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जगत तो निराकार ईश्वरीय शक्ति से

रूद्र

इस जगत का निमित्त कारण ज्ञानशक्ति संपन्न सर्वशक्तिमान कोई न कोई अवश्य ही है। और आस्तिक गण इसे ईश्वर कहते हैं। नास्तिक इस पर प्रतिप्रश्न करते हैं कि ईश्वर ने जगत उत्पन्न किया है, तो ईश्वर को किसने उत्पन्न किया? सत्य ज्ञान के आग्रहियों के अनुसार परिणामी पदार्थ कार्यरूप होते हैं, उनको कारण की अपेक्षा होती है। ईश्वर के परिणामी होने पर उसका भी कारण होता, परंतु ईश्वर तो नित्य है, अपरिणामी है। उसका कर्ता नहीं हो सकता। और किसी के रहने का अत्ता- पत्ता अर्थात ठिकाना एकदेशी के लिए होता है, ईश्वर जैसे विभु के लिए नहीं। इससे स्पष्ट है कि ईश्वर निराकार शक्ति है, जो इस जगत का निमित्त कारण है।

वैदिक मतानुसार ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों कारण, स्वयंसिद्ध और अनादि हैं। ईश्वर अर्थात परमात्मा में परम+ आत्मा तथा जीवात्मा में जीव+ आत्मा दो शब्द हैं। परमात्मा शब्द का अर्थ है- सर्वश्रेष्ठ आत्मा और जीवात्मा का अर्थ है- प्राणधारी आत्मा। आत्मा शब्द दोनों में ही संलिप्त होने के कारण अक्सर ही लोग परमात्मा और जीवात्माओं में कोई भेदभाव किए बिना सभी जीवन तत्वों के लिए आत्मा शब्द का प्रयोग करते हैं। दोनों के कार्यक्षेत्र अत्यंत विभिन्न होने के बावजूद परमात्मा और जीवात्माओं के कार्यो में अत्यंत समानता होना इस भ्रम का कारण है। इसके कारण नास्तिकों को मनुष्य को सिद्ध और ईश्वर की श्रेणी में दर्शाने का अवसर मिल जाता है। इस कार्यरूप सृष्टि के नियमों पर विचार करने से स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि इस सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ नियमपूर्वक परिवर्तनशील है। प्रत्येक जाति के प्राणी अपनी जाति के ही अंदर उत्तम, मध्यम और निकृष्ट स्वभाव से पैदा होते हैं।

इस विशाल सृष्टि में होने वाले सभी कार्य नियमित, बुद्धिपूर्वक और आवश्यक है। सृष्टि नियमपूर्वक परिवर्तनशील होने का अर्थ है, सृष्टि को स्वाभाविक गुण से परिवर्तनशील मानने वाले गलती पर हैं, क्योंकि स्वभाव में परिवर्तन नहीं होता। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि परिवर्तन नाम है अस्थिरता का। और स्वभाव में अस्थिरता नहीं होती, क्योंकि उलट- पलट, अस्थिर ये नैमित्तिक गुण हैं, स्वाभाविक नहीं। इसलिए सृष्टि में परिवर्तन स्वाभाविक नहीं। प्रकृति में परिवर्तन स्वाभाविक माने जाने से अनंत परिवर्तन अर्थात अनंत गति माननी पड़ेगी और फिर एक समान अनंत गति मानने से संसार में किसी भी प्रकार से ह्रास -विकास संभव नहीं रहेगा, किन्तु सृष्टि में बनने और बिगड़ने की निरंतर प्रक्रिया से सिद्ध होता है कि सृष्टि का परिवर्तन नैमित्तिक है, स्वाभाविक नहीं।

