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नए अनुसंधान, गैर-बराबरी बढ़ रही

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अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने अपनी पेरिस स्थित संस्था Inequality Lab की नई रिपोर्ट को सोशल मीडिया साइट X पर शेयर करते हुए महत्त्वपूर्ण बात कही है। तो सबसे पहले उनकी उस टिप्पणी पर ही गौर करते है। उन्होंने कहा- “inequalitylab.world पर डॉ. डी. लेइते की नई शोध रिपोर्टः कंपनियां हैं टैक्स छिपाने का अड्डाः निजी खर्चों को बताया जाता है कंपनी का खर्च।

सामने आए मुख्य तथ्यः जो व्यक्ति कंपनियों को नियंत्रित करते हैं, वे अपना 36 प्रतिशत व्यक्तिगत खर्च कंपनियों के बजट में डाल देते हैं।  निष्कर्षः जितना अब तक अनुमान था, असल गैर-बराबरी उससे काफी ज्यादा है। धन के पुनर्वितरण के मकसद से टैक्स लगाना समस्या का पर्याप्त समाधान नहीं है। हमें आर्थिक लोकतंत्र की जरूरत है।”

अब आर्थिक लोकतंत्र से पिकेटी का क्या मतलब है, यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया है। 2021 में उनकी एक किताब जरूर आई थी, जिसका नाम थाः Time for Socialism. बहरहाल, उनकी समाजवाद की समझ उस सोशल डेमोक्रेसी तक ही सीमित रही है, जिस पर दूसरे विश्व युद्ध के बाद 30 से 40 वर्षों तक यूरोप के विभिन्न देशों में अमल किया गया। मगर नव-उदारवाद का दौर आने के साथ यूरोपीय सरकारों ने सोशल डेमोक्रेसी से किनारा करना शुरू किया। आज वहां ये व्यवस्था सिर्फ नाम भर को है।

पिकेटी की एक बड़ी आलोचना यह रही है कि वे कार्ल मार्क्स के विमर्श में आईं कई बातों को इस रूप में कहते हैं, मानों दुनिया ऐसा पहली बार कहा जा रहा है। जबकि हमेशा उनकी कोशिश मार्क्सवादी परंपरा से खुद को अलग दिखाने की रही है। इसके विपरीत वे अपने को अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स के अधिक करीब दिखाने का प्रयास करते रहे हैं।

पिकेटी का महत्त्व यह है कि Occupy Wall Street मूवमेंट के साथ एक प्रतिशत बनाम 99 फीसदी के नारे से आज की दुनिया में बढ़ी आर्थिक गैर-बराबरी पर जो बहस छिड़ी थी, उसे उन्होंने तथ्यात्मक एवं शोध-परक आधार प्रदान किया। ये समस्या कितना विकराल रूप ग्रहण कर चुकी है, इससे दुनिया को वाकिफ़ कराया। इसके समाधान के बतौर मुताबिक पूंजीवादी लोकतंत्र के तहत ही अत्यधिक धनी लोगों पर अधिक टैक्स लगाने की वकालत वे करते रहे हैं। मगर अब उन्होंने कहा है कि सिर्फ टैक्स लगाना पर्याप्त समाधान नहीं है।

बहरहाल, इस बहस में आगे जाने के पहले उचित होगा कि Inequality Lab की ताजा रिपोर्ट के निष्कर्ष क्या हैं, उन पर एक सरसरी नज़र डाली जाएः

–   व्यक्तियों का किसी फर्म पर किस प्रकार का नियंत्रण है, उससे यह तय होता है कि वे किस हद तक अपने व्यक्तिगत एवं कंपनी के खर्च के बीच की रेखा को धुंधली कर देंगे।

–  कंपनी के मालिक कंपनी को आड़ बना कर टैक्स देने से बचते हैं।

–  वे अपने व्यक्तिगत खर्चों को कंपनी का खर्च बता कर टैक्स देने से बच जाते हैं।

– इस रणनीति से कंपनियों का खर्च बढ़ जाता है, जिससे कंपनी पर मुनाफा आधारित जो टैक्स बनता, वह घट जाता है। यानी कॉरपोरेट टैक्स की भी चोरी हो जाती है।

–              ताजा अध्ययन से सामने आया है कि यह प्रचलन व्यापक रूप से मौजूद है, जिससे सरकारों को राजस्व का भारी नुकसान हो रहा है और गैर-बराबरी बढ़ रही है।

