भोपाल। भारत की चुनावी राजनीति के सर्कस में हर बार नए-नए किरदार रोचक प्रस्तुति प्रस्तुत करते नजर आते हैं, इसलिए अब भारत 64 कलाओं के ‘विश्वगुरु’ के खिताब के साथ चुनाव जीतने की कला का भी ‘विश्वगुरु’ बन रहा है। जिसका ताजा उदाहरण ब्रिटेन में एक भारतीय का प्रधानमंत्री बनना है। यहां की राजनीतिक दिशा ही अन्य देशों से अलग है, विश्व के अन्य प्रजातांत्रिक देशों में भी भारत की तरह आम मतदाता की अहम भूमिका है, किंतु अंतर यह है कि यहां के राजनेताओं को हर 4 साल बाद आने वाले चुनावी वर्ष में ही मतदाताओं की याद आती है और वह भी किसी ‘जनसेवा’ की गरज से नहीं बल्कि ‘कुर्सी’ प्राप्त करने की गरज से?और पांचवें साल के बाद फिर 4 साल के लिए आम वोटर को भुला दिया जाता है, अर्थात उसे ‘भगवान’ के भरोसे छोड़ दिया जाता है।
भारत के इस राजनीतिक परिदृश्य के लिए राजनीति और राजनेता कम बल्कि आम वोटर काफी दोषी हैं, जो 75 साल बाद भी अपने राजनीतिक व नैतिक अधिकार समझ नहीं पाया और पिछली शताब्दी के 50 के दशक पर ही अटका हुआ है, इसके साथ ही यदि यह कहा जाए कि राजनीति व राजनेताओं ने आम वोटर को शिक्षित नहीं होने दिया तो कुछ भी गलत नहीं होगा, पिछले 75 सालों से इसी ढर्रे पर देश की राजनीति चलती रही है और सरकारें बनती रही है, आज की राजनीति और उसके नेता जिन नेहरू गांधी को पानी पी पी कर कोष रहे हैं, वह स्वयं भी तो इन्हीं की राजनीति के वारिस बने हुए हैं, यहां हर 5 सालों में वही परिदृश्य नजर आता है, जिसकी भारतीय जनता आदी हो चुकी है, अब फिर वही घृणित डॉक्यूमेंट्री फिर दिखाने की तैयारी चल रही है, क्योंकि चुनावी फिल्म महज 190 दिन बाद दिखाई देने वाली है, यह पूरी फिल्म तो अगले साल के प्रारंभ में दिखाई जाएगी, किंतु उसकी डॉक्यूमेंट्री हर कहीं शुरू हो चुकी है और हमेशा की तरह भारत की पूरी राजनीति सब कुछ भूल कर सिर्फ और सिर्फ इसी “कुर्सी दौड़” की फिल्म में शामिल हो गई है।
वास्तव में आज के भारत की राजनीति और उसके कौशल को लेकर “गुरु गुड़ और चेला शक्कर” कहा जाए तो कतई गलत नहीं होगा, क्योंकि चुनावी राजनीति के कथित ‘विश्व गुरु’ भारत आज भी गुड़ की भूमिका में ही है, जबकि इसके चेले ब्रिटेन जैसे अन्य देश ‘शक्कर’ की श्रेणी में पहुंच गए हैं।
भारत में लोकसभा के चुनाव अगले साल के प्रारंभ में होने वाले हैं लेकिन उसके आकर्षक मंच की सजावट अभी से शुरु हो गई है, अर्थात भारत के दोनों प्रमुख दलों सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी तथा कांग्रेस ने पांचों चुनावी राज्यों में जिम्मेदारियां का बंटवारा अपने नेताओं के बीच कर दिया है, जैसे प्रधानमंत्री ने राजस्थान, अमित शाह ने मध्य प्रदेश, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने छत्तीसगढ़, और प्रमुख नेता तथा पार्टी के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष तेलंगाना की चुनावी कमान संभाल लेंगे। इसी तरह कांग्रेस ने भी चुनावी राज्यों को अपने प्रमुख नेताओं के बीच बंटवारा कर दिया है। इस तैयारी का सीधा मतलब यही है कि अब अगले एक 100 दिन याने राज्यों में विधानसभा चुनाव होने तक वोटरों के वास्तविक हित की बात कोई नहीं करेगा, सिर्फ “वादों के लड्डू” ही वितरित किए जाएंगे जिनसे आकर्षित हो बेचारा भूखा वोटर अपने सुनहरे पकवानों की कल्पना भर कर सके।
इस प्रकार कुल मिलाकर अगले 100 दिनों तक चुनावी राज्यों के वोटरों को दिल्ली नहीं जाना पड़ेगा दिल्ली स्वयं चलकर उन तक पहुंचेगी फिर यह प्रक्रिया सफल हो या असफल। इसी कारण अब प्रधानमंत्री सहित वरिष्ठ राजनेताओं के दर्शन सुलभ होते रहेंगे। अब भारतीय चुनावी राजनीति में एक नया ट्रेंड भी शामिल हो गया है, मतदाताओं को भविष्य के सुनहरे सपने दिखाने के साथ अब तक की शासकीय उपलब्धि के आंकड़े भी प्रस्तुत किए जाने लगे हैं, यह मशक्कत बुद्धिजीवी वोटरों को आकर्षित करने के लिए की जा रही है, जैसे कहा जा रहा है कि पिछले 9 साल के मोदी राज में देश में डेढ़ करोड़ गरीब कम हुए, अब एक बेचारे वोटर की क्या बिसात कि वह इस कथन की जांच करें। ऐसी अनेक कथित उपलब्धियां चुनावी दौर में दिखाई जा रही है, अब इन पर वोटर को विश्वास करना हो तो करें, नहीं करना हो तो ना करें, राजनेताओं ने अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली।
इस प्रकार आज देश में फिर वही चुनावी माहौल की शुरुआत हो गई है और अगले साल तक हर कहीं “वोटर लुभाव स्पर्धा” के परिदृश्य नजर आने वाले हैं। अर्थात 24 की फतेह के लिए दो-चार के परिदृश्य।