इस परिवर्तनरुपी नियम के द्वारा यह सिद्धप्राय है कि सृष्टि का मूल व प्रधान कारण है, जो खंड खंड, परिवर्तन शील और परमाणु रूप से विद्यमान है। परन्तु यह परमाणु चेतन और ज्ञानवान नहीं हैं। इसका कारण है कि चेतन और ज्ञानवान सत्ता कभी दूसरे के बनाये नियमों  में बंध नहीं सकती, बल्कि ऐसी सत्ता अपनी ज्ञान स्वतंत्रता से निर्धारित नियमों में बाधा पहुँचाती है। इस जगत में परमाणु अपना कार्य बखूबी कर रहे हैं। किसी भी स्थान पर दूसरे जड़ पदार्थों से जोड़े जाने पर भी ये वहाँ भी आँख बंद करके भी कार्य कर रहे हैं, तनिक भी इधर- उधर नहीं होते। इससे स्पष्ट है कि इस सृष्टि का परिवर्तनशील कारण जो परमाणु रूप में विद्यमान है, ज्ञानवान नहीं, बल्कि जड़ है। इसी जड़, परिवर्तनशील और परमाणु रूप उपादान कारण को माया, प्रकृति, परमाणु, मेटर आदि संज्ञाओं से अभिहित किया जाता है, जो संसार के कारणों में से एक माना जाता है।

संसार में सभी प्राणियों के उत्तम और निकृष्ट स्वभाव हैं। संसार में प्रतिभावान, सौम्य और दयावान स्वभाव के मनुष्य देखे जाते हैं, तो मूर्ख, उद्दंड और निर्दयी स्वभाव के मनुष्य भी बहुतायत में हैं। गौ, घोडा आदि कई पशु स्वभाव से ही सीधे होते हैं। और बाघ, शेर आदि कई क्रोधी और दौड़ -दौड़कर मारने वाले होते हैं। यह स्वभाव विरोध शारीरिक अर्थात भौतिक नहीं, बल्कि चैतन्य बुद्धि और ज्ञान से सम्बन्ध रखने वाली आध्यात्मिक है। यह ज्ञान प्राणियों के पूरे शरीर में व्याप्त नहीं है, अर्थात प्राणियों में वास करने वाली ज्ञानवाली शक्ति सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त नहीं है। मनुष्य के सम्पूर्ण शरीर में ज्ञान व्याप्त होने पर किसी के कोई अंग- भंग हो जाने अर्थात अंगुली, हाथ, पैर आदि के कट जाने से उसके ज्ञानांश में कोई कमी होती देखी जाती, लेकिन अब तक ऐसा कोई मामला सामने नहीं आया। इससे यह स्पष्ट है कि प्राणियों में वास करने वाली ज्ञान वाली शक्ति मनुष्य के पूरे शरीर में व्याप्त नहीं वरण वह एकदेशी, परिच्छिन्न और अनुरूप ही है, क्योंकि वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म कृमियों में भी मौजूद है। सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होने पर मनुष्य के शरीर के बढ़ते जाने की स्थिति में उस ज्ञान शक्ति को भी बढ़ना पड़ता, लेकिन हकीकत में ऐसा होता दिखाई नहीं देता। यह शक्ति परमाणुओं के संयोग से भी नहीं बनी, क्योंकि ज्ञानवान तत्व, परमाणु संयुक्त होकर नहीं बन सकता और न ही अनेक जड़ और अज्ञानी परमाणुओं के द्वारा एक साथ एकत्रित होकर परस्पर संवाद ही जारी रख सकने की ही कोई संभावना है।

इससे सिद्ध है कि प्राणियों में मौजूद ज्ञानवान शक्ति, अल्पज्ञ है, एकदेशी है, परिच्छिन्न है। इसलिए इस शक्ति को जीव कहा गया है। इस विस्तृत सृष्टि में घटित होने वाले सभी कार्य नियमित, बुद्धिपूर्वक और आवश्यक है। सूर्य, चन्द्र और समस्त ग्रह, उपग्रह अपनी -अपनी नियत धुरी पर नियमित रूप से भ्रमण कर रहे हैं। पृथ्वी अपनी दैनिक और वार्षिक गति के साथ अपनी नियत सीमा में घूम रही है। वर्षा, सर्दी और गर्मी नियत समय में होती है। मनुष्य और पशु- पक्षी आदि के शरीरों की बनावट, वृक्षों में फूलों और फलों की उत्पत्ति, बीज से वृक्ष व वृक्ष से बीज का नियम, प्रत्येक जाति की आयु और भोगों की व्यवस्था आदि सृष्टि के स्थूल, सूक्ष्म सभी व्यवहार में व्यवस्था, प्रबंध और नियम दृष्टिगोचर होता है। प्रत्येक प्राणी के शरीर की वृद्धि और ह्रास में नियामक के नियम का चमत्कार दिखलाई देता है। मनुष्य उत्पन्न होकर बाल्यावस्था से यौवनावस्था प्राप्त करता है, फिर शनैः- शनैः ह्रासत्व को प्राप्त होकर वृद्धावस्था की ओर बढ़ता जाता है।