Inequality Lab से जुड़े अर्थशास्त्री डेविड लेइते ने इस अध्ययन के लिए पुर्तगाल को सैंपल बनाया। वहां के आंकड़ों का अध्ययन करने पर निम्नलिखित बातें सामने आईः

   जो लोग कंपनी को नियंत्रित करते हैं (यानी मालिक हैं) वे औसतन अपना 36 प्रतिशत व्यक्तिगत और 31 प्रतिशत घरेलू खर्च कंपनी के खर्च के रूप में दिखा देते हैं।

  इस कारण सरकार को जीडीपी के एक फीसदी हिस्से के बराबर राजस्व का नुकसान हो रहा है।

 80 प्रतिशत से ज्यादा छोटी कंपनियों के मालिक ये तरीका अपनाते हैं, लेकिन बड़ी कंपनियों के प्रबंधकों के बीच भी यह चलन व्यापक रूप से मौजूद है।

 जो खर्चे कंपनी के नाम पर डाले जाते हैं, उनमें खुदरा खरीदारी, होटल और रेस्तरां बिल, वाहन खर्च आदि शामिल हैं। यहां तक कि जन्म दिन पर पार्टी आयोजित करने और इलाज पर आए खर्च का भी एक बड़ा हिस्सा कंपनी पर डाल दिया जाता है।

ये कहानी ना पुर्तगाल तक सीमित है, ना यूरोप तक। दुनिया भर के कॉरपोरेट सेक्टर में यह चलन बड़े पैमाने पर मौजूद है। हालांकि Inequality Lab की ये रिपोर्ट सिर्फ कंपनी प्रबंधकों के बारे में है, लेकिन हम अपने तजुर्बे के आधार पर कहने की स्थिति में हैं कि स्वतंत्र रूप से काम करने वाले अनेक पेशवेर लोग (प्रोफेशनल्स) भी व्यक्तिगत खर्चे को अपने काम पर आया खर्च बता कर टैक्स रियायत हासिल कर लेते हैं। इससे भी सरकारों के खजाने को क्षति पहुंच रही है।

ऐसा नहीं है कि सरकारें या उसकी एजेंसियां ऐसे चलन से नावाकिफ़ हों। मगर, उन पर कॉरपोरेट्स और पेशवेर समूहों का इतना अधिक प्रभाव कायम हो चुका है कि वे टैक्स व्यवस्था की इन छिद्रों को भरने की इच्छाशक्ति वे नहीं जुटा पातीं। ऐसे में राजकोष भरने के लिए वे परोक्ष करों का सहारा लेती हैं, जिनसे आम मेहनतकश आवाम की जेब कटती है। जाहिर है, इन दोनों प्रचलनों का आर्थिक गैर-बराबरी बढ़ाने में भारी योगदान रहा है।

कंपनियों की आड़ में टैक्स चोरी के चलन पर Inequality Lab की रिपोर्ट से बेशक ठोस रोशनी पड़ी है। इससे इस बारे में विचार-विमर्श को नया आधार मिला है। हर समस्या की चर्चा के साथ ही यह सवाल अंतर्निहित होता है कि उसका समाधान क्या है। थॉमस पिकेटी ने कहा है कि हल आर्थिक लोकतंत्र है। मगर ये आर्थिक लोकतंत्र क्या है? अगर उनकी राय में यह redistributive taxation से आगे की चीज है, तो उसका व्यावहारिक रूप क्या होगा?

पिकेटी की समस्या यह है कि वे इतिहास की वर्गीय समझ (class understanding) की पूरी तरह उपेक्षा कर देते हैं। इस समझ के मुताबिक खुद प्रातिनिधिक लोकतंत्र (representative democracy) का उदय सामंतवाद के चंगुल ने नवोदित कारोबारी/पूंजीपति तबके के संघर्ष के परिणामस्वरूप हुआ। उस  लोकतंत्र के साथ सामाजिक या कल्याणकारी एजेंडे का जुड़ना श्रमिक वर्ग के फैलते संघर्षों और सोवियत क्रांति से शासक वर्ग में पैदा हुए भय का परिणाम था। इस बारे में पर्याप्त शोध एवं तथ्य मौजूद हैं। सोशल डेमोक्रेसी की धारणा दूसरे विश्व युद्ध से ठीक पहले फ्रैंकलीन डी। रुजवेल्ट के न्यू डील (कानूनों) से अस्तित्व में आई, जिसे विश्व युद्ध के बाद यूरोप और स्कैंडेनेवियन देशों में अपनाया गया। बेशक, यूरोप में इस पर बेहतर अमल हुआ। उसका नतीजा वहां बेहतर सामाजिक विकास, मानव विकास, एवं आम खुशहाली के रूप में सामने आया। उसे पूंजीवाद का स्वर्णिम दौर भी कहा गया है।

