कृषि कानूनों पर 303 सीटों पर जब बैक फुट पर आना पड़ा था तो अब तो 240 ही हैं। चिराग पासवान और जीतनराम मांझी भी सवाल उठा देते हैं। जेडीयू के के सी त्यागी भी। सरकार बने अभी दो महीने हुए और चार बार भक्तों को शर्मिंदा होना पड़ा। सबसे पहले बजट में मिडिल क्लास के चार पैसे के अतिरिक्त लाभ को छीनने के लिए लाया गया कैपिटल गैन टैक्स वापस लिया।
मीडिया के अंध सपोर्ट के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी को लैटरल एंट्री का आदेश वापस लेना पड़ा। हालांकि यह अभी निकाली गई एक ही भर्ती रोकी गई है। क्योंकि यह ब्यूरोक्रेसी के उच्च और मध्यम दर्जें के पदों के लिए थी। और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने इसका कड़ा विरोध करते हुए सीधे भारतीय प्रशासनिक सेवा को तबाह करने और आरक्षण को खत्म करने का आरोप लगया था। जिसका जवाब भाजपा के मंत्री, मीडिया नहीं दे पा रहे थे। भक्त तो बेचारे देते क्या? वे तो सोशल मीडिया पर बस मोदी मोदी कर रहे थे।
लेकिन दबाव में आए मोदी के अचानक आदेश वापस लेने से भक्त फिर बेइज्जत हो गए। मीडिया पर तो अब इज्जत बेइज्जती का प्रभाव पड़ता नहीं इसलिए उसे कोई फर्क नहीं पड़ा। सुबह होते ही वह नया टास्क मांगने लगा। उसे रोज सुबह नया अजेंडा थमाया जाता है, आज के काम का।
पहले अख़बार जब अख़बार हुआ करते थे तो उनमें शहर के पृष्ठ पर एक कॉलम हुआ करता था आज के कार्यक्रम! ऐसे ही सुबह मोदी सरकार की तरफ से मीडिया को आज दिन में कौन कौन सी खबरें चलाना है। झूठी खबर गढ़ना है। राहुल पर कैसे आक्रमण करना है। शाम की डिबेट काहे पर होंगी सब थमा दिया जाता है। तो मीडिया के पास सोचने का समय ही नहीं होता या उसे दिया नहीं जाता।
लेकिन भक्त तो दिन भर फालतू हैं। नौकरी धंधा छीना ही इसीलिए गया था कि सस्ते लोग मिल सकें। और यह बहुत कम पैसों में काम करने वाले लोग बेचारे बार बार दोई दीन से गए। संडे हलवा मिला ने मंडे वाली स्थिति में पहुंच जाते हैं। पैसा भी कम और बेइज्जती घणी! घणी राजस्थानी शब्द है। घणी यानि बहुत।
तीन कृषि कानूनों के मामले में भी ऐसा ही हुआ था। भक्तों ने किसानों को आतंकवादी, खालिस्तानी, मवाली सब घोषित कर दिया था। और मोदी जी ने न केवल कानून वापस लिए बल्कि माफी भी मांग ली।
स्थिति गंभीर है। 303 सीटों पर जब बैक फुट पर आना पड़ा था तो अब तो 240 ही हैं। चिराग पासवान और जीतनराम मांझी भी सवाल उठा देते हैं। जेडीयू के के सी त्यागी भी। सरकार बने अभी दो महीने हुए और चार बार भक्तों को शर्मिंदा होना पड़ा।
सबसे पहले बजट में मिडिल क्लास के चार पैसे के अतिरिक्त लाभ को छीनने के लिए लाया गया कैपिटल गैन टैक्स वापस लिया। मिडिल क्लास जो मोदी का सबसे बड़ा समर्थक था उसे दस साल में मिला तो कुछ नहीं। उल्टे वह जो थोड़ी बहुत बचत करके एक छोटा सा मकान बना लेता था। उसे बेचने पर भारी टैक्स लगा दिया
गया था। मीडिल क्लास तो हिल गया। उसके तेवर देख यह वापस लेना पड़ा।
वक्फ बिल लाए कि वापस हिन्दू-मुसलमान शुरू करेंगे। मगर संख्या तो 240 ही है। लोकसभा में पास करवाने के लिए 272 चाहिए थीं। सब सहयोगियों चन्द्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार, चिराग पासवान, जीतनराम मांझी, जयंत चौधरीने मना कर दिया। मजबूर होकर इसे जेपीसी ( संयुक्त संसदीय दल) को भेजना पड़ा।
पर मीडिया पूरी तरह समर्पित है। हालांकि यू ट्यूब, सोशल मीडिया और मुख्य मीडिया का भी एक हिस्सा जनता की आवाज उठा रहा है जो पत्रकारिता का मुख्य काम है। इस पर काबू पाने के लिए ब्राडकास्ट बिल लाया जा रहा था। मगर चौतरफा दबाव के कारण उसे भी रोक देना पड़ा।
और चौथा बड़ा फैसला अभी मंगलवार को देखा जब लैटरल एंट्री का निकाला गया विज्ञापन तक वापस लेना पड़ा।
लेकिन यह याद रहे कि सिर्फ एक आदेश वापस लिया गया है। बाकी सब चुपचाप चल रहा है। अभी कृषि वैज्ञानिकों के 368 पद निकाले गए थे। साफ लिखा था कि इसमें आरक्षण लागू नहीं होगा। इस तरह के बहुत से विभागों में चुपचाप लैटरल एंट्री की जा रही है।
