अखिल भारतीय संत समिति के महासचिव जितेंद्रानंद सरस्वती से ले कर रामभद्राचार्य तक और चक्रपाणि जैसों से ले कर देवकीनंदन ठाकुर जैसों तक को मोहन भागवत की कही बात पर त्रिशूल ताने खड़ा देखने के पीछे की नीयत तो कोई भी समझ सकता है, मगर अविमुक्तेष्वरानंद सरीखे चैतन्य मनीषी को इस प्रसंग में भागवत-विरोधी छतरी के नीचे खड़ा देख कर किसी को हैरत हो रही हो, न हो रही हो, मैं तो अवाक हूं।
मैं दो़ साल से कह रहा था कि हिंदू हृदय सम्राट की पदवी के अलंकरण का सिंगारदान अब तलवार की म्यान में तब्दील हो चुका है, प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के उस में एक साथ विराजे रहने के दिन लद गए हैं और 2025 में हमारे प्रधानमंत्री द्वारा लालकिले से देश को संबोधित करते-करते दोनों में से एक के लिए विदा लेने की नौबत आ जाएगी। मगर मेरी इस पेशीनगोई पर मुझे परायों की गाली-गलौज तो सुननी ही पड़ रही थी, अपने भी दूर की कौड़ी कह कर नाक-भौं सिकोड़ रहे थे। मैं मुसलसल कह रहा था कि भागवत-कथा के समापन का फ़ैसला तो नरेंद्र भाई सितंबर-2015 के पहले हफ़्ते में ही मन-ही-मन ले चुके थे और उस के बाद से तो वे सिर्फ़ ‘दुआ-सलाम बनी रहे’ का दिखावा कर रहे हैं, लेकिन अपने को दक्षिण, वाम और मध्यमार्गी राजनीति का आचार्य मानने वाले मेरे लिखे-कहे को अयथातथ बता कर खारिज करते रहे।
मगर अब आज का दृश्य क्या है? भागवत जी और नरेंद्र भाई के रिश्ते क्या अब आप को सास-बहू मंज़िल की कगार तक पहुंच गए नहीं लग रहे हैं? रोज़-रोज़ मंदिर-मस्जिद विवाद उठाने वालों को आड़े हाथों लेने के बाद से जिस तरह हिंदू धर्म के कई सर्वमान्य, अर्धमान्य और स्वयंभू संत-महात्मा भागवत जी पर पिल पड़े हैं, क्या वह आप को सायास नहीं लग रहा है? हर मस्जिद के नीचे मंदिर खोजने की प्रवृत्ति पर संघ-प्रमुख ने प्रहार कोई पहली बार तो किया नहीं है। तो फिर उन की ऐसी सलाह की चदरिया को इसी बार इतना दागदार करने की कोशिशें क्यों हो रही हैं? इसलिए हो रही हैं कि अगले बरस के अंतिम चार महीनों में भारत की राजनीति के करवट लेने के आसार बढ़ते जा रहे हैं। आठ महीने बाद इस महाभारत के अठारहवें दिन के युद्ध की शुरुआत होगी और तब अलग-अलग प्रहरों की उठापटक में यह तय होगा कि संघ आगे भी भाजपा के पितामह की भूमिका में ही बना रहेगा या उसे अपनी संतान का मोहताज बन कर जिंदगी गुजारनी पड़ेगी?
अखिल भारतीय संत समिति के महासचिव जितेंद्रानंद सरस्वती से ले कर रामभद्राचार्य तक और चक्रपाणि जैसों से ले कर देवकीनंदन ठाकुर जैसों तक को मोहन भागवत की कही बात पर त्रिशूल ताने खड़ा देखने के पीछे की नीयत तो कोई भी समझ सकता है, मगर अविमुक्तेष्वरानंद सरीखे चैतन्य मनीषी को इस प्रसंग में भागवत-विरोधी छतरी के नीचे खड़ा देख कर किसी को हैरत हो रही हो, न हो रही हो, मैं तो अवाक हूं। स्थूल-बुद्धिधारकों को भी यह अच्छी तरह दीख रहा है कि भागवत के ताज़ा बयान पर बवाल कौन खड़ा करवा रहा है और क्यों खड़ा करवा रहा है। राजप्रासाद के दालान में चल रहे इस मल्लयुद्ध की परछाइयों के दिग्दर्शन के लिए किसी दिव्यदृष्टि की ज़रूरत नहीं है। बिना आंखों के भी यह देखा जा सकता है कि भागवत पर हो रही ढेलेबाज़ी के पत्थर किस छत पर रखे हैं। ऐसे में किसी अविमुक्त का महापातकी रुझान मेरी तो समझ में नहीं आ रहा।