मगर दो बातें अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए। जिन देशों में यह दौर आया, उनका विश्व अर्थव्यवस्था पर लगभग पूरा नियंत्रण था। उपनिवेशवाद के बाद के दौर के बाद भी नए रूप में अपने साम्राज्यवाद को ढालने और उसका शिकंजा बनाए रखने में वे सफल थे। इस कारण उनके पास संसाधनों की कमी नहीं थी। इसीलिए वे कल्याणकारी राज्य की धारणा को बेहतर ढंग से लागू कर पाए। सोवियत संघ के खत्म होने और श्रमिक वर्ग का दबाव घटने के बाद उन देशों के शासक वर्गों को सोशल डेमोक्रेसी की जरूरत उतनी नहीं रह गई। तो यह “शौक” वे त्यागने लगे।

इस ऐतिहासिक प्रक्रिया को नजरअंदाज कर बढ़ी गैर-बराबरी की परिघटना की आंशिक समझ ही बनाई जा सकती है। मार्क्सवादी नजरिए से देखें, तो गैर-बराबरी अपने-आप में कोई स्वतंत्र परिघटना नहीं है। गैर-बराबरी की पृष्ठभूमि में वर्तमान उत्पादन संबंध हैं। उत्पादन के स्रोतों पर संपन्न एवं सक्षम वर्गों/व्यक्तियों का नियंत्रण हमेशा से आर्थिक विषमता की जड़ में रहा है। और जब तक ये विषमता रहेगी, जिन तबकों का इसे कायम रखने में स्वार्थ है, वे इसे बनाए रखने के लिए दूसरी सामाजिक विषमताओं को भी निर्मित करते रहेंगे- पहले से मौजूद विषमताओं को वे और भड़काते रहेंगे।

इसीलिए मार्क्सवादी विमर्श में आर्थिक समेत हर प्रकार की विषमताओं को मूल समस्या के लक्षणों के रूप देखा जाता रहा है। मूल समस्या है, उत्पादन के साधनों पर पूंजी का एकतरफा नियंत्रण। मार्क्सवादी नजरिए में इसका समाधान है इन साधनों पर सामूहिक नियंत्र। बीसवीं सदी में इसका एक रूप उत्पादन के साधनों पर राजकीय नियंत्रण (state control) के रूप में सामने आया।

जहां सोशल डेमोक्रेसी के प्रयोग हुए, वहां उस व्यवस्था को आंशिक रूप से अपनाया गया- यानी राज्य ने अर्थव्यवस्था में भी अपनी भूमिका बनाई। इसी भूमिका के तहत आर्थिक नियोजन के जरिए सामाजिक एवं मानव विकास की दिशा में प्रयास हुए। इसके लिए संसाधन जुटाने के मकसद से प्रगतिशील कराधान (progressive taxation) का तरीका अपनाया गया।

थॉमस पिकेटी इसी व्यवस्था को बढ़ी गैर-बराबरी का समाधान बताते रहे हैं। यह अच्छी बात है कि इसके नाकाफी होने का अहसास अब उन्हें हुआ है। तो उन्होंने आर्थिक लोकतंत्र की जरूरत बताई है। चार साल पहले वे समाजवाद की जरूरत बता चुके हैं। इस चर्चा में उनका एक और अध्ययन चर्चित हुआ था, जिसमें उन्होंने Brahmin Left बनाम Merchant Right का कॉन्सेप्ट रखा था।

(http://piketty.pse.ens.fr/files/Piketty2018PoliticalConflict।pdf)

Brahmin Left कहने के पीछे उनकी दलील थी कि पश्चिमी देशों में लेफ्ट पार्टियों ने श्रमिक वर्ग से खुद को काट लिया और अपनी सारी सियासत नस्लीय/लैंगिक अस्मिता आधारित न्याय और आव्रजकों के प्रति उदारता जैसे मुद्दों पर केंद्रित कर दी। उधर दक्षिणपंथ, जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद जन कल्याणकारी नीतियों पर सीमित रूप में सहमत हो गया था और खुद को परंपराओं के संरक्षक के रूप में परिभाषित करता था, उसने कारोबारी स्वार्थों के साथ अपने को पूरी तरह जोड़ लिया।

