रणा के नये-नये प्रयोग करके खुश होते थे, सहयोगियों के बीच उन्हें इस के लिए साख मिलती थी। कैदियों से पूछताछ और यंत्रणा देने में किसी चीज की मनाही नहीं थी, कोई सीमा न थी। जार के जमाने में टॉल्स्टॉय ने ‘सत्ता के आकर्षण’ की बात लिखी थी, पर सोवियत इंट्रोगेटरों के लिए आकर्षण बदल कर ‘नशा’ हो चुका था। नयी-नयी यंत्रणाएं ईजाद करने पर वे दोस्त इंट्रोगेटरों को बुलाकर दिखाते थे, मानो किसी नये तमाशे से अपनी बोरियत दूर कर रहे हों।
उन के चंगुल में फँसे काँपते निरीह प्राणी, उन की याचना करती आँखें, गिड़गिड़ाता व्यक्ति, पीड़ा से निकलती चीख और कराह उन के मनोरंजन थे। और यह सब थी गुलाग के श्रम-शिविरों में पहुँचने से पहले की स्थिति। केवल इंट्रोगेशन, यानी अपराध कबूल कराकर दंड दिए जाने से पहले की स्थिति। अंततः गुलाग पहुँचने के बाद तो कई स्थानों में कैदी ईश्वर से अपनी मौत मनाया करते थे, ताकि मुक्ति मिले! (जारी)