मुझे बस इतना समझ में आ रहा है कि संघ-प्रमुख के पास मदमस्त मतंग की चाल-ढाल नियंत्रित करने का जो अंकुश है, वह किसी भी हिंदू धर्म गुरु या उन के समूह के पास नहीं है। इसलिए कि किसी भी हिंदू मठाधीश के पास वह पैदल सेना नहीं है, जो मतदान-प्रबंधन की ज़मीनी कूवत रखती हो। मुझे नहीं लगता कि भागवत हिंदू धर्म की ठेकेदारी हासिल करने की ख़्वाहिश रखते होंगे, लेकिन हिंदू-मतों के अचला-संयोजन में वे किसी भी रामभद्राचार्य से कहीं ज़्यादा प्रभावशाली हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पथ-संचलन शक्ति के सामने अखिल भारतीय संत समिति की कोई संरचित बिसात ही नहीं है। इसलिए हिंदुओं को संगठित करने की ठेकेदारी कोई भागवत को दे-न-दे, यह इज़ारेदारी तब तक उन्हीं के पास रहेगी, जब तक वे संघ-प्रमुख हैं।
यही वज़ह है कि भागवत को संघ-प्रमुख की आसंदी से धकेलने की क़वायद पिछले चार-पांच बरस से अपने उरूज़ पर है। 2024 के आम चुनाव के समय जब नरेंद्र भाई के इशारे पर भाजपा-अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने संघ की हैसियत यह कह कर कमतर दिखाने का अपकर्म किया कि अब भाजपा स्वयं-सक्षम है और उसे किसी भी चुनाव में संघ के सहारे की ज़रूरत नहीं है तो हम ने देखा कि किस तरह भागवत ने ऐसा उलट-पुराण पढ़ा कि नरेंद्र भाई धम्म से स्पष्ट बहुमत के नीचे गिर पड़े। रामलला का भव्य-दिव्य मंदिर जब बिना संघ-सहयोग के अयोध्या तक में भाजपा को जीत नहीं दिला पाया तो नरेंद्र भाई का अघोषित दूत बन कर जगत प्रकाश दौड़े-दौड़े नागपुर के संघ मुख्यालय पहुंचे और अपने कहे-कहाए की माफ़ी मांगी। भागवत तब क्षमावंत नहीं होते तो क्या तकनीकी कलाकारी के बावजूद हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव नतीजे ऐसे आ पाते? संत समाज के बयानवीर भावनात्मक लहरों का कैसा ही उफ़ान उठा दें, लेकिन अगर उन तरंगों को भाजपा के लिए वोट में बदलने का ज़िम्मा संभालने से संघ के स्वयंसेवक इनकार कर दें तो क्या होता है – यह नरेंद्र भाई देख चुके हैं।
भागवत जी और नरेंद्र भाई के बीच यह तनातनी अभी इसलिए और बढ़ेगी कि फरवरी में भाजपा को नया अध्यक्ष मिलने वाला है। इस की चौपड़ बिछाते वक़्त नरेंद्र भाई यह जानते हैं कि वे संघ की सहमति के बिना अपने किसी अनुगामी को अध्यक्ष बनवा नहीं पाएंगे और भागवत तुले हुए हैं कि वे किसी के निजी अनुचर को तो भाजपा-अध्यक्ष बनने नहीं देंगे। वे मानते हैं कि जो बने, उस की निष्ठा किसी व्यक्ति के प्रति नहीं, संगठन के प्रति होनी चाहिए। भागवत भाजपा को दस बरस के व्यक्तिपरक माहौल से बाहर खींच कर उसे संगठनपरक वातावरण के हवाले करना चाहते हैं। नरेंद्र भाई भाजपा पर संघ के साए को सीमित करने के साथ-साथ, अगर हो सके तो, संघ पर कब्जे की तैयारी में, आज से नहीं, कम-से-कम पांच साल से तो गुपचुप सक्रियता से लगे ही हुए हैं। सो, भागवत और नरेंद्र भाई के बीच शह-मात का यह खेल आगे और तुर्श होता जाएगा।
भागवत के ताज़ा बयान के बाद पिछले छह दिनों से मीडिया का सरकार-पोषित हिस्सा अपने परदों-पन्नों पर यह बहस बेवज़ह नहीं परोस रहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को औपचारिक तौर पर वक्तव्य जारी कर यह साफ करना चाहिए कि राम जन्मभूमि के बाद अब मथुरा और काशी को ले कर उस का रुख क्या है। मीडिया-बांकुरे अपनी दनदनाती दैहिक भंगिमाओं के साथ इस विमर्श को व्यापक बनाने में लग गए हैं कि संघ बताए कि वह नए मंदिर-मस्जिद विवाद खड़े नहीं करने की भागवत की व्यक्तिगत राय से, बतौर संगठन, सहमत है या असहमत? एक कदम आगे बढ़ कर इस सुगबुगाहट की बुवाई भी की जा रही है कि सभ्यतागत विपथन के प्रसंगों को दुरुस्त करने के लिए केंद्र में अलग से एक मंत्रालय का गठन होना चाहिए। संघ-काडर को पसोपेश में डाल कर दो-फाड़ करने की इस मुहीम के पीछे से आप को किस का चेहरा झांकता नज़र आ रहा है? इस कारस्तानी के पीछे की नीयत आप को क्या लगती है? इसीलिए मैं फिर दोहराता हूं कि 2025 का अंत आते-आते भागवत और नरेंद्र भाई में से किसी एक की सल्तनत का अंत होना तय है।