पिकेटी के मुताबिक इस परिघटना का नतीजा हुआ कि श्रमिक वर्ग की उसके हितों के आधार पर नुमाइंदगी करने वाली कोई ताकत राजनीतिक दायरे में नहीं बची। उधर अपने पूंजी समर्थक एजेंडे को सार्वजनिक चर्चा से बाहर रखने के लिए दक्षिणपंथ ने परंपरा, मजहबी पहचान, और आव्रजन विरोध आदि को लेकर आक्रामक अभियान चलाया। चूंकि श्रमिक हितों की बात राजनीति से गायब हो गई, इसलिए धीरे-धीरे दक्षिणपंथ श्रमिक वर्ग को अपने एजेंडे में समाधान दिखाने में कामयाब होता चला गया। उसका परिणाम आज की ध्रुवीकरण केंद्रित राजनीति है।

इस परिघटना का आर्थिक गैर-बराबरी को बढ़ाने में प्रमुख योगदान रहा है। इसलिए कि आर्थिक न्याय का मुद्दा चुनावों में उठता ही नहीं है- इन्हें उठाने वाली कोई सियासी ताकत ही मौजूद नहीं है- तो इस पर या इसके कारणों पर चुनावी राजनीति के दायरे में कोई बहस नहीं होती। आर्थिक लोकतंत्र से पिकेटी का क्या तात्पर्य है, यह तो स्पष्ट नहीं है, लेकिन इस बारे में उनके पहले के विमर्शों को ध्यान में रखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है।

वे संभवतः सोचते हैं कि फिर से कथित non-Brahmin left का उदय हो- यानी ऐसे लेफ्ट का जो श्रमिकों के वर्गीय हितों को अपनी राजनीति के केंद्र में ले आए, तो यह संभव है कि अर्थव्यवस्था के नियोजन में राज्य अपनी भूमिका फिर से बना सकेगा। उससे जन कल्याण का नया दौर आएगा। मगर अहम सवाल यह है कि क्या बीसवीं सदी के चौथे से आठवें दशकों तक शासक/पूंजीपति वर्ग श्रमिकों के लिए जिन रियायतों पर राजी हुआ था, क्या अब उसे फिर से उसके लिए तैयार किया जा सकेगा, जब वह व्यवस्था पर अपने पूरे नियंत्रण को लेकर आश्वस्त है?

वैसे भी शासक वर्ग तब जिन रियायतों के लिए तैयार हुआ था, उस सहमति का दौर काफी छोटा रहा। बड़ी पूंजी के नियंताओं ने जल्द ही उदारवाद के सोशल डेमोक्रेसी में तब्दील होने की बनती संभावना के खिलाफ मुहिम छेड़ दी। इसके लिए जो वैचारिक अभियान चलाए गए, उसी का परिणाम नव-उदारवाद की धारणा थी। अर्थशास्त्रियों फ्रेडरिक हाइक और मिल्टन फ्रीडमैन ने इन नीतियों की वकालत शुरू की, जो देखते-देखते एक पूरी धारा बन गई। इसके पीछे किन बड़े पूंजीपतियों की कितनी बड़ी फंडिंग का योगदान था, उस बारे में पर्याप्त सूचनाएं उपपब्ध हैं।

आज की परिस्थितियों में इस धारा को महज कथित non-Brahmin left के जरिए चुनावी रास्ते से पलट देना संभव नहीं दिखता। यूरोपीय लेफ्ट, बल्कि वहां की कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ भी सबसे बड़ी दिक्कत यह रही कि उन्होंने अपने विमर्श में साम्राज्यवाद की प्रमुख भूमिका को नजरअंदाज किया और जहां भी समाजवाद के वास्तविक प्रयोग हुए, उन्हें बदनाम करने की मुहिम में अपने देश के शासक समूहों का साथ दिया। उनका ये नजरिया आज भी कायम है। इसलिए वे कई बार स्थितियों के ठोस विश्लेषण के बावजूद बतौर समाधान गलत समाधान तक पहुंचते हैं। गैर-बराबरी के मुद्दे पर भी ऐसा ही हुआ है।

बहरहाल, पिकेटी के साथ अच्छी बात यह है कि उनकी सोच का विकासक्रम जारी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सामने आते तथ्यों के साथ-साथ वे एक दिन इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि जमीनी स्तर पर श्रमिक वर्ग के संगठन और मेहनतकशों के अपना राज कायम के सपने से प्रेरित संघर्षों के बिना समाजवाद की तमाम कल्पनाएं महज दिवास्वप्न हैं।

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By सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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