संसार में कुछ भी स्वतः अर्थात अपने से बनता हुआ दिखाई नहीं देता। ब्रह्मसूत्र और फिर आधुनिक काल के विख्यात वैज्ञानिक न्यूटन ने भी कहा है कि प्रकृति का प्रत्येक कण यदि खड़ा है तो खड़ा ही रहेगा, और यदि चल रहा है, तो सीधी रेखा में एक स्थिर गति से चलता ही रहेगा, जब तक कि उस पर किसी बाहरी शक्ति का प्रभाव न पड़े। यह सिद्धांत सर्वमान्य है कि बिना कर्त्ता के कर्म नहीं होता।
आस्तिक लोग स्वभावतः ईश्वर भक्त होते हैं। और नास्तिक तो अजीब जीव हैं, वे न तो परमात्मा को मानते हैं, और न ही परमात्मा के द्वारा दिए ज्ञान को। ईश्वर को मानना अथवा नहीं मानना, यह अपने विवेक की बात है। परन्तु उसे जानना आवश्यक है, क्योंकि उसे नहीं जान पाने के कारण उससे होने अथवा हो सकने वाले भावी लाभ से कहीं हम वंचित न रह जाएं। और कुछ भी लाभ नहीं हो सकने की स्थिति में उसे जानकर उसे मानना छोड़ सकने में तार्किक व बुद्धिगम्य आसानी होगी। परन्तु नास्तिकों के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि वे पहले इस बात का उत्तर ढूंढें कि जिसमें वे रह रहे हैं, यह सृष्टि कैसे बनी? ब्रह्मसूत्र में कहा है –
सर्वत्र प्रसिद्धोपदेशात् । -ब्रह्मसूत्र 1/2/ 1
अर्थात – जो सब स्थान पर, और सब काल में प्रसिद्ध है, उसके ज्ञान से परमात्मा की सिद्धि होती है।
कैसे होती है? इस बात का उत्तर भी ब्रह्मसूत्रकार ने ही देते हुए कहा है-
जन्माद्यस्य यतः । – ब्रह्मसूत्र 1/1/2
अर्थात- जिसने यह सृष्टि उत्पन्न की है, जो इसका पालन कर रहा है और जो इसका समय पर संहार करेगा, वह ब्रह्म अर्थात परमात्मा है।
यह इस सर्वत्र प्रसिद्ध जगत को देखने से हमें पत्ता चलता है कि संसार में कुछ भी स्वतः अर्थात अपने से बनता हुआ दिखाई नहीं देता। ब्रह्मसूत्र और फिर आधुनिक काल के विख्यात वैज्ञानिक न्यूटन ने भी कहा है कि प्रकृति का प्रत्येक कण यदि खड़ा है तो खड़ा ही रहेगा, और यदि चल रहा है, तो सीधी रेखा में एक स्थिर गति से चलता ही रहेगा, जब तक कि उस पर किसी बाहरी शक्ति का प्रभाव न पड़े। इसलिए पृथ्वी, चन्द्र और अन्य बड़े- बड़े नक्षत्रों की गत्ति आरम्भ करने वाला और इसको इतने काल से अंडाकार मार्ग पर चलाने वाला, कोई महान सामर्थ्यवान होना चाहिए। यह सिद्धांत सर्वमान्य है कि बिना कर्त्ता के कर्म नहीं होता। इसका वर्णन दर्शनाचार्य व्यास मुनि ने ब्रह्मसूत्रों में भी किया है। ब्रह्मसूत्र कहता है –
व्यतिरेकानवस्थितेश्चान्पेक्षत्वात।। – ब्रह्मसूत्र – 2/2/4
अर्थात – प्रकृति की गति उलट नहीं सकती, जब तक कोई बाहर से उस पर प्रभाव नहीं डाले।
इसलिए पृथ्वी, चन्द्र, तारागण इत्यादि कभी चलने आरम्भ हुए थे। उपरोक्त सिद्धांतों से स्पष्ट है कि इतने बड़े – बड़े पदार्थ बिना किसी बाहरी शक्ति के हरकत में नहीं आ सकते। साथ ही ये जो अंडाकार मार्ग पर चल रहे हैं, वे बिना किसी महान शक्तिशाली के निरंतर प्रयत्न के नहीं चल सकते थे। वह सामर्थ्यवान ही परमात्मा है। वस्तुतः परमात्मा एक है। वह सृष्टि को रचने वाला है। उसने यह सृष्टि रची है प्रकृति से। प्रकृति चेतना रहित है। प्रकृति को, सृष्टि रचना को स्वयंभू नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसमें अपने- आप बनने की शक्ति नहीं होती। जल ऊपर से नीचे की ओर गिरता है, इस कारण कि पृथ्वी में आकर्षण है। यदि यह आकर्षण न हो तो यह गिर नहीं सकता । इसी प्रकार जल समुद्र से ऊपर चढ़ आकाश में बादल रूप बन जाता है। यह सूर्य के उष्णत्व के कारण है। बिना सूर्य के आकर्षण के जल आकाश में नहीं जा सकता। इसी प्रकार प्रकृति से कुछ भी नहीं हो सकता, जब तक इसको कोई हिलाने- डुलाने वाला न हो। पृथ्वी और सूर्य में आकर्षण के रूप में परमात्मा ही है, जो इसको अस्थिर करता अर्थात हिलाता- डुलाता है। तत्व रूप में यह शक्ति परमात्मा की ही है। इसको प्राण कहा जाता है । प्राण इस अचेतन शक्ति में हलचल उत्पन्न करता है ।