यह मैरिट पर बहुत बड़ा डाका है। हजारों लड़के लड़कियां रात दिन सिविल सर्विसेज और दूसरे प्रतियोगी परिक्षाओं की तैयारी करते रहते हैं। कड़ी मेहनत और मुश्किल परिस्थितियों में एक्जाम देने के बाद वह पाते हैं कि अधिकांश जगहों पर तो लैटरल एंट्री कर ली गई है। बिना एक्जाम अपने लोगो को लगा लिया गया है।
अभी इससे पहले ऐसे ही जो उच्च और मिडिल रेंक में भर्तियां की गईं थीं। उनमें आधे अंबानी, अडानी के यहां काम करने वाले लोग थे। इन्हें सरकार में भेजा ही इसीलिए जाता है कि वहां बैठकर वह अपने सेठों की सेवा करेंगे।
भारत की सीविल सर्विस एक पेशेवर संस्था मानी जाती है। अभी तक वहां सिलेक्शन भी काफी हद तक पारदर्शी तरीके से बिना भेदभाव के होते आया था। कार्यपालिका को लोकतंत्र का एक मजबूत स्तंभ कहा गया है। संवैधानिक तौर पर। तीन लिखित पिलर में से एक। विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका। एक चौथा मीडिया तो इसे खुश करने के लिए जबर्दस्ती कहा जाने लगा था। मगर उसका संविधान में कहीं जिक्र नहीं है। सबसे पहले वही पोला निकला। एकदम झुक गया। अब कार्यपालिका को तोड़ने की बारी है। लेकिन समय रहते राहुल गांधी के कड़े प्रतिरोध और सहयोगी दलों की नाखुशी के बाद फिलहाल इस पर ब्रेक लग गया है। मगर जब तक सरकार नीतिगत तौर पर यह नहीं कहती कि सारी नियुक्तियां विधिवत पारंपरिक तरीके से ही होंगी। बीच में से किसी को भर्ती नहीं किया जाएगा। लैटरल एंट्री बिल्कुल बंद की जा रही है तब तक विपक्ष को और भाजपा के सहयोगी दलों को सावधान रहना होगा। रहना तो अफसरों को भी होगा। क्योंकि उनकी सर्विस में ही यह मिलावट डाली जा रही है। जो उनके दबदबे और प्रतिष्ठा को मिटा देगी।
जैसे जवानों से अब पूछा जाता है कि रेगुलर या अग्निवीर? वैसे ही आईएएस से पूछा जाएगा असली वाले या नकली वाले?
देश को बहुत खतरनाक स्थिती पर ले आए हैं। दलित आदिवासी भारत बंद कर रहे हैं। कभी सुना था कमजोर को बंद का कॉल देते? दस साल में दूसरी बार दिया है। कहीं जोर जबर्दस्ती नहीं। मगर फिर भी पुलिस लाठियां मार रही है। बंद का मजाक उड़ाया जा रहा है। पुलिस को उकसाया जा रहा है। आम जनता को भड़काया जा रहा है।
इससे पहले 2018 में दलितों ने किया था। उन पर गोली चलाई गई। कई दलित युवक मारे गए थे। यह हिंसा कौन करता और करवाता है। क्या भारत का दलित इतना दबंग हो गया कि वह सार्वजनिक हिंसा करे?
उसे तो मोदी सरकार ने इतना मजबूर कर दिया कि उसे अपनी आवाज उठाने के लिए बंद का वह हथियार उठाना पड़ा जो उसके लिए नहीं बना। बंद कमजोर का हथियार नहीं है।
बंद तो हमारे समय में छात्र किया करते थे। एक कॉल होती थी और बाजार बंद हो जाते थे। ऐसे ही व्यापारियों का बंद होता था। बाजार उनके होते थे। कोई समस्या नहीं होती थी। ऐसे ही भाजपा का बंद। व्यापारी उनके समर्थक होतेथे। एक काल में बाजार बंद कर देते थे।
मगर कमजोर के लिए बंद नहीं है। बाजार उसके नहीं हैं। पुलिस उसके नीला गमछा डालकर निकलने पर ही मार रही है। उसकी सबसे बड़ी नेता बनने का दावा करने वाली मायावती में सड़क पर निकलने की हिम्मत नहीं है। जब से ट्वीट आ गया है वे केवल ट्वीट करती हैं। ऐसा ही गोलमोल सा कि भाजपा को बुरा भी नहीं लगे और उनकी जाति का वोटर समझे कि बहन जी उसके पक्ष की बात कर रही हैं। अब वे सारे दलितों की बात भी नहीं करती हैं। अभी लोकसभा चुनाव हारने के बाद साफ कहा कि मेरी जाति के लोगों ने मुझे वोट दिए। बाकी मुसलमानों का साफ विरोध किया ही इन्होंने वोट नहीं दिया है। आगे से इन्हें देखेंगे।
लेकिन अपनी जाति के अलावा बाकी दलित जातियों पर शक कर लिया कि तुमने भी वोट नहीं दिया।
कांशीराम ने आम्बेडकर ने दलित एकता बनाई थी। मगर मोदी सरकार की तरह मायावती भी इसमें विभाजन करने लगी हैं।दरअसल यह सारा खेल ही नफरत और विभाजन का है। प्रधानमंत्री मोदी को तो इसके अलावा कुछ आता नहीं है। लेकिन अफसोस की पूरा देश भी अब दलदल में उलझ गया। मोदी जी सारे काम देश को उलझाए रखने के लिए करते हैं। भावनात्मक, प्रतीकात्मक। ताकि लोग अपनी असली समस्याओं पर नहीं आ सकें। धर्म, जाति एवं दूसरे नफरती और विभाजनकारी मुद्दों में उलझे रहें।