समय का पहिया पूरा घूम चुका है। ऐसा क्यों माना जाए? यह जानने के लिए पिछले हफ्ते के घटनाक्रम पर नजर डाले। बताया जा रहा है कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथउत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग की मुलाकात काफी बढ़िया हुई। हम जानते ही हैं कि चोर-चोर सगे नहीं तो मौसेरे भाई तो होते ही हैं। लिहाज़ा, दोनों ने साथ बैठकर वाइन पी, एक-दूसरे की तारीफों के पुल बांधे और एक-दूसरे को सैनिक साजो-सामान देने का भरोसा दिलाया। हालांकि सैन्य सौदे का विस्तृत विवरण मास्को और प्योंग्यांग दोनों में से किसी ने नहीं दिया और ना ही इसकी उम्मीद है।
पुतिन की यह पहल, दरअसल, एक हताश व्यक्ति की मदद की गुहार है। और वह भी अपने समकालीन तानाशाह किम जोंग से। सिर्फ रूसी राष्ट्रपति ही कोरिया से मदद नहीं मांग रहे हैं बल्कि अमेरिका भी दूसरे कोरिया, यानि दक्षिण कोरिया से सहायता चाह रहा है। ऐसी खबरें हैं कि दक्षिण कोरिया बड़ी मात्रा में तोप के गोले अमेरिका भेज रहा है। हालांकि उसका दावा है कि वह सीधे यूक्रेन को किसी भी प्रकार के घातक हथियार प्रदान नहीं कर रहा है लेकिन अमेरिकी सेना कोरियाई गोले मिलने के बाद पहले से मौजूद अपने स्टॉक का बड़ा हिस्सा यूक्रेन को देने की स्थिति में आ जाएगा।
लगभग सत्तर साल पहले अमेरिका और रूस दोनों हथियार और अन्य सहायता क्रमशः दक्षिण और उत्तर कोरिया को देते थे, जिसका उपयोग ये दोनों देश आपस में चल रहे युद्ध में करते थे। पर समय का चक्र ऐसा घूमा की अब एक दूसरे युद्ध के लिए अमेरिका और रूस अपने-अपने कोरियाई मित्रों से सहायता ले रहे हैं।
कोरियाई युद्ध आधिकारिक तौर पर कभी ख़त्म नहीं हुआ। हालांकि सन् ।953 में युद्धविराम के बाद लड़ाई बंद हो गई लेकिन दोनों देशों के बीच शीत युद्ध आज भी जारी है। इसका नतीजा है दोनों देशों के बीच हथियार हासिल करने की दौड़ है,और दोनों के पास मौजूद हथियारों का विशाल भंडार है।
दक्षिण कोरिया के विपरीत उत्तर कोरिया में तानाशाही रही। इसलिए वह दुनिया से अलग-थलग और गरीब है। लेकिन सैन्य दृष्टि से वह काफी शक्तिशाली है। उसने सोवियत हथियार प्रणालियों की रिवर्स इंजीनियरिंग करके मिसाइलें बना ली हैं। माना जाता है कि उसने अपनी शुरूआती इंटरकॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइलें यूक्रेन से काले बाजार में खरीदीं और सीरिया और ईरान जैसे देशों को हथियार बेचकर खासी कमाई की।
इस बीच दक्षिण कोरिया ने भी रक्षा क्षेत्र में विकास किया और अमरीका की मदद से अपना रक्षा उद्योग विकसित किया। आज वह टैंक, होविटज़र मिसाइलें, लड़ाकू विमान और बख्तरबंद गाड़ियां बेचकर युद्ध में यूक्रेन की मदद कर रहा हैं। इससे न केवल दक्षिण कोरिया को कमाई हो रही है वरन् वह पहले मिली मदद का अहसान भी चुका पा रहा है।
आश्चर्य जो अमेरिका और दक्षिण कोरिया केमध्य मदद-के-बदले मदद का खेल दुनिया को बुरा नहीं लग रहा है। मगर रूस और उत्तर कोरिया की खतरनाक जुगलबंदी से दुनिया खौफजदा है। इकानामिस्ट पत्रिका का मानना है कि दोनों देशों के बीच हो रहे सौदों से न सिर्फ यूक्रेन के लिए समस्या अधिक गंभीर होगी बल्कि एशिया में परमाणु हथियारों का खतरा भी बढ़ेगा। यह चिंता एकदम जायज है, और चीन भी इससे फिक्रमंद है। हालांकि चीन यूक्रेन युद्ध में शुरू से रूस का समर्थन कर रहा है, लेकिन वह रूस और उत्तर कोरिया की बढ़ती नजदीकियों से चिंतित है। परंपरागत रूप से चीन और उत्तर कोरिया के सम्बन्ध बहुत अच्छे नहीं रहे हैं लेकिन हाल के दौर में व्यापार, खाद्यान्न और ईधन के आयात के लिए वह चीन पर निर्भर रहा है। अतः चीन कुछ शर्तों के साथ, उत्तर कोरिया का समर्थन करता रहा है। लेकिन किम जोंग और पुतिन की मुलाकात के नतीजे में उत्तर कोरिया को न सिर्फ सैन्य तकनीकी बल्कि खाद्यान्न और ईधन भी हासिल हुए हैं। इसका मतलब है कि उत्तर कोरिया की चीन पर निर्भरता कम होगी और उत्तर कोरिया पर चीन की पकड़ भी। ऐसे हालात में आक्रामक चीन उत्तर कोरिया पर काबू पाने के लिए अमेरिका के प्रति अपने द्वेष को भुलाकर उससे हाथ मिला सकता है।
रूस और उत्तर कोरिया के बीच बढ़ती रिश्तों की गर्माहट के बावजूद इसमें संदेह है कि पुतिन उत्तर कोरिया को पूरी तरह कारगर आईसीबीएम बनाने या परमाणु शक्ति संपन्न पनडुब्बियां बनाने की तकनीक देंगे। क्योंकि रूस, उत्तर कोरिया और चीन के बीच आपसी परस्पर विश्वास इतना कम है कि इनके बीच का कोई भी गठजोड़ भरोसेमंद या टिकाऊ नहीं होगा।
कुछ भी हो, हर दिन दुनिया में नए खतरे, चुनौतियां, शत्रुता, मित्रता, दृष्टिकोण और अंतदृष्टि उत्पन्न हो रही हैं। और यह सब बदलते वक्त की फितरत है। हो सकता है एक दिन अमेरिका, चीन, और रूस अपने मतभेद, युद्धों की यादें और आपसी घृणा का इतिहास भुलाकर सबसे पहले तेजी से ताकतवर हो रहे तीनों के साझा शत्रु – उत्तर कोरिया – से मिलकर निपटने का कोई फैसला करें। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)