इस जगत के निर्माण, निर्माणकर्ता, और कारण पर उपलब्ध वैदिक विवरणियों के समीचीन अध्ययन से स्पष्ट होता है कि संसार के प्राकृतिक नियमानुसार किसी भी क्रिया के होने पर उसके कर्त्ता का होना निश्चित है। कर्त्ता के नहों होने पर क्रिया का होना संभव ही नहीं है। इस संसार में नित्य दिखाई देने वाले सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि पदार्थों व इस प्राणी जगत का कर्त्ता अथवा इसका निर्माण करने वाला कोई न कोई अवश्य है, अन्यथा अपने आप अर्थात स्वतः तो कुछ नहीं बनेगा अथवा कुछ नहीं बन सकता। शून्य से कुछ नहीं बन सकता। इस संसार के सत्य होने का प्रमाण है कि संसार का कर्त्ता अथवा इसको बनाने वाला कोई न कोई तो अवश्य है, चाहे वह निराकार हो अथवा साकार। लेकिन वह निर्माण कर्त्ता अथवा स्रष्टा का सत्ता अवश्य है। यही कारण है कि वैदिक मत में उसे सत्य पदार्थ कहा जाता है। रचना सदैव चेतन द्वारा ही संभव है। जड़ अथवा निर्जीव पदार्थ द्वारा यह कदापि संभव नहीं है। इसलिए इस स्रष्टा एक स्वरूप अर्थात एक गुण उसका चेतन तत्व होना है, जिसे चित्त कहा जाता है। दुःख व क्लेश से युक्त कोई भी चेतन सत्ता संसार को बना नहीं सकती, इसलिए उसका समस्त दुखों से रहित और आनन्द स्वरूप होना भी सिद्ध होता है। इस ब्रह्माण्ड का स्वरूप अनन्त परिमाण वाला दिखाई देता है। इसलिए रचना व रचयिता का एक स्थान पर होना आवश्यक है। इस संसार को अनन्त परिमाण में देखकर ईश्वर भी अनन्त व सर्वव्यापक, सर्वदेशी और सूक्ष्मतम होना सिद्ध होता है। यह भी सिद्ध है कि इस ब्रह्मांड को बनाने वाला अल्प शक्ति वाला नहीं बल्कि सर्वशक्तिमान ही होगा। किसी भी उपयोगी रचना हेतु आवश्यक ज्ञान की उसमें कोई कमी नहीं होगी। क्योंकि ज्ञान की कमी से रचना करने पर उसका उद्देश्य पूरा नहीं होता तथा रचना में दोष आ जाते हैं। जिस सत्ता से यह सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, मानव शरीर व अन्य प्राणी जगत बना है, वह कोई साधारण ज्ञानी नहीं हो सकता है, अपितु उसमें ज्ञान की पराकाष्ठा है। यही कारण है कि उसे सर्वज्ञानमय या सर्वज्ञ कहा जाता है। इस प्रकार से अन्यान्य गुणों का समावेश भी उस सत्ता में होना सिद्ध होता है। महर्षि दयानन्द के शब्दों में, ईश्वर सत्य-चित्त-आनन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है।
उल्लेखनीय है कि ईश्वर ने मनुष्य, पशु, पक्षी अर्थात समस्त थलचर, नभचर तथा जलचर आदि प्राणी सहित इस जगत को बनाया। इन सभी प्राणियों के शरीरों में एक-एक जीवात्मा है। इन सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम, चेतन तत्व जीवात्माओं को ही ईश्वर ने भिन्न-भिन्न प्राणी-शरीर प्रदान किये हैं, जिनसे यह सुख व दुखों का भोग करने के साथ कर्म में प्रवृत्त रहते हैं। सभी प्राणियों के सुख- दुःख के कारणों की विवेचना करने से ज्ञात होता है कि शुभ अथवा अशुभ, अच्छे या बुरे तथा पुण्य व पाप कर्मों को मनुष्य योनि में लोग करते हैं। शुभ, अच्छे व पुण्य कर्मों का फल सुख दिखाई देता है और अशुभ, बुरे वा पाप