वृद्धि और ह्रास का कारण आहार आदि पोषक पदार्थ तो हैं, लेकिन एक ही घर में, एक ही परिस्थिति में और एक ही आहार- व्यवहार के साथ रहते हुए भी छोटे बच्चे तो बढ़ते जाते हैं, और जवान वृद्ध होते जाते हैं तथा वृद्ध अधिक जर्जरित होते जाते हैं। इन प्रबल और चमत्कारिक नियमों से स्पष्ट है कि इस सृष्टि के अंदर एक अत्यंत सूक्ष्म, सर्वव्यापक, परिपूर्ण और ज्ञानरूपा चेतनशक्ति विद्यमान है, जो अनंत आकाश में प्रशस्त असंख्य लोकलोकान्तरों का भीतरी और बाहरी प्रबंध किये हुए है। इससे यह भी स्पष्ट है कि नियम बिना नियामक के, नियामक बिना ज्ञान के और ज्ञान बिना ज्ञानी के होने (रहने) का कोई औचित्य नहीं है। यह सम्पूर्ण सृष्टि एक नियमपूर्वक व्यवस्था द्वारा संचालित है। इसलिए विशाल सृष्टि में होने वाले सभी कार्य नियमित, बुद्धिपूर्वक और आवश्यक होना भी सृष्टि के नियमों में शामिल है। सृष्टि के नियमपूर्वक संचालन करने वाले को ही परमात्मा, ईश्वर आदि अनेक नामों से संज्ञायित किया गया है। ईश्वर, जीव और प्रकृति -सृष्टि के ये तीनों कारण स्वयंसिद्ध और अनादि हैं।

इस संसार में दो प्रकार के पदार्थ दिखाई देते हैं- परिणामी और अपरिणामी। सभी साकार पदार्थ परिणामी हैं, और सभी निराकार पदार्थ अपरिणामी हैं। इन साकार पदार्थो में प्रथमतः मनुष्य शरीर माता -पिता के संयोग से उत्पन्न होता है, बढ़ता है, घटता है और अंत में नष्ट हो जाता है। इससे यह सिद्ध है कि जो उत्पन्न हुआ है, वह नष्ट भी होगा, और जो परिणाम में है, वह पैदा हुआ है। व्यष्टि पदार्थ अर्थ एक व्यक्ति की भांति ही यह समष्टि जगत भी परिणामी है। अवयवी के अवयव परिणाम को प्राप्त होते हैं। वह अवयवी भी परिणामी होता है, क्योंकि सम्पूर्ण अवयवों का नाम अवयवी है। इस प्रकार स्पष्ट है कि यह जगत परिणामी है। और जगत के परिणामी होने से उसकी उत्पत्ति होना भी सिद्ध है। शब्द प्रमाण से भी सिद्ध है कि जगत उत्पन्न हुआ और जगत, संसार, सृष्टि और इस अर्थ वाले सभी पर्यायवाचक शब्द के अर्थ उत्पत्ति वाले के हैं।

वैदिक मतानुसार यह उत्पत्ति नैमितिक है, स्वाभाविक नहीं। जिस पदार्थ की उत्पत्ति जिस पदार्थ से होता है, उसका लय भी उसी पदार्थ में होता है। इससे कार्यरुप सभी पदार्थो में अनित्यता और कारणरूप पदार्थो में नित्यता का बोध होता है। पंचभूतों अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश में सब पदार्थो का लय होता है, और उन्ही पंच पदार्थो से इस जगत की उत्पत्ति हुई है। यद्यपि कार्य अवस्था इन पदार्थो की अनित्यता दिखाई देती है, परन्तु कारणावस्था में यह नित्य होते हैं। पृथ्वी जड़ प्रतीत होती है। जल भी ज्ञानशून्य है। अग्नि भी ज्ञान नहीं रखती। वायु में भी ज्ञान का अभाव ही प्रतीत होता है। आकाश ज्ञान से हीन है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सम्पूर्ण भूत ज्ञान से रहित हैं। इस संसार में मिलने वाले सोने व चांदी के बने गहने में क्रमशः सोने व चांदी के गुण पाये जाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि कारण के गुण अनुकूल कार्य में गौण रहते हैं। भूतों में ज्ञान गुण नहीं होने से यह सिद्ध है कि उसके कार्यरूप जगत में भी ज्ञान नहीं हो सकता। लेकिन इस जगत में मनुष्यों को ज्ञान से युक्त देखे जाने से मन में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह ज्ञान गुण किसका है?