कर्मों का फल दुःख दिखाई देता है। इसलिए ईश्वर जीवात्माओं को कर्म के फल प्रदान करने वाला तथा सभी प्राणियों को उनके शुभाशुभ कर्मों के आधार पर मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियों में जन्म देता है। यह ईश्वर के स्वरूप व कार्यों का एक मुख्य अंग है। मनुष्य भी चेतन तत्व हैं, और इसकी सत्ता भी यथार्थ अर्थात सत्य है। मनुष्य की सत्ता भी काल्पनिक नहीं है, वरन यह पूर्णतः सत्य है, व उसका अस्तित्व यथार्थ है। यह अस्तित्व अनुत्पन्न, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर सिद्ध होता है। कोई मनुष्य कभी दुःख नहीं चाहता, परन्तु वह इसमें विवश है। जब-जब उसे रोगादि, दुर्घटनाओं, आर्थिक तंगी, अशिक्षा, अज्ञान आदि के कारण दुःख होता है, तो उसमें वह विवश व परतन्त्र होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि दुःख का कारण उसके अशुभ कर्म अथवा उन कर्मों के ईश्वर द्वारा दिये जाने वाले फल हैं, जो वर्तमान व पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर ईश्वर से उसे जीवन भर मिलते रहते हैं। इस प्रकार से जीव की सत्ता अनादि, नित्य व इसका स्वरूप सत्य व चेतन, एकदेशी, सूक्ष्म, आकार-रहित, अजर, अमर, जन्म-मरण-धर्मा सिद्ध होता है।
इस प्रकार ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध है, भले उसे कोई माने अथवा न माने। जो पदार्थ यथार्थ रूप में हैं, उनको मानना ही ज्ञान व न मानना अज्ञान कहलाता है। ईश्वर है, तो उसे तो मानना ही पड़ेगा, उससे होना वाले लाभ अथवा हानि की बात पृथक है। लेकिन यह भी सत्य है कि मनुष्य को उसका चिन्तन कर उसे अधिक से अधिक जानने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए वैदिक ग्रन्थों का सहारा लेना चाहिए। मनुष्य को ज्ञान नैमित्तिक साधनों से प्राप्त होता है। यह ज्ञान माता-पिता-आचार्यों से भी प्राप्त होता है अथवा सत्य विद्याओं पर आधारित पुस्तकों का अध्ययन कर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। माता-पिता-आचार्यों व पुस्तकों की बहुत सी बातें अज्ञान व अविवेक पूर्ण भी हो सकती है, क्योंकि यह उनकी ज्ञान की क्षमता पर निर्भर होती है, जो कि सीमित है। कोई भी मनुष्य पूर्ण ज्ञानी अर्थात सर्वज्ञ कदापि नहीं हो सकता। ससीम व एकदेशी होने के कारण जीवात्मा अल्पज्ञ अर्थात अल्प ज्ञान प्राप्त करने वाली है। उसे ज्ञान वृद्धि के लिए अपने से अधिक जानने वाले माता-पिता-आचार्यों की अपेक्षा होती है। मनुष्यों द्वारा ही निर्मित सभी पुस्तकें इसी कोटि में आती है। इसलिए सत्य ज्ञान की पुस्तकों को पढ़कर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
सत्य ज्ञान की पुस्तकें चार वेद हैं। वेद किसी मनुष्य की रचना न होकर संसार को बनाने वाले और चलाने वाले सच्चिदानन्द स्वरूप ईश्वर की रचनायें हैं। इन पुस्तकों में निहित ज्ञान को ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार श्रेष्ठ बुद्धि व स्वस्थ शरीरधारी पुण्यात्माओं को प्रदान किया था। इन्हीं वेदों के आधार सतत वेदों का अघ्ययन, चिन्तन, उपासना करके हमारे प्राचीन ऋषियों ने वेदानुकूल सत्य ज्ञान की ग्रन्थों की रचना की है। ऐसे ग्रन्थों में वेदों से इतर शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, निघण्टु, ज्योतिष, उपनिषद व दर्शन, प्रक्षेप रहित मनुस्मृति आदि वेदानुकूल ग्रन्थ हैं, जिनका अध्ययन कर सत्य-सत्य ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है।