चार्वाक मत वालों के अनुसार पृथक भूतों में तो चैतन्यता नहीं, किन्तु यह संयोग से उत्पन्न होती है। लेकिन यह सर्वविदित है कि जो गुण एक एक में न रहे वह संयोग से उत्पन्न नहीं होता। जैसे मैदा, जल आदि में मधुरता नहीं उत्पन्न होती, वहीं गुड़ अथवा शक्कर में मधुरता है। गुड़ अथवा शक्कर जल में मिलाने से तुरंत मधुरता उत्पन्न हो जाती है। रेल के इंजन में पंचभूत अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश है, परन्तु ज्ञानशक्ति नहीं है। मृतक शरीर में पांचो ज्ञानशक्ति का आधार कोई दूसरी वस्तु है। इस प्रकार सृष्टि में जड़, चैतन्य को दो स्वरूप में विचार करने से मन में प्रश्न उत्पन्न होता है कि सृष्टि में इनका संयोग स्वभाव से संयोग है या निमित्त से? जहाँ पर नियम हैं, अर्थात जो कार्य नियमपूर्वक होते हैं, वह नैमित्तिक और जो कार्य बेनियम हैं, अर्थात बेतरतीब होते हैं, वह स्वाभाविक हैं।

सृष्टि में नियम को देखने से इसके हर एक पदार्थ में नियम प्रतीत होता है। मनुष्य अर्थात पुरुष- स्त्री के संयोग से बालक, कुत्ता- कुतिया के संयोग से कुत्ता, घोडा -घोड़ी के संयोग से घोडा ही उत्पन्न होते देखा जाता है। घोड़ी और गधे के संयोग से खच्चर पैदा होता है। इसी प्रकार सृष्टि के सब पदार्थ नियमानुसार प्रतीत होते हैं। इन नियम बंध कार्यों को किसी भी विधि से स्वाभाविक नहीं माना जा सकता है। स्वाभाविक गुण वाले सर्वदा एकरस रहते हैं। स्थिर हैं तो स्थिर ही रहेंगे अथवा गतिशील हैं तो गतिशील ही रहेंगे। वे बिना किसी निमित्त के बदलते नहीं। जैसे जल का स्वभाव शीतल होने से वह बिना अग्नि संयोग के उष्ण नहीं होगा। इससे सिद्ध है कि जल में उत्पन्न वह उष्णता अग्नि की है, न कि जल की। इससे स्पष्ट है कि पंचभूतों में ज्ञान नहीं। और न ही वे स्वयं से संयोग- वियोग ही कर सकते हैं, क्योंकि पंचभूत जड़ पदार्थ हैं। पंच भूतों के स्वभाव से तो जगत की उत्पत्ति असंभव है। इससे यह स्पष्ट है कि इस जगत का निमित्त कारण ज्ञानशक्ति संपन्न सर्वशक्तिमान कोई न कोई अवश्य ही है। और आस्तिक गण इसे ईश्वर कहते हैं। नास्तिक इस पर प्रतिप्रश्न करते हैं कि ईश्वर ने जगत उत्पन्न किया है, तो ईश्वर को किसने उत्पन्न किया? सत्य ज्ञान के आग्रहियों के अनुसार परिणामी पदार्थ कार्यरूप होते हैं, उनको कारण की अपेक्षा होती है। ईश्वर के परिणामी होने पर उसका भी कारण होता, परंतु ईश्वर तो नित्य है, अपरिणामी है। उसका कर्ता नहीं हो सकता। और किसी के रहने का अत्ता- पत्ता अर्थात ठिकाना एकदेशी के लिए होता है, ईश्वर जैसे विभु के लिए नहीं। इससे स्पष्ट है कि ईश्वर निराकार शक्ति है, जो इस जगत का निमित्त कारण